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Sunday, September 8, 2024

वर्तमान चुनाव में प्रभावी हुआ आर्थिक सर्वे का मुद्दा बन रहा सरकार की गलफांसी

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भ्रष्टाचार और मुनाफा खोरी की अनियंत्रित लूट के कारण पूंजी और संपत्ति का देश में जबरदस्त केन्द्रीयकरण हो रहा है। ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल पूंजी का 40 प्रतिशत अमीर आदमियों क कब्जे में चला गया है जबकि देश की कुल आमदनी में 22 प्रतिशत हिस्सा इन धनाढ़यों को मिल रहा है। ये आंकड़े भी अभी पूरे नहीं हैं। इनमें नीचे के स्तर के अधिकारियों, कर्मचारियों और इनकी दलाली करने वाले लम्पटों की हैसियत व आय को जोड़ दिया जाये तो साबित हो जायेगा कि व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप ने ईमानदारी से परिश्रम करने वालों को उनके परिवार के भुखमरी के कगार तक पहुंच जाने की अभावग्रस्त स्थितियों में धकेल दिया है। ऐसी व्यवस्था को जनकल्याणकारी या लोकतांत्रिक कहना छलावा है।
उस पर तुर्रा यह है कि सरकार को दुनिया के आला दर्जे के विकास की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए भारी संसाधन चाहिए। हालांकि इस विकास की कोई सार्थकता आम आदमी के लिए नहीं है। एक्सप्रेसवे के बनने से उसे कोई मुनाफा होने वाला नहीं है जबकि फैक्ट्री मालिकों को किफायत और कम समय में अपना माल दूर-दूर तक पहुंचाने की सहूलियत इससे मिल जाती है जो उनके मुनाफे में भारी बढ़ोत्तरी कर देने वाली होती है। इस तरह की विकास संरचनाओं के लिए टैक्स से सरकार संसाधन जुटाने का जो काम करती है उसमें सब धान 22 पसेरी तोले जाते हैं। उदाहरण के तौर पर जीएसटी को लीजिए। अमीर वर्ग तो आयकर और जीएसटी का एक अंश तब देता है जब उसका 100 अंश चोरी कर लेने की गुंजाइश उसे मिल जाती है। लेकिन आम आदमी को जीएसटी वसूली में कोई रियायत नहीं है। वह रोडवेज की खटारा बस में सफर करेगा तो भी सरकार उससे जीएसटी वसूल कर लेगी। रोटी, कपड़ा और मकान की उपलब्धता एक तरह से लोगों का मौलिक अधिकार है लेकिन अगर कोई बेघर भी मकान बनवाना चाहे तो उससे जमीन की रजिस्ट्री से लेकर नक्शा पास करवाने तक में भारी रकम ऐंठने का प्रावधान किया गया है जबकि होना यह चाहिए कि जिसके पास अभी तक कोई मकान नहीं है वह अगर छोटा मोटा आशियाना बनाता है तो उससे कोई टैक्स न लिया जाये। जनजीवन को आकर्षक बनाने के नाम पर सरकारी खजाना वंदे भारत जैसी ट्रेनों के संचालन में झौंका जा रहा है जबकि इन ट्रेनों का किराया वहन करना आम आदमी के बस की बात नहीं है। वह तो केवल वंदे भारत ट्रेन का दर्शन करके सुहावने सपने की मीठी नींद का आनंद ले सकता है।
सरकार की दिशा यह होनी चाहिए कि तकनीक और विज्ञान के जरिये अत्यंत उन्नत और भव्य सुविधाओं के लाभ की गारंटी आम आदमी के लिए सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था तैयार करे। पूंजी का केन्द्रीयकरण अमीरों पर किसी देवता के वरदान का परिणाम नहीं है। देश में आज एक कारपोरेट बड़ा मुनाफा कमाता है तो उसक कर्मचारियों को उस मुनाफे में से बेहद सीमित लाभ वितरित किया जायेगा जबकि कंपनी के डायरेक्टर बनकर कारपोरेट के संचालक अरबों रूपये का अपना वेतन निर्धारित करके पूरा मुनाफा हड़प जायेंगे। यह स्थिति अन्यायपूर्ण है लेकिन सरकार में दम है कि किसी कारपोरेट उपक्रम या फैक्ट्री के मुनाफे का उसके कर्मचारियों व प्रबंधन में न्यायपूर्ण वितरण का फार्मूला तैयार कर सके। इसकी बजाय आर्थिक उदारीकरण के  नाम पर वह अमीरों के सामने बिच जाने व उन्हें मुनाफे की निरंकुश लूट की छूट देने के लिए तत्पर नजर आती है। कहने को तो देश में लोकतंत्रीय निजाम चल रहा है जिसमें आम वोटर एकतरफा हितों को मजबूत करने वाली सरकार की अक्ल ठिकाने रख सकती है लेकिन उसे भावनात्मक मुद्दों के जाल में फंसाकर प्रपंचबाज बेखुदी के आलम में रख देते हैं जिससे अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पाती।
वर्तमान में चुनाव का माहौल चल रहा है जो इस व्यवस्था की लिटमस परीक्षा बनना चाहिए। जाने अनजाने में तमाम अन्य मुद्दों के बीच लोगों की आर्थिक हैसियत के बारे में सर्वे का मुद्दा केन्द्र में आ गया है। वैसे मौजूदा सरकार भी भ्रष्ट तत्वों की नाजायज संपत्ति का पता लगाने के लिए उनका एक्सरे ईडी आयकर आदि एजेंसियों के माध्यम से करा रही है। यह दूसरी बात है कि इन एजेंसियों का मोटिव राजनैतिक बना दिया गया है। लाइन पर आने को तैयार न होने वाले विरोधी नेताओं और पार्टियों पर इन एजेंसियों का कहर टूटता है लेकिन अगर कोई सत्तारूढ़ नेताओं को माईबाप मान ले तो एजेंसियां अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेती हैं। इस मोटिव के कारण ही आम प्रशासन से जुड़े लूटमार करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों पर निगाह डालने की फुरसत उन्हें नहीं मिल पाती। इसके पहले कालाधन का पता लगाने के नाम पर ही महिलाओं के द्वारा परिवार से छुपाकर रखी गई बचत को नंगा करने का काम वर्तमान सरकार ने नोटबंदी के नाम पर किया था। 2014 के चुनाव के पहले इरादा तो यह जताया गया था कि विदेशों में जमा देश के खलनायकों का कालाधन जब्त करके देश में लाया जायेगा लेकिन विकीलिक्स व पनामा खुलासा जैसे रहस्योदघाटनों के बाद भी सरकार इस संदर्भ में किसी तरह की तीरंदाजी दिखाने की इच्छुक नहीं दिखी।
इसी बीच विपक्षी कांग्रेस पार्टी द्वारा गलत ढंग से अर्जित धन को सर्च करने के लिए सरकार में आने पर कदम उठाने की मंशा जाहिर की तो सत्तापक्ष की बदनीयती उजागर होकर सामने आ गई है। कालेधन को बाहर निकालने के तमाम तरीके हो सकते हैं जिनमें आर्थिक सर्वे भी एक तरीका है। सत्तापक्ष जब इतने तरीके आजमाकर नीयत ठीक न होने के कारण इस मोर्चे पर विफल रही तो इसका मतलब यह नहीं है कि कालेधन पर प्रहार का मुद्दा दफन हो गया है। जब विपक्ष ने यह कहा कि वह सत्ता में आने पर आर्थिक सर्वे की सोचेगा तो अंडरस्टुड है कि सर्वे केवल उन लोगों का होगा जिनकी उजागर आमदनी कुछ हजार से ज्यादा नहीं है लेकिन जो रातों-रात करोड़पति या अरबपति बन गये हैं। इसमें औरतों के मंगलसूत्र पर और पुस्तैनी हैसियत वाले लोगों जैसी जायज हैसियत वाले लोगों पर कार्रवाई की बात कहां से आ गई। जहां तक महिलाओं के मंगलसूत्र की बात है तो कुर्की तक के कानून में प्रशासन को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि मंगलसूत्र तो छोड़िये पहनने के कपड़े, अनाज और खाना खाने के वर्तन तक कोई अधिकारी जब्त कर सके। सरकार इस मामले में बात का बतंगड़ बना रही है क्योंकि उसने भ्रष्ट तत्वों के बचाव का ठेका ले रखा है जो अभी तक के उसके कार्यकाल की कारगुजारी से जाहिर हो रहा है। इस कारण भ्रष्ट तत्वों पर निशाना लगाये जाने से वह चिड़चिड़ा उठी है और उच्च पदों पर बैठे नेता स्वयं कालेधन को बाहर निकालने के लिए किसी मजबूत कार्रवाई का संकल्प पुनः सरकार मंे आने पर लेने का वायदा करने की बजाय इस तरह की सोच रखने वालों के खिलाफ जनता को भड़काने की पेशबंदी कर रही है।
खबर तो यह है कि आजीवन सत्ता में बने रहने के इरादे से मतबाली वर्तमान सरकार के हथकंडों से इसकी संरक्षक संस्था आरएसएस के सब्र का बांध टूटने पर आ गया है। आरएसएस संस्कारित संगठन के रूप में अपनी छवि को सहेजे रखने को प्राथमिकता देता आया है लेकिन मोदी युग में वीर भोग्या वसुंधरा का सिद्धांत लागू करके हर मान मर्यादा को तिलांजलि दे दी गई है। हर रोज इलेक्ट्रोल बांड घोटाला से लेकर कोरोना वैक्सीन घोटाला तक नये-नये घोटाले सामने आ रहे हैं जिन्हें नकारने में मुंहजोरी भले ही दिखायी जा रहा हो लेकिन हकीकत किसी से छिप नहीं पा रही है। पिछले दिनों सरकार के महानियंत्रक कार्यालय द्वारा बजट लेखों की जांच में सामने आया था कि लाखों करोड़ रूपये के ब्योरे को कागजों में दर्ज नहीं किया गया है और इतनी बड़ी रकम कहां गई सरकार इसका जबाव देने को तैयार नहीं है। नये नोटों की बड़ी मात्रा गायब होने के मामले में भी रिजर्व बैंक ने कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे पाया है। नोटबंदी के समय कोई एक शाह पकड़ा गया था। मामूली हैसियत वाले इस शाह के खाते में कई सौ करोड़ रूपये जमा किये जाने और निकाले जाने का रहस्योदघाटन हुआ लेकिन इसे बिना किसी जांच के समाप्त कर दिया गया। पार्टी के महाजनों की इन करतूतों से नीचे स्तर तक के कार्यकर्ताओं ने शर्म की पट्टी हटाकर सत्ता के दोहन का तांडव कर रखा है। इससे संघ की नैतिक और ईमानदार संगठन की छवि तार-तार होने पर आ गई है। विचलित संघ की अंतरात्मा गंवारा नहीं कर रही कि ऐसी सरकार की पालकी ढ़ोये इसलिए वर्तमान चुनाव मंे सत्ता पक्ष लड़खड़ा उठा है।
बहरहाल यह तो सत्ता पक्ष के अंतःपुर का मामला है लेकिन लोग चाहते हैं कि सरकार की दिशा जनोन्मुखी बने ताकि उसका खजाना विकास की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप भरने के लिए आम लोगों पर टैक्स का बोझा लादते रहने की लाचारी से उबरने का मौका वह हासिल करे। इसके लिए दो नम्बर की कमाई को सरकार को किसी तरह बाहर निकालकर अपना खजाना मजबूत करना पड़ेगा। महत्वाकांक्षी विकास के साथ-साथ लोगों को शिक्षा, सुरक्षा, इलाज और परिवहन जैसी मूलभूत सुविधायें न्यूनतम व्यय पर मुहैया कराने की सरकार की जिम्मेदारी भी उसे ध्यान दिलानी पड़ेगी। लोकतांत्रिक निजाम सर्वाइवल आफ फिटेस्ट का निजाम नहीं हो सकता। इसमें चाहे कोई संपन्न हो या सर्वहारा सभी को गरिमापूर्ण ढ़ंग से जीने का अवसर देना अनिवार्यता है जिससे सरकारें मुकर नहीं सकतीं।

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