मुकुल गोयल के बाद उत्तर प्रदेश में स्थायी पुलिस महानिदेशक न नियुक्त कर पाने की प्रदेश सरकार की असहायता उसके द्वारा लगातार चैथे कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक के रूप में प्रशांत कुमार को दायित्व सौंपे जाने से परिलक्षित हुई है। लीक से हटकर लेकिन अलग तरह की कठोर प्रतिबद्धता से लैस कोई दल जब सत्ता में पहुंचता है तो उसके लिए न्यायिक तंत्र से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक में नया ढ़ांचा गढ़ने की कवायद स्वाभाविक है। इस नजरिये से देखें तो प्रशांत कुमार राज्य सरकार की उपयुक्त तलाश हैं जिसका परिचय उन्होंने मेरठ जोन के आईजी रहते हुए पहली बार काबरियों पर हेलीकाप्टर से फूल वर्षा के कौतुक के जरिये दिया था। इसके बाद उन्होंने भाजपा और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मंशा के अनुरूप चलने में कभी कोई संकोच नहीें किया भले ही उनका फैसला राज्य पुलिस की पेशेवर परंपरा के प्रतिकूल रहा हो। इसके बावजूद उन्हें स्थायी डीजीपी के लिए संघ लोक सेवा आयोग के सामने राज्य सरकार के लिए प्रस्तावित करना इस कारण संभव नहीं हो पाया क्योंकि वे वरिष्ठता सूची में 19 वे नम्बर पर थे। इस बीच कुछ महानिदेशकों के अल्प समय में ही सेवा निवृत्ति के लिए प्रस्तावित होने की परिस्थिति का आंकलन किया जाये तो उनके नाम एक तरफ कर देने पर भी एक दर्जन अफसरों को सुपर सीड करने की जरूरत थी जिसको केन्द्र से मान्य कराने में जोखिम था। जिसके कारण रिस्क न लेकर उन्हें कार्यकारी डीजीपी बनाने की एकतरफा घोषणा योगी सरकार ने अपनी तरफ से कर दी।
वैसे पेशेवर कुशलता और चातुर्य के लिहाज से उत्तर प्रदेश के पैनल में शामिल पुलिस महानिदेशकों में डीजी जेल एसएन सांवत का नाम सबसे ऊपर लिया जा सकता है जो कि अपने सेवा काल में लगातार चुनौतीपूर्ण जिलों के पुलिस प्रमुख रहे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण रेंज और जोन की भी जिम्मेदारी संभाली जहां सदैव उन्होंने अपनी पेशेवर दक्षता से पुलिस का झंडा बुलंद रखने का काम किया लेकिन वे भी वरिष्ठता सूची में कागजी तौर पर काफी पीछे थे। इसके अलावा जेल की बागडोर भी सक्षम हाथों में रहना समय की मांग है। एसएन सांवत के कार्यभार संभालने के बाद से प्रदेश की जेलों की व्यवस्था को लेकर शिकायतें आनी बंद हो गई हैं। बंदियों के लिए साफ सुथरे सेहतमंद खाने से लेकर जो अन्य व्यवस्थायें अनुमन्य हैं पहली बार उनका लाभ पूरे तौर पर उन्हें मिल पा रहा है जबकि सावत के पूर्वाधिकारी आनंद कुमार ने जेलों का बेड़ा गर्क कर रखा था। पराकाष्ठा तब हुई जब कुख्यात माफिया मुख्तार अंसारी के बेटे अब्दुल्ला अंसारी को बांदा जेल में अपनी पत्नी के साथ रात में एकांत में रहने का कई बार मौका दिये जाने का भंडाभोड़ हुआ। इसकी व्यापक जांच कराई गई तो पता चला कि प्रदेश भर की जेलें रूपये खर्च करने में सक्षम अपराधियों के लिए सैरगाह बनी हुई थी। इससे राज्य सरकार सक्ते में आ गई। आनन फानन आंनद कुमार को डीजी जेल के पद से हटाकर लूप लाइन में फेंका गया। ऐसी परिस्थितियों में एसएन सांवत को डीजी जेल का जिम्मा मिला तो उनकी तरफ सभी की निगांहें स्वाभाविक रूप से लगी हुई थी पर वे कसौटी पर खरे साबित हुए। उन्होंने अपने से जुड़ी राज्य सरकार की सारी उम्मीदों को पूरा करके दिखाया। जेलों को लेकर राज्य सरकार के लिए कोई सिरदर्द वर्तमान में बचा नहीं है। अगर वे पुलिस महानिदेशक बनते तो फिर उनका यह करिश्मा देखने को मिल सकता था लेकिन राज्य सरकार की इस पद पर उनकी नियुक्ति को लेकर अपनी मजबूरियां जाहिर थी।
