कांग्रेस को लेकर अखिलेश यादव का जायका बेहद खराब है। उन्होंने कांग्रेस के प्रति संयत भाषा का परित्याग कर दिया है। मध्यप्रदेश की चुनावी जन सभाओं में उन्होंने कह दिया है कि कांग्रेस चालबाज पार्टी है। समझदार मतदाता इसको वोट देने की गलती न करें। समाजवादी पार्टी की ओर से बताया यह जा रहा है कि उनकी यह तल्खी मध्यप्रदेश में सीटें छोड़ने के मामले में समाजवादी पार्टी को दिये गये गच्चे की वजह से हुयी है। लेकिन अंदरखाने मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव अभियान में बीजेपी से ज्यादा अखिलेश के कांग्रेस पर बरसने के पीछे कोई अन्य राजनैतिक रहस्य छिपा है।
मध्यप्रदेश को जीत के मुहाने से पीछे खींचने में सपा अचानक बहुत जमकर जोर लगाने लगी है। सपा ने लगभग 80 उम्मीदवार मध्यप्रदेश में उतारे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें सफलता इक्का दुक्का मिल जाये तो बहुत है। ऐसा लगता है कि वे खुद सीटें जीतने के लिये नहीं बल्कि हम तो डूबेंगे सनम तुम्हे भी ले डूबेंगे की तर्ज पर कांग्रेस की कामयाबी रोकने पर आमादा हो गये हैं। इससे भाजपा मध्यप्रदेश में सत्ता में एक बार फिर वापसी के सपने देखने लगी है। हास्यास्पद यह है कि इसके बावजूद अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस भाजपा की बी टीम है।
अखिलेश के भाषणों का लब्बोलुआब यह है कि समाजवादी पार्टी अन्य पार्टियों की भलाई करने वाली पार्टी है और कांग्रेस को सत्ता मिलती रही तो इसलिये क्योंकि समाजवादी पार्टी ने उस पर हमेशा दया की। उत्तर प्रदेश तक सीमित होने के बावजूद एक राष्ट्रीय पार्टी का इतना दयनीय चित्रण करते हुये वे अपनी जमीन नहीं देखना चाहते।
जहां तक सहयोग की बात है जब जनता दल विभाजित हो गया तो पहली बार मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव को अपनी सरकार के लिये संकट का अनुभव हुआ। ऐसे में कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर उनकी मदद की। बदले में मुलायम सिंह की सरकार ने कांग्रेसियों पर ही लाठी बरसवायी और जेल में बंद कर दिया। बाद में 2004 में जब कांग्रेस को फिर सत्ता में आने का मौका मिला तो मुलायम सिंह अमर सिंह के साथ बिना बुलाये सोनिया गांधी के भोज में पहंुच गये थे और बिना शर्त मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन घोषित कर दिया था। मनमोहन सिंह सरकार बाद में जब अमेरिका से किये गये परमाणु समझौते के कारण वामपंथियों के समर्थन खींच लेने से डांवाडोल हो गयी थी तो मुलायम सिंह का समर्थन उसके लिये जीवनदान साबित हुआ। पर इसे लेकर मनमोहन सिंह सरकार ने क्या कीमत चुकायी यह पर्दे के पीछे की बात है लेकिन समझने वाले समझते है।
सहयोगी दलों का समाजवादी पार्टी कितना उद्धार करती रही इसकी गवाही तो वामपंथी दल दे सकते हैं। जो मुलायम सिंह की मुहब्बत में उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ लुटा बैठे। अखिलेश यादव संकेत दे रहे हैं कि वे इण्डिया गठबंधन को तोड़ सकते हैं। उन्होंने नया पीडीए गठबंधन बनाने की बात कहनी शुरू कर दी है। कांग्रेस पर उनका आरोप यह है कि वह आज पिछड़ों की बात कर रही है लेकिन उसने मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया था पर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का समर्थन तो मुलायम सिंह ने भी नहीं किया था। अगर वे समर्थन कर रहे होते तो जनता दल टूटता ही नहीं। चंद्रशेखर को अपना नेता बनाकर जाने की बजाय वे वीपी सिंह के साथ रहते। लेकिन उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल में बाधा उत्पन्न करने के लिये सृजित की गयी चंद्रशेखर सरकार को बनवाने में सहभागिता की और इसके बाद नरसिंहा राव भी खामोश तरीके से मंडल प्रतिक्रांति में जुटे रहे तो मुलायम सिंह भी उनका साथ देते रहे। 