प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बड़ी तेजी से दौड़ रहा है। वे एक के बाद एक विपक्ष के स्तंभों को गिराते जा रहे हैं। पुराने सांस्कृतिक विम्बों से वे बहुत मुग्ध रहते हैं। इसीलिए चक्रवर्ती सम्राट और विश्व गुरू जैसे मुहावरे उनकी महत्वाकांक्षा में बड़े मानक के रूप में बस चुके हैं। यह दूसरी बात है कि आज की दुनिया में इन मानकों को सभ्यता के पैमाने के आधार पर खारिज किया जा चुका है। चक्रवर्ती शासन के उद्देश्य की पूर्ति के प्रयास को साम्राज्यवादी पिपासा करार देकर गर्हित किया जाता है। भारत में भी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे कुछ दशक पहले तक बहुत जोरों से गूंजते थे। लेकिन आज देश का वैचारिक परिवेश बदल चुका है। नरेन्द्र मोदी को श्रेय देना पड़ेगा कि लोगों की ब्रेन वाशिंग करने और जनमानस का उल्टा माइंडसेट गढ़ने में उन्होंने कमाल का कौशल दिखाया है। इसलिए मानवाधिकार, स्वतंत्रता और बंधुता जैसे वैश्विक प्रतिमानों में भारतीय समाज का कोई विश्वास नहीं रह गया है। एक समय भारतीय समाज की प्रतिस्पर्धा अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों से भी बेहतर लोकतंत्र, निष्पक्ष न्यायपालिका और पेशेवर ईमानदारी व जिम्मेदारी से परिपूर्ण प्रशासन के आधार पर व्यवस्था संचालित करने की थी और इसमें उसने संसाधनों की दृष्टि से बहुत कमजोर होते हुए भी काफी बढ़त हासिल करके दिखायी थी। लेकिन अब ऐसे उसूलों की वकालत राष्ट्र के साथ गद्दारी का पर्याय बन चुकी है। नरेन्द्र मोदी ने मानसिक, बौद्धिक स्तर पर जिस तरह का काया पलट केवल 10 वर्षों की अवधि में किया है वह आश्यर्चजनक है। इसीलिए अपने पूर्ववर्ती पार्टी के शिखर नेताओं की सरकार से उनकी सरकार का कोई मिलान नहीं ठहर पा रहा है।
लोकसभा चुनाव की बेला आ चुकी है। भाजपा के सूत्रों ने पहले से ही मीडिया को पार्टी का यह इरादा बता दिया था कि उनकी पार्टी विपक्षी गठबंधन के घटक दलों और प्रमुख विपक्षी नेताओं को पार्टी में शामिल कराने का अभियान चलायेगी। सबने देखा है कि इस अभियान के शुरू होते ही कैसे एक के बाद एक विपक्षी मोहरे भाजपा से वशीभूत होते चले गये। नीतीश कुमार जो कि इंडिया गठबंधन के रचयिता थे रातों-रात भाजपा के साथ जा मिले। जबकि नीतीश कुमार के बारे में यह आंकलन था कि वे अपने परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में नहीं ले आये हैं जो उन्हें भविष्य के लिए उसके कैरियर की चिंता हो। साथ ही वे इतनी बार बिहार के मुख्यमंत्री रहकर तृप्त हो चुके हैं इसलिए उनका इस पद से भी कोई खास राग नहीं रह गया है। इसे देखते हुए अब वे अपनी प्रमाणिकता को लेकर सचेत रहेंगे और इधर-उधर होने के लिए किसी भी प्रलोभन के आने पर नहीं फंसेगे। पर पलटूराम की कोसना को और पुष्ट करते हुए भाजपा के साथ फिर गलबहियां करने में उन्हें संकोच नहीं हुआ। जयंत चैधरी ने भी यही किया। विभीषण बनकर उन्होंने वाकायदा भाजपा के साथ होने के पहले उसके नेताओं के साथ संपर्क किया और अपने दादा चैधरी चरण सिंह को भारत रत्न दिलवाने सहित लंबी सौदेबाजी की। जब भाजपा ने उनकी मांगे पूरी कर दी तो यह कहते हुए उन्होंने भी पाला बदल लिया कि मैं अब किस मुंह से उनका विरोध करूं। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले हुए हैं। उधर इंडिया गठबंधन का कुनबा बिखर रहा है। एक तरह से तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने सीटों के तालमेल को लेकर ऐसा अडियल रूख जता डाला है कि लगता नहीं है कि तालमेल संभव हो पायेगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से भी सीटों के बंटवारे की वार्ता टूट जाने की आशंकायें पैदा हो रही हैं। उधर कांग्रेस का अपनी पार्टी के अंदर भी कोई पुर्साहाल नहीं है। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों को सुनकर राजनीतिक प्रेक्षक उन्हें लेकर कहने लगे हैं कि बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आ रहे हैं। खैर उनकी चला चली में तो समय है लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ जैसी शख्सियत का भाजपा की ओर मुखातिब होना स्तब्ध करने वाला है जबकि कांग्रेस ने उनके लिए क्या नहीं किया। इंदिरा गांधी उन्हें तीसरा पुत्र मानती थी। हालांकि वे कह सकते हैं कि 1977 में इंदिरा जी के हारने के बाद भी उन्होंने गद्दारी नहीं की थी और वे संजय गांधी के साथ उनकी सत्ता में वापसी कराने के लिए जनता पार्टी सरकार के खिलाफ संघर्ष छेड़े रहे थे। लेकिन इसे उनकी वफादारी का बड़ा प्रमाण मानना भुलावे में पड़ना होगा क्योंकि कमलनाथ संजय गांधी की उस समय की बदनाम टोली के अग्रणी सदस्यों में थे और माहौल ऐसा था कि जनता पार्टी का कोई नेता संजय गांधी के टोली के कमलनाथ जैसे व्यक्ति को पार्टी में शामिल नहीं करा सकता था। लेकिन अतीत के इन अध्यायों को अनदेखा भी कर दिया जाये तो सोनिया गांधी ने भी उनके साथ कम निर्वाह नहीं किया। मध्य प्रदेश विधानसभा के हाल के चुनाव में खबरें आती रही थी कि कमलनाथ अंदर ही अंदर भाजपा से मिल गये हैं और कांग्रेस का नुकसान कर रहे हैं फिर भी सोनिया गांधी ने उनके हाथ से राज्य में कांग्रेस की बागडोर को हटाने का कोई प्रयास नहीं किया और इसका परिणाम चुनाव नतीजों में कांग्रेस को भोगना पड़ा। इसके पहले उनके कारण ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को खोया। सोनिया गांधी ने उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बना कर रखा था और मुख्यमंत्री का पद भी दे दिया था। वे अपने बेटे नकुल नाथ के साथ पहले भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात करते रहे थे जिससे कांग्रेस की साख को बड़ा बट्टा लगा फिर भी पार्टी नेतृत्व उन्हें टोक नहीं सका।
सबसे बड़ी बात यह है कि कमलनाथ कोई नये नेता नहीं हैं। वे जिंदगी भर जिस विचार धारा का पहाड़ा पढ़ते रहे उसे उम्र के अंतिम पड़ाव में भुला दें यह मुश्किल लगता था। कमलनाथ का अगर कांग्रेस से मन उचाट हो गया था तो वे समानधर्मी किसी दूसरी पार्टी में चले जाते। पर अभी तक साम्प्रदायिक राजनीति, संघ परिवार आदि के खिलाफ बोलने का जो रियाज रहा है उसे इस उम्र में ताक पर रखकर भाजपा की राजनीति का गुणगान वे करें क्या उनके जमीर को इसकी गवाही देनी चाहिए। लेकिन हमने ऊपर की पंक्तियों में लिखा है कि मोदी ने इतनी कारगर ब्रेन वाशिंग की है कि अभी तक की देश की प्रतिबद्धताओं की चूल्हें हल चुकीं है और लोगों को अतीतोन्मुख विचारधारा में अब कोई जोखिम नहीं दिखायी देता। ऐसे में अगर कमलनाथ भी आखिरी वक्त में मुसलमा हो जायें तो कुछ अटपटा नहीं है। इस बीच यह भी खबरें आयी कि कमलनाथ और नकुलनाथ ने कांग्रेस को इस्तीफा तो भेज दिया है लेकिन भाजपा में उनके शामिल होने को लेकर कुछ अमंगल उपस्थित हो रहा है। भाजपा के एक नेता का बयान टीवी चैनल पर वायरल हो रहा है कि कमलनाथ के लिए भाजपा के दरवाजे मोदी के रहते कभी नहीं खुल नहीं सकते। कमलनाथ की जुबान भी भाजपा में शामिल होने को लेकर फिलहाल कुछ लरज रही है जिससे आभास होता है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है।
बहरहाल यह सबकुछ जल्दी ही स्पष्ट हो जायेगा। उधर कांग्रेस के एक और दिग्गज मनीष तिवारी के बारे में खबर आयी है कि वे भी भाजपा के संपर्क में हैं और लुधियाना सीट से उम्मीदवार बनाने की शर्त पर कभी भी भाजपा में जा सकते हैं। महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कांग्रेस से जब इस्तीफा दिया था तो भाजपा में जाने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया है इसे स्वीकार करने मे शरमा रहे थे लेकिन एक दिन बाद ही वे ना-ना करके प्यार तुम्ही से कर बैठे की तर्ज पर भाजपा में शामिल होकर उसके राज्यसभा उम्मीदवार बन गये।
कर्नाटक में जगदीश शेट्टार भाजपा में वापस हो ही चुके हैं। देखना यह है कि नरेन्द्र मोदी का अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा कांग्रेस के किन-किन दिग्गजों के दरवाजे पर खड़ा होकर उन्हें भाजपा के शरणागत होने के लिए बाध्य करने वाला है। लेकिन सवाल यह है कि भाजपा क्या कमजोर है जो उसे चुनाव के पहले नेताओं को दूसरी पार्टियों से आयात करना पड़ रहा है। स्थिति यह है कि रामलला के अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के समारोह की चकाचैंध के बाद भाजपा इतनी छा गई है कि उसे पहले से ज्यादा बहुमत मिलने में किसी को संदेह नहीं है। यही तो कारण है कि कांग्रेस के लिए लंबे राजनीतिक रेगिस्तान के सफर को भांपकर उसके सारे सुविधाभोगी दिग्गज एक-एक करके भाजपा की गोद में गिरते जा रहे हैं जबकि भाजपा में भी बेहतर तरीके से समायोजन को लेकर कोई आश्वस्त करने वाली स्थिति नहीं है। मोदी इतने विराटकाय हो चुके हैं कि कोई पार्टी में उन पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह को किनारा किया गया तो उनके सुर कुछ बहके लेकिन इससे विचलित होने की बजाय भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने उनके पुनर्वास की आगे की संभावनाओं पर भी रोक लगा दी और शिवराज सिंह अब निरूपाय होकर जाहे विधि रखे राम, ताहि विधि रहिये की मुद्रा में आकर सुसुप्ता अवस्था में पहुंच चुके हैं। राजस्थान में वसुंधरा राजे को भी बिना डंक का बिच्छू बनाकर छोड़ दिया गया है।
खबरें हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में योगी को निपटाने की बारी आ जायेगी और योगी कितने भी दबंग क्यों न बने रहें लेकिन उन्हें निरूपाय होकर अपना हश्र देखना पड़ेगा। आयातित नेताओं का भी भविष्य भाजपा में क्या होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है फिर भी उन्हें भाजपा की छांव में सुकून महसूस हो रहा है।
लेकिन भाजपा को जब सही तरीके से ही बड़े बहुमत की आशा है तो मोदी अपनी छवि खराब करने वाली जोड़ तोड़ से क्यों नहीं उबर रहे। उन्हें आयातित नेताओं की गरज क्यों है। इस बिन्दु पर मनन करते हुए काफी खतरे आंखों के सामने उभरते नजर आने लगे हैं। यह शुरू से ही स्पष्ट है कि मोदी विपक्ष विहीन लोकतंत्र चाहते हैं और विपक्ष के सफाये के लिए साम-दाम दंड भेद उन्हें सबकुछ मंजूर है। मोदी का आंकलन यह है कि विपक्ष में अकेले कांग्रेस ऐसी पार्टी है जिसका राष्ट्रीय कलेवर है इसलिए वह खत्म हो जाये तो देश में भाजपा के निद्र्वद शासन की राह प्रशस्त हो सकती है क्योंकि प्रतिद्वंदी राष्ट्रीय दल का वजूद खत्म हो जाने पर देशव्यापी संगठित विरोध की चुनौती अपने आप समाप्त हो जायेगी। इसलिए उनका सबसे बड़ा प्रहार कांग्रेस पर है और इसके लिए उनकी निगाह में सबकुछ जायज है जो वे कर रहे हैं। दूसरे वे बहुमत तक से संतुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि इस बार उनकी पार्टी में तीन बटे चार बहुमत जुटे जिससे संविधान में किसी भी परिवर्तन के लिए उनकी सरकार सक्षम हो जाये। अगर अंदाजा लगाया जाये तो इस अनुकूलता की जरूरत उन्हें भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की बंदिश से मुक्त कराकर हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के लिए होगी। वैसे व्यवहारिक रूप में उन्होंने देश को हिन्दू राष्ट्र बना ही दिया है। घोषित न भी करें तो फर्क नहीं है पर वे ऐसा करेंगे ताकि उनकी छवि और बड़ी, अनुलंघनीय बन जाये। इसके अलावा भी उनका एक और मकसद माना जा रहा है कि वे राष्ट्रपति प्रधान शासन प्रणाली को लागू करा दें और अपने को आजीवन राष्ट्रपति घोषित करा लें। ऐसी स्थिति में चुनाव केवल प्रधानमंत्री पद के लिए होगा।