योगी सरकार के आने के बाद सबसे पहले सुलखान सिंह को उनके ईमानदारी के रिकार्ड के कारण पुलिस महानिदेशक बनने का अवसर दिया गया। उन्होंने इस जिम्मेदारी का निर्वाह भी अपनी छवि के अनुरूप किया। इसके बाद ओमप्रकाश सिंह को यूपी पुलिस की बागडोर मिली जिन्होंने बहुत धाकड़ तरीके से काम किया। योगी के नाक के बाल होने के कारण वे गृह विभाग के उच्चाधिकारियों को भी उठल्लू पर रखते थे। उन्हीं के कार्यकाल में आईएएस अधिकारियों की लाॅबी के दबाव को दर किनार कर महानगरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू किया जा सका। योगी उनका सेवानिवृत्ति का समय आ जाने पर उन्हें सेवा विस्तार दिलाना चाहते थे लेकिन सफल नहीं हो पाये और न ही उन्हें प्रदेश का मुख्य सूचना आयुक्त बनाने की उनकी हसरत को पूरा कर पाये।
उनके बाद एचसी अवस्थी को पुलिस महानिदेशक उनकी चौबीस कैरेट की ईमानदारी के मद्देनजर बनाया गया लेकिन उनके सेवाकाल का ज्यादातर समय फील्ड की बजाय सीबीआई में बाबूगीरी जैसा काम करते हुए व्यतीत हुआ था जिससे वे ओपी सिंह जैसी नेतृत्व क्षमता का एहसास अपने बल को नहीं दिला पाये। उनके बाद मुकुल गोयल पुलिस महानिदेशक नियुक्त हुए पर वे राजनीति का शिकार हो गये। उनकी नियुक्ति केन्द्र के हस्तक्षेप से हुई थी और चूंकि उस समय तक अमित शाह और योगी के बीच शीत युद्ध शुरू हो गया था जिसके चलते योगी ने उन्हें अमित शाह का आदमी मानकर फूटी आखों भी पसंद करना बंद कर दिया था। उस पर तुर्रा यह है कि उन्हें प्रदेश के गृह विभाग के उच्चाधिकारियों का अपने विभाग के रूटीन के कामकाज में नाजायज दखल बर्दास्त नहीं था जिन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कान उनके खिलाफ भरना शुरू कर दिया और मुख्यमंत्री उनके बहकावे में आ गये। मुकुल गोयल ने पेशेवर समझ के कारण अपनी पहली पत्रकारवार्ता में यह कहने का दुस्साहस कर दिया कि मुठभेड़ पुलिस की नीति नहीं हो सकती। पुलिस उनके कार्यकाल में अपराधियों पर तभी गोली चलायेगी जबकि आत्मरक्षा के लिए ऐसा करना नितांत अपरिहार्य बन गया हो। योगी जी को उनके चहेते अफसरों ने उन्हें इसमें उनकी ठोको नीति की अवज्ञा का एहसास करा दिया और अंततोगत्वा इस उठापटक के बीच बेहद जलालत के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन्हें कार्यकाल के बीच ही हटा दिया और जब उनके स्थान पर नये डीजीपी के लिए अन्य आईपीएस अफसरों का पैनल भेजा गया तो योगी सरकार का केन्द्र से जबाव तलब हो गया कि आखिर उन्होंने मुकुल गोयल को किस आधार पर हटाया है जबकि उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के अनुसार किसी भी राज्य के डीजीपी को उसके कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने के पहले नहीं हटाया जा सकता। योगी सरकार के पास लिखा पढ़ी में मुकुल गोयल के खिलाफ कोई आरोप नहीं थे। इसलिए योगी सरकार से संघ लोकसेवा आयोग के इस सवाल का कोई उत्तर नहीं बन पा रहा था।
विकल्प में उन्होंने स्थायी डीजीपी के लिए कोई और नाम प्रस्तावित करने की बजाय अस्थायी डीजीपी के बतौर देवेन्द्र सिंह चौहान की नियुक्ति कर दी। जिनके पास पहले से ही डीजी विजिलेंस और डीजी इंटेलीजेंस के प्रभार थे। इसके पहले एक ही व्यक्ति के पास डीजीपी, डीजी विजिलेंस और डीजी इंटेलीजेंस का जिम्मा हो ऐसा कोई दृष्टांत नहीं था। ओपी सिंह की तरह ही देवेन्द्र सिंह चौहान भी योगी आदित्यनाथ के आंख के तारे साबित हुए। उन्होंने भी गृह विभाग के अफसरों का कोई दबाव नहीं माना और स्वतंत्र होकर काम किया। उनके बाद राजकुमार विश्वकर्मा को कार्यवाहक डीजीपी बनाया गया। योगी पर यह आरोप था कि वे प्रशासनिक नियुक्तियों के मामले में बहुत रूढ़िबादी तरीके से पेश आते हैं जिसके कारण उच्च पदों पर उनके समय पिछड़ और