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Sunday, September 8, 2024

किन व्यापक सरोकारों के लिए जरूरत है इस अधिनायकवाद की

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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तय की गई चयन समिति से उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को हटाये जाने के विरूद्ध एडीआर की ओर से याचिका दायर की गई है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। इसके एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव आयोग में दो रिक्त आयुक्त पदों की नियुक्ति को लेकर आनन फानन बैठक कर डाली। ध्यान रहे कि तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में एक आयुक्त रिटायर हो गये थे जबकि एक और आयुक्त अरूण गोयल ने रहस्यमय निजी कारण से हाल ही में इस्तीफा दे दिया था।
लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में चुनाव आयोग एकल बनकर रह गया था जो उचित नहीं था। इसलिए चुनाव तारीखों की घोषणा के पहले चुनाव आयोग का कोरम पूरा करने की सरकार की तत्परता को गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन जबकि इसकी चयन प्रक्रिया में किये गये अभूतपूर्व परिवर्तन पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई होनी थी तो होना तो यह चाहिए था कि सरकार इतनी अधीरता न दिखाती। एक दिन का इंतजार और कर लेती कि चयन समिति से उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को हटाये जाने के मामले में उच्चतम न्यायालय क्या दृष्टिकोण प्रतिपादित करता है। लेकिन जिस तरह से प्रधान न्यायाधीश को हटाकर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को एकपक्षीय बना दिया गया था उसी तरह सरकार ने चुनाव आयोग की रिक्तियां भरने में जल्दबाजी करके फिर हठधर्मिता का परिचय दिया है और ऐसी जबरदस्ती मान्य नहीं की जा सकती।
सरकार लोकतांत्रित और संवैधानिक संस्थाओं पर हावी होकर जिस तरह से एकाधिकार और पूर्ण नियंत्रण की स्थिति बना रही है वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के अभी तक के मानकों के विरूद्ध है। कहने को तो अतीत में इन्दिरा गांधी की सरकार ने इमरजेंसी लागू करके सीमित समय के लिए लोकतंत्र को पंगु बना दिया था। लेकिन अंततोगत्वा उसने अपनी सरकार के लिए जनादेश प्राप्त करने की प्रक्रिया में आस्था दिखायी थी और इसके कारण उसे सत्ता से बाहर हो जाना पड़ा था। इस तरह उन्होंने लोकतंत्र को किसी स्थायी विचलन का शिकार होने से बचा दिया था। लेकिन आज घोषित आपातकाल नहीं है फिर भी सरकार की मनमानी का आचरण आपातकाल से भी ज्यादा है। संविधान में निहित शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण के सिद्धांत को उसने बेमानी साबित करके रख दिया है और संस्थाओं की स्वायतता को छद्म बना दिया है। जो लोग लोकतांत्रिक गुणवत्ता का मूल्यांकन इसके सार्वभौम आदर्शो की कसौटी पर कसते हैं वे इस स्थिति को बर्दास्त नहीं कर पा रहे हैं। पर आश्चर्यजनक यह है कि सरकार के इस सर्वसत्तावाद को देश का जनमत पूरी तरह अनुमोदित करने की स्थिति में पहुंच गया है। लोगों के माइंडसेट में इतना बड़ा उलटफेर विषमित करने वाला है। जिसकी कल्पना मोदी युग आने के पहले कभी नहीं की गई थी।
व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात करने वाली कई और भी राजनीेतिक शक्तियां हैं जो जनता के कथित शत्रुओं को स्थायी शिकस्त देने के लिए अधिनायकवाद के एक अंतरिम चरण को अनिवार्य मानती हैं लेकिन उन शक्तियों ने भी अंत में मान लिया था कि ऐसी किसी क्रांति का संभव होना व्यवहारिक नहीं है इसलिए संसदीय रास्ते से ही जनवादी राज्य कायम करने की गुंजाइश निकालने की नियति उन्हें स्वीकार हो गई थी। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने हिन्दूवादी माडल की परिधि निर्धारित कर रखी थी जिसमें लोकतंत्र को बाधक सिद्ध करने के किसी प्रयास को स्थान देने की मंशा उसके पूर्ववर्ती नेतृत्व ने व्यक्त नहीं की थी। इस कारण हिन्दू राष्ट्रवाद का वर्तमान जो स्वरूप सिर उठा रहा है उसका परिचय एकदम नया है लेकिन वह पूरे राजनीतिक परिदृश्य को आप्लावित कर चुका है।