पर सवाल यह है कि हिन्दू राष्ट्र भी अगर घोषित हो तो उसके मानक भी सुशासन के अनुरूप होने चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यसमिति के अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी इस बात के लिए पीठ भले ही थपथपाई हो कि वे 23 वर्षों से सरकार में हैं पर किसी घोटाले में उनका नाम नहीं आया लेकिन इतिहास इसकी तसदीक नहीं करता। उनके समय भी घोटाले सामने आते हैं लेकिन वे नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते क्योंकि सरकार उनके हाथ में है। राफेल विमान खरीद मामले में घोटाले का आरोप लगा था लेकिन कोई जांच नहीं हुई और उन्होंने अपनी हनक से न्यायपालिका तक से क्लीन चिट ले ली। यह दूसरी बात है कि राफेल विमान सौदा में जिन संदेहों की चर्चा हुई थी उनका निराकरण अभी तक तार्किक रूप से नहीं हुआ है। यही हाल अदाणी की कंपनी की जांच का है। उच्चतम न्यायालय ने यह कह दिया कि सेबी को इसकी जांच में कोई गड़बड़ी नहीं मिली पर सेबी की जांच तो सीमित है। मनी लांडिग की जांच तो उसके हाथ में नहीं है जिसका आरोप अदाणी पर है। यह जांच तो होनी चाहिए। पैगासिस स्पाईवेयर से जुड़े प्रश्न भी अनुत्तरित हैं। पर मोदी हमेशा नहीं बने रहेंगे और उनके बाद ये दफन प्रश्न फिर बाहर आये और निष्पक्ष जांच हुई तो शायद भांड़ा फूट ही जायेगा। सुशासन का अर्थ है पारदर्शिता, जबावदेही आदि। लेकिन जब आप चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए ऐसी व्यवस्था बना लें कि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को चयन समिति से बाहर कर दिया जाये और अपने बहुमत वाली चयन समिति को बेखटक सारे अधिकार सुपुर्द कर देें तो क्या इसे निष्पक्षता कहेंगे। चुनाव बोण्ड योजना भी पारदर्शिता के अभाव के कारण ही उच्चतम न्यायालय को अवैध घोषित करनी पड़ी। अगर अवसर होता तो जिस तरह उन्होंने संसद बुलाकर दिल्ली में अधिकारियों के तबादले के मामले में उच्चतम न्यायालय का आदेश पलटा था वैसा ही करने के लिए वे चुनाव बोण्ड योजना के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को संसद का सत्र बुलाकर तत्काल ठुकरा देते। चंडीगढ़ में जिस तरह से भाजपा ने अपना मेयर चुनवाया वह बेहयायी की पराकाष्ठा थी। प्रधानमंत्री द्वारा पत्रकार वार्ता न बुलाना जबावदेही के सिद्धांत का मान मर्दन करने जैसा है। इसमें संसद को भी अपमानित करने से नहीं छोड़ा जा रहा है। जब संसद सत्र चल रहा हो उस समय सरकार को महत्वपूर्ण मुद्दे पर पहले सदन के अंदर बयान देना होता है पर मणिपुर मामले में ऐसा न करके प्रधानमंत्री ने संसद के बाहर खड़ी मीडिया के माध्यम से अपनी बात कही। क्यों ताकि यह जता सकें कि वे किसी भी जबावदेही से परे हैं। ऐसा ही उन्होंने अदाणी मामले में भी किया। किसी भी जबावदेही से परे तो भगवान राम अपने को नहीं समझते थे तभी तो वे लोगों की अपने और अपने शासन के बारे में राय जानने के लिए भेष बदलकर गांवों में विचरण करते थे और जनमत को संतुष्ट करने के लिए ही उन्होंने माता सीता का परित्याग कर दिया था। हिन्दू राष्ट्र में तो और ज्यादा नैतिक व्यवस्था का तकाजा होने वाला है जिसकी परवाह वर्तमान में प्रधानमंत्री नहीं कर रहे। सत्ता का बर्बर और निरंकुश स्वरूप अतीत की निशानियां हैं जो उत्तरी कोरिया, ईरान आदि देशों में देखने को मिलती हैं लेकिन सभ्य दुनिया तो इनसे उबरकर ही बनी है। कोई यह बात अपने प्रधानमंत्री को समझायेगा।