दलित अधिकारियों की तैनाती संभव नहीं हो पा रही है। इसलिए केन्द्र ने प्रशासनिक नियुक्तियों में सामाजिक समीकरण का ध्यान रखने के लिए दबाव बनाया और इसका इनाम राजकुमार विश्वकर्मा को मिला। राजकुमार विश्वकर्मा भी पेशेवर तौर पर बेहद दक्ष अधिकारियो में शुमार माने जाते थे लेकिन वर्तमान परिवेश के चलते वे उस आत्मविश्वास के साथ काम नहीं कर पाये जो देवेन्द्र सिंह चैहान ने दिखाया था। सामाजिक समीकरण के मद्देनजर ही अनु0जाति के विजय कुमार का चयन उनके उत्तराधिकारी के तौर पर हुआ। हालांकि वे भी कार्यवाहक डीजीपी ही रहे। उनका कार्यकाल योगी सरकार के सभी पुलिस महानिदेशकों में सर्वाधिक नीरस रहा। जाहिर है कि जातिगत संतुलन के लिए भले ही वे कार्यवाहक डीजीपी बन जाने में सफल हो गये थे लेकिन अपनी सीमायें जानते थे जिससे हीन भावना का शिकार रहना उनकी नियति था। डीजीपी के तौर पर वे मिट्टी के माधौ बने रहे। उन्हें पहली बार जिला प्रमुख के रूप में मायावती के पहले मुख्यमंत्रित्व काल में बतौर बांदा एसपी पोस्टिंग मिली थी। उस समय वे वामसेफ के मिशनरी अधिकारी की तरह माने जाते थे। कालांतर में उनकी गोरखपुर में पोस्टिंग हुई तो उन्होंने योगी आदित्यनाथ से भी संबंध बना लिये। इसका लाभ उनके मुख्यमंत्री बन जाने पर उन्होंने लेने की कोशिश की पर योगी जी उनके बसपाई अतीत के कारण उन्हें लेकर समय-समय पर संदिग्ध भी हो जाते थे। इसके चलते उन्हें एडीजी ट्रैफिक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से हाथ धोकर डंप होने के लिए पुलिस भर्ती बोर्ड में जाना पड़ा था। हालांकि अब उनकी राजनैतिक सोच का कायाकल्प हो चुका है। मूल रूप से जालौन जिले के निवासी विजय कुमार के बारे में कहा जा रहा है कि वे जालौन गरौठा-भोगनीपुर संसदीय क्षेत्र से भाजपा का टिकट हासिल करने वालों की कतार में लग गये हैं। भाजपा की जो नई नीति है उसमें पार्टी यह मान रही है कि दलितों के संदर्भ में कोरी बिरादरी में उसकी पकड़ स्थायी तौर पर बन चुकी है उसे अब मायावती की बिरादरी पर निगाहें गडाने की जरूरत है। विजय कुमार मायावती की ही बिरादरी से आते हैं।
बहरहाल प्रशांत कुमार को अभी कई महीनों तक कार्यवाहक डीजीपी के रूप में ही कार्य करना पड़ेगा जब तक वे पीेछे के महानिदेशकों के रिटायर होते जाने के क्रम में टाप फाइव में नहीं पहुंच जाते। भाजपा और संघ की विचारधारा के प्रति निष्ठा के अतिरिक्त गुण के अलावा प्रशांत कुमार को पेशेवर कुशलता का भी धनी माना जाता है। उनका दृष्टिकोण प्रशासनिक मामलों में जनवादी है जिससे वे लोगों की संतुष्टि को अपनी सफलता के सबसे बड़े पैमाने क तौर पर आंकते हैं। उन्होंने अपने शुरूआती आदेशों में सीयूजी नम्बर पर आने वाली हर काल को रेस्पांड करने का निर्देश अधिकारियों को दिया है। साथ ही सोशल मीडिया पर आने वाली सूचनाओं पर त्वरित एक्शन के लिए कहा है। इस नजरिये से उनसे सबसे बड़ी अपेक्षा यह है कि वे पुलिस में बढ़ते भ्रष्टाचार और इसके कारण सट्टा व जुआ जैसे अपराधो पर अंकुश लगाने के लिए क्या कर पाते हैं जिसके लिए एसओ और एसएचओ की नियुक्तियों में थानों की नीलामी पर रोक लगाने के लिए प्रभावी उपाय कर सकें। जब योगी ने मुख्यमंत्री पद का कार्यभार संभाला था उस समय इस पर काफी हद तक लगाम लग गई थी। एन कोलांची जैसे आईपीएस अफसर को थाने बेचने के आरोप के कारण निलंबित होना पड़ा था। इसी तरह के तत्कालीन नोएडा एसएसपी वैभवकृष्ण के खुलासे के कारण कई जिला पुलिस प्रमुखों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ गई थी। लेकिन अब फिर पुलिस विभाग में रामनाम की लूट नजर आने लगी है। अधिकांश एडीजी जोन, आईजी जोन, आईजी और डीआईजी रेंज और जिