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Sunday, November 10, 2024

संत रविदास के विचारों के प्रचार से भाजपा को न पड़ जाए मुश्किल

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धार्मिक मान्यताओं को लेकर हमारा समाज भ्रमित रहता है। वैचारिक स्तर पर एक साथ कई नावों की सवारी उसे दिशा भूल करा देती है। स्पष्ट और सटीक विचारों के अभाव का हमारे समाज के व्यवहारिक जीवन पर भी असर पड़ता रहा है और हमारी लगातार ऐतिहासिक विफलताओं के पीछे ऐसी प्रवृत्ति ही कहीं न कहीं जिम्मेदार है। इन दिनों राम भक्ति की चर्चायें राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में हैं। गत 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक तरह से अयोध्या में निर्मित भव्य दिव्य राम लला मंदिर का लोकार्पण करके बहुदेव पूजा में विश्वास रखने वाले भारतीय समाज में राम पूजा की सर्वोच्चता के नये युग को स्थापित कर चुके हैं। दूसरी ओर शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के सीर गोवर्धन में संत रविदास की 647 वीं जयंती पर उनकी भव्य प्रतिमा का पूरे तामझाम के साथ अनावरण किया। संत रविदास भी संत कबीर की तरह ही राम के उपासक थे लेकिन राम को लेकर रामानंद स्वामी के शिष्यों की दो अलग-अलग धारायें चली। एक धारा का प्रतिनिधित्व गोस्वामी तुलसीदास और नागादास करते हैं तो दूसरी धारा में संत कबीर और संत रविदास का नाम आता है।
प्रसिद्ध साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में रामोपासना की शुरूआत को लेकर कुछ अलग बात लिखी है जो आज के संदर्भ में श्रृद्धालुओं को चैंका सकती है। रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार रामानंद स्वामी का जन्म सन 1299 ई0 में प्रयाग में हुआ था और उनकी दीक्षा श्री सम्प्रदाय में हुई थी जिसमें भगवान विष्णु और उनकी शक्ति लक्ष्मी की पूजा में विश्वास किया जाता था किंतु विष्णु के रामावतार की पूजा का प्रचलन उसमें नहीं था। रामानंद को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने रामोपासक वैरागियों का संगठन एक स्वतंत्र सम्प्रदाय के रूप में किया। इस तरह राम की प्रमुखता से पूजा का प्रावधान 13 वीं शताब्दी से शुरू माना जा सकता है। हालांकि इसके पहले भी राम विष्णु के एक अवतार के रूप में मान्य थे लेकिन लगता है कि उनके अलग से मंदिर बनाने आदि का चलन नहीं था। बाबर के सेनापति मीर बाकी द्वारा अयोध्या में जिसे मंदिर के ध्वंस की चर्चा की जाती रही है उसके बारे में हिन्दु संगठनों के नेता भी कहते थे कि वह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया विष्णु का मंदिर था। राम का नहीं।
रामानंद जी स्वामी ने राम की पूजा में जन्मना शूद्र और मुसलमानों को भी जो वैष्णव थे प्रवेश का अधिकार दे दिया था। इसीलिए आगे चलकर उनका पंथ दो धाराओं में विभाजित हो गया। गोस्वामी तुलसीदास और नाभादास आदि की एक धारा का विश्वास वेद और वर्ण आश्रम धर्म में भरपूर था। दूसरी ओर कबीरदास और रविदास इनके विरूद्ध थे। यहां तक कि ये संत राम के किसी लौकिक स्वरूप को स्वीकार नहीं करते थे। इन संतों के अनुसार राम किसी राजा के पुत्र नहीं हैं बल्कि राम तो वे हैं जो अकाल हैं, अजन्मा हैं, अनाम हैं और अरूप हैं। भगवान राम के अस्तित्व को लेकर इस तरह की दो परस्पर विरोधी विचार धारायें मान्य होने के कारण कभी सरकार उनके ऐतिहासिक न होने यानी उनके जन्म और जन्म स्थान को नकारने का हलफनामा दे देती है तो कभी सरकार का उनके जन्म स्थान को अदालत से प्रमाणित कराने पर आमादा होने का रूख सामने आया है। आज भी इस विचित्रता से निजात कहां है। वही सरकार जो राम की सगुण भक्ति के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए अयोध्या में उनका भव्यतम मंदिर बनवाती है वही सरकार भगवान के सगुण रूप में विश्वास न रखने वाले निर्गुण राम उपासक संत रविदास का महिमा मंडन करके अपने को धन्य अनुभव करती है।