1992 में जब बावरी मस्जिद टूटी तो इसमें नरसिंहा राव सरकार की भी मिलीभगत बतायी गयी थी। उधर मंडल समर्थक राजनीतिक धु्रवीकरण भी अपने उफान पर पहुंच गया था। ऐसे में अगर प्रतिबद्धता का ख्याल किया होता तो मुलायम सिंह को नरसिंहा राव की सरकार के पतन में भूमिका निभानी चाहिये थी। पर उनकी पार्टी के सांसदों ने नरसिंहा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समय वामपंथी दलों और संयुक्त मोर्चा का साथ देने की बजाय अपनी पार्टी के सांसदों से बर्हिगमन करवाकर उन्होंने नरसिंहा राव के लिये रक्षाकवच का काम किया था।
अखिलेश को आज गुस्सा इसलिये है कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में एक तेज तर्रार प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है जिसके द्वारा लगातार हैवीवेट नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कराया जा रहा है जिससे कांग्रेस फिर जिंदा होने लगी है। अखिलेश को यह बिल्कुल भी रास नहीं आ रहा है। मुलायम सिंह भी बराबर यह कोशिश करते रहे कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दुबारा से कभी न पनपने पाये क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे किसी को सबसे बड़ा नुकसान होगा तो उनकी पार्टी को। उस पर तुर्रा यह है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय ने सीतापुर जाकर जेल में आजम खां से मिलने की कोशिश कर डाली। यह काम तो उन्होंने अखिलेश के जले पर नमक छिड़कने की तरह किया। मुसलमानों में इसे लेकर क्षोभ है कि आजम खां समाजवादी पार्टी के इतने बड़े नेता थे लेकिन योगी सरकार ने उनका जितना दमन किया उसके विरोध के लिये अखिलेश उस तरह आगे नहीं आये जैसे उन्हें आना चाहिये था।
बहरहाल इण्डिया गठबंधन में जब सभी मेल बेमेल दल जुड़े थे तो एक सामान्य भावना कार्य कर रही थी कि मोदी जिस तरह से कार्य कर रहे हैं अगर अगले चुनाव में उन्हें फिर सफलता मिल गयी तो किसी विपक्षी दल का अस्तित्व बचा नहीं रहने देंगे। इस अस्तित्व संकट से बचने के लिये यह तय हुआ कि सबसे पहले मोदी सरकार को 2024 में सत्ता से बेदखल कराया जाये। आपस में हिसाब किताब इसके बाद होता रहेगा। समाजवादी पार्टी भी अपना अस्तित्व मिटने के डर से आजाद नहीं थी। लेकिन क्या उसे ऐसी कोई बूटी मिल गयी है जिससे उसको मोदी सरकार के जारी रहने में अपने लिये कोई खतरा दिखना बंद हो गया है। पीडीए की दुहाई अखिलेश यादव दे रहे हैं। उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी सीना ठोंककर मुस्लिमों की तरफदारी करते रहे। लेकिन इस धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता का निर्णायक मौकों पर सार क्या निकला। जिन नरसिंहा राव पर भाजपा से मिलीभगत करके बावरी मस्जिद गिरवा देने का आरोप मढ़ा जा रहा था अविश्वास प्रस्ताव के समय वे उसके संकट मोचक बन गये। जिन मोदी की मुसलमानों का सर्वाधिक दमन करने वाले नेता की छवि बनी हुयी थी उन्हें दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद देते हुये उनकी धर्मनिरपेक्षता को कोई सिहरन नहीं हुयी थी। यह समाजवादी पार्टी की अदा है और वह इस अदा का परिचय एक बार फिर दे रही है। इण्डिया बनाम पीडीए का द्वंद्व भाजपा को बहुत सुहा रहा होगा और लोग गलतफहमी में न रहें अखिलेश जो कह रहे हैं वह तात्कालिक गुबार भर नहीं हैं। संचारीभाव न होकर अब यह उनका नया स्थायी भाव है। क्या कांग्रेस इस हालत में है कि वह छद्म धर्मनिरपेक्ष दलों की बैशाखी की ओर ताकना छोड़कर सब जगह खुद भाजपा के साथ दो दो हाथ करने में सक्षम हो सके। बहुत सारे सवालों का जबाव मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम तय करेंगे।
मध्यप्रदेश को जीत के मुहाने से पीछे खींचने में सपा अचानक बहुत जमकर जोर लगाने लगी है। सपा ने लगभग 80 उम्मीदवार मध्यप्रदेश में उतारे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें सफलता इक्का दुक्का मिल जाये तो बहुत है। ऐसा लगता है कि वे खुद सीटें जीतने के लिये नहीं बल्कि हम तो डूबेंगे सनम तुम्हे भी ले डूबेंगे की तर्ज पर कांग्रेस की कामयाबी रोकने पर आमादा हो गये हैं। इससे भाजपा मध्यप्रदेश में सत्ता में एक बार फिर वापसी के सपने देखने लगी है। हास्यास्पद यह है कि इसके बावजूद अखिलेश कह रहे हैं कि कांग्रेस भाजपा की बी टीम है।
अखिलेश के भाषणों का लब्बोलुआब यह है कि समाजवादी पार्टी अन्य पार्टियों की भलाई करने वाली पार्टी है और कांग्रेस को सत्ता मिलती रही तो इसलिये क्योंकि समाजवादी पार्टी ने उस पर हमेशा दया की। उत्तर प्रदेश तक सीमित होने के बावजूद एक राष्ट्रीय पार्टी का इतना दयनीय चित्रण करते हुये वे अपनी जमीन नहीं देखना चाहते।
जहां तक सहयोग की बात है जब जनता दल विभाजित हो गया तो पहली बार मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव को अपनी सरकार के लिये संकट का अनुभव हुआ। ऐसे में कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर उनकी मदद की। बदले में मुलायम सिंह की सरकार ने कांग्रेसियों पर ही लाठी बरसवायी और जेल में बंद कर दिया। बाद में 2004 में जब कांग्रेस को फिर सत्ता में आने का मौका मिला तो मुलायम सिंह अमर सिंह के साथ बिना बुलाये सोनिया गांधी के भोज में पहंुच गये थे और बिना शर्त मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन घोषित कर दिया था। मनमोहन सिंह सरकार बाद में जब अमेरिका से किये गये परमाणु समझौते के कारण वामपंथियों के समर्थन खींच लेने से डांवाडोल हो गयी थी तो मुलायम सिंह का समर्थन उसके लिये जीवनदान साबित हुआ। पर इसे लेकर मनमोहन सिंह सरकार ने क्या कीमत चुकायी यह पर्दे के पीछे की बात है लेकिन समझने वाले समझते है।
सहयोगी दलों का समाजवादी पार्टी कितना उद्धार करती रही इसकी गवाही तो वामपंथी दल दे सकते हैं। जो मुलायम सिंह की मुहब्बत में उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ लुटा बैठे। अखिलेश यादव संकेत दे रहे हैं कि वे इण्डिया गठबंधन को तोड़ सकते हैं। उन्होंने नया पीडीए गठबंधन बनाने की बात कहनी शुरू कर दी है। कांग्रेस पर उनका आरोप यह है कि वह आज पिछड़ों की बात कर रही है लेकिन उसने मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया था पर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का समर्थन तो मुलायम सिंह ने भी नहीं किया था। अगर वे समर्थन कर रहे होते तो जनता दल टूटता ही नहीं। चंद्रशेखर को अपना नेता बनाकर जाने की बजाय वे वीपी सिंह के साथ रहते। लेकिन उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल में बाधा उत्पन्न करने के लिये सृजित की गयी चंद्रशेखर सरकार को बनवाने में सहभागिता की और इसके बाद नरसिंहा राव भी खामोश तरीके से मंडल प्रतिक्रांति में जुटे रहे तो मुलायम सिंह भी उनका साथ देते रहे। 1992 में जब बावरी मस्जिद टूटी तो इसमें नरसिंहा राव सरकार की भी मिलीभगत बतायी गयी थी। उधर मंडल समर्थक राजनीतिक धु्रवीकरण भी अपने उफान पर पहुंच गया था। ऐसे में अगर प्रतिबद्धता का ख्याल किया होता तो मुलायम सिंह को नरसिंहा राव की सरकार के पतन में भूमिका निभानी चाहिये थी। पर उनकी पार्टी के सांसदों ने नरसिंहा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समय वामपंथी दलों और संयुक्त मोर्चा का साथ देने की बजाय अपनी पार्टी के सांसदों से बर्हिगमन करवाकर उन्होंने नरसिंहा राव के लिये रक्षाकवच का काम किया था।
अखिलेश को आज गुस्सा इसलिये है कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में एक तेज तर्रार प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है जिसके द्वारा लगातार हैवीवेट नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कराया जा रहा है जिससे कांग्रेस फिर जिंदा होने लगी है। अखिलेश को यह बिल्कुल भी रास नहीं आ रहा है। मुलायम सिंह भी बराबर यह कोशिश करते रहे कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दुबारा से कभी न पनपने पाये क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे किसी को सबसे बड़ा नुकसान होगा तो उनकी पार्टी को। उस पर तुर्रा यह है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय ने सीतापुर जाकर जेल में आजम खां से मिलने की कोशिश कर डाली। यह काम तो उन्होंने अखिलेश के जले पर नमक छिड़कने की तरह किया। मुसलमानों में इसे लेकर क्षोभ है कि आजम खां समाजवादी पार्टी के इतने बड़े नेता थे लेकिन योगी सरकार ने उनका जितना दमन किया उसके विरोध के लिये अखिलेश उस तरह आगे नहीं आये जैसे उन्हें आना चाहिये था।
बहरहाल इण्डिया गठबंधन में जब सभी मेल बेमेल दल जुड़े थे तो एक सामान्य भावना कार्य कर रही थी कि मोदी जिस तरह से कार्य कर रहे हैं अगर अगले चुनाव में उन्हें फिर सफलता मिल गयी तो किसी विपक्षी दल का अस्तित्व बचा नहीं रहने देंगे। इस अस्तित्व संकट से बचने के लिये यह तय हुआ कि सबसे पहले मोदी सरकार को 2024 में सत्ता से बेदखल कराया जाये। आपस में हिसाब किताब इसके बाद होता रहेगा। समाजवादी पार्टी भी अपना अस्तित्व मिटने के डर से आजाद नहीं थी। लेकिन क्या उसे ऐसी कोई बूटी मिल गयी है जिससे उसको मोदी सरकार के जारी रहने में अपने लिये कोई खतरा दिखना बंद हो गया है। पीडीए की दुहाई अखिलेश यादव दे रहे हैं। उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी सीना ठोंककर मुस्लिमों की तरफदारी करते रहे। लेकिन इस धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता का निर्णायक मौकों पर सार क्या निकला। जिन नरसिंहा राव पर भाजपा से मिलीभगत करके बावरी मस्जिद गिरवा देने का आरोप मढ़ा जा रहा था अविश्वास प्रस्ताव के समय वे उसके संकट मोचक बन गये। जिन मोदी की मुसलमानों का सर्वाधिक दमन करने वाले नेता की छवि बनी हुयी थी उन्हें दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद देते हुये उनकी धर्मनिरपेक्षता को कोई सिहरन नहीं हुयी थी। यह समाजवादी पार्टी की अदा है और वह इस अदा का परिचय एक बार फिर दे रही है। इण्डिया बनाम पीडीए का द्वंद्व भाजपा को बहुत सुहा रहा होगा और लोग गलतफहमी में न रहें अखिलेश जो कह रहे हैं वह तात्कालिक गुबार भर नहीं हैं। संचारीभाव न होकर अब यह उनका नया स्थायी भाव है। क्या कांग्रेस इस हालत में है कि वह छद्म धर्मनिरपेक्ष दलों की बैशाखी की ओर ताकना छोड़कर सब जगह खुद भाजपा के साथ दो दो हाथ करने में सक्षम हो सके। बहुत सारे सवालों का जबाव मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम तय करेंगे।