जो हो रहा है वह केवल संस्थागत निरंकुशता के लिए नहीं है बल्कि व्यक्तिगत निरंकुशता का पुट इसमें अधिक प्रभावी है। सत्तारूढ़ पार्टी में भी इसे लेकर जो अंदरूनी बेचैनी है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। यहां तक कि व्यक्ति के आगे संघ भी बौना पड़ गया है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद संघ ने कहा था कि भारतीय जनता पार्टी अब केवल मोदी के चेहरे के भरोसे नहीं रह सकती। उसे राज्यों में होने वाले चुनावों में सफलता के लिए स्थानीय नेतृत्व को आगे करना होगा। पर जब पांच राज्यों के चुनाव आये तो प्रधानमंत्री मोदी ने संघ की इस नसीहत को उठल्लू पर रख दिया। उन्होंने किसी राज्य में स्थानीय चेहरे को नहीं उभारा और कमल के फूल की आड़ में सिर्फ अपने नाम पर चुनाव लड़वाया। इसके बावजूद उन्हें बड़ी सफलता मिली जिससे संघ को सिकुड़कर रह जाना पड़ा और मोदी का आत्मविश्वास बुलंदी पर पहुंच गया।
मोदी अनावश्यक रूप से अपने को किसी भी जबावदेही से परे साबित करने में जुटे रहते हैं। उनकी कोशिश स्वयं को ईश्वर के अवतार के रूप में स्थापित करने की रही है जिस पर उंगुली उठाना कुफ्र मान लिया जाये और इसमें वे काफी हद तक कामयाब भी हैं। लोगों ने भी भक्ति के सिद्धांत के अनुरूप प्रभु की शरण में स्वयं को समर्पित करके निश्चिंत हो जाने की शैली अपना ली है। मोदी को अपने साथ लोगों के इस अंधे समर्थन का एहसास है जिससे वे न संघ की परवाह करते हैं और न ही पार्टी में किसी की। भारतीय जनता पार्टी में कई नेता उनके ईगो का शिकार बनकर असमय अपने कैरियर को ग्रहण में धकेलने के लिए मजबूर हो गये हैं। मोदी की ये अधिनायकवादी मंशायेें से कोई व्यापक सरोकार नहीं जुड़े है। इस मामले में उनका अतिवाद खुद को युग पुरूष के रूप में इतिहास में स्थापित करने के छोटे विजन में सिमट गया है।
मोदी क्षमतावान हैं। हो सकता है कि हठधर्मिता के दुर्गुण के बावजूद वे देश और समाज के लिए तात्कालिक तौर पर बहुत कुछ ऐसा कर जायें जो अत्यंत उपादेय हो। लेकिन उनकी मनमानियों से नैतिक मान्यताओं और शाश्वत आदर्शों का जिस तरह का क्षरण हो रहा है आने वाले दौर में उसका बड़ा खामियाजा भारतीय समाज को भुगतना पड़ जाये। प्रसंग चुनाव आयोग की दो रिक्तियों को भरने के उद्यम में उनके द्वारा प्रदर्शित आपाधापी का है। चयन समिति की अध्यक्षता खुद प्रधानमंत्री के पास है इसके अलावा गृह मंत्री अमित शाह और कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल सरकार की ओर से बैठक में मौजूद थे जबकि लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चैधरी इतर सदस्य थे। अधीर रंजन चैधरी ने बताया कि उन्हें एक दिन पहले ही इस बैठक की सूचना मिली तो वे रात में दिल्ली पहुंचे जहां उनको 212 अधिकारियों के पैनल की सूची सौंपी गई। इतने कम समय में इतनी बड़ी फेहरिस्त की पड़ताल संभव नहीं थी। बैठक में बताया गया कि इनमें से 6 नाम शार्ट लिस्ट किये गये हैं। उनके अनुसार इस तरह सरकार ही सबकुछ तय कर रही थी और उन्हें मूकदर्शन बनाये रखकर उनकी सहमति प्राप्त की जा रही थी जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया और अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए बाहर निकल आये। प्रारम्भिक खबरों के अनुसार नये चुनाव आयुक्तों में केरल कैडर के सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी ज्ञानेश कुमार और सुखवीर संधु शामिल हैं। बताया गया कि इन नामों को आज ही मंजूरी के लिए राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस चयन समिति की वैधता को उच्चतम न्यायालय शुक्रवार की सुनवाई में कहीं नकार तो नहीं देगा। ऐसा हुआ तो सरकार की सारी जल्दबाजी धरी रह जायेगी और उसे लेने के देने पड़ जायेंगे।   

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