सवाल यह नहीं है कि इसमें गलत क्या है। सवाल यह है कि सनातन धर्म की इस गूढ़ता से पार पाने की कोई कुंजी आपके पास नहीं है तो आपको चाहिए कि इसे राजनीतिक लाभ उठाने का विषय न बनायें। संत रविदास को समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के कारण काफी अपमान और उत्पीड़न झेलना पड़ा था। लेकिन अपनी चरित्र और तप की उच्चता के चलते ऊंच नीच की वकालत करने वाले समाज के महाप्रभु उनके आगे निस्तेज हुए। संत रविदास का जीवन चरित्र उन आडंबरों और पाखंडों के खिलाफ प्रेरणा देता है जो वर्ण व्यवस्था जैसी परंपराओं को पोषित करते हैं। लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी संत रविदास के इस विचार सार का निर्वाह कर पा रही है।
समाज को धर्म की आवश्यकता से किसी को भी इंकार नहीं है। लेकिन यह समझना होगा कि धर्म है क्या। धर्म मानवता का पाठ है। अगर धर्म के नाम पर ऐसे कर्मकांड, रीति रिवाज, साहित्य, चेतना को बढ़ावा दिया जाता है जो मनुष्य मात्र ईश्वर की कृति होने की उदघोषणा में संदेह पैदा करके जन्म के आधार पर किसी को ऊंचा और किसी को नीचा ठहराए फिर भले ही ऐसे लोग समाज का बहुतायत हों। नीचे ठहराये गये बहुतायत लोगों को जो घृणा की दृष्टि से देखने के दुराग्रह का जनक हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी अनुयायी जमात के राजनीतिक व्यक्ति जातिगत उदारता और बंधुत्व की चाहे जितनी चिकनी चुपड़ी बातें करें लेकिन जिस धार्मिक अंधड़ में उन्होंने देश को घेर कर रख दिया है उसका घटाटोप मानवता विरोधी विचारों के प्रदूषण के जहर में सारे समाज को गर्क करके रख देने वाला है।
प्रधानमंत्री की यह अदा है कि वे कुरीतियों और बुराइयों का उन्मूलन करने का संकल्प लेने की बजाय उनके अस्तित्व को ही स्वीकार न करने की मंुहजोरी में एक्सपर्ट हैं। जैसे उनके सत्ता संभालने के तत्काल बाद सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार को लेकर भय व्याप्त हुआ था लेकिन जब यह दिखा कि उनकी सरकार इस पर प्रहार करने को इच्छुक नहीं है तो अब राम नाम की लूट मची हुई है। लोगों को तसल्ली हो कि प्रधानमंत्री इस पर गुस्सा जाहिर करके भ्रष्ट तत्वों को आगाह करते नजर आयें। लोगों को यह तो लगे कि सरकार समझ रही है और एक दिन वह ऐसी व्यवस्था कर देगी जिससे प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त किया जा सकेगा। लेकिन प्रधानमंत्री तो यह कह रहे हैं कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार रह ही नहीं गया है। यह तो जबरा मारे रोन न दे वाली कहावत है। प्रधानमंत्री अपने कथन से उन लोगों को आतंकित कर रहे हैं जो भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं कि आप भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने की बजाय यह कहो कि अब तो राम राज आ गया है। इसी तरह की मुंहजोरी उन्होंने संत रविदास की जन्म स्थली सीर गोवर्धन में दिखायी जहां उन्होंन कहा कि जो लोग जातिगत भेदभाव को उठा रहे हैं वे देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं वरना उन्होंने तो जातिवाद की भावना को कहीं रहने ही नहीं दिया है।
वास्तविकता यह है कि किसी कुरीति या बुराई का अंत करने के लिए उसके अस्तित्व के लिए जिम्मेदार निहित स्वार्थी तत्वों और शक्तियो से जूझने का साहस दिखाने की जरूरत होती है। कई नावों की सवारी की नहीं सही दिशा में जा रही नाव को पकड़ने की जरूरत होती है। अगर संत रविदास के रास्ते की कोई सार्थकता है तो वर्ण व्यवस्था को पोषित करने वाले चैंचलों को छोड़कर मानवतावादी मूल्यों को जीने की जीवटता का परिचय देना होगा। क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसके लिए तैयार हैं।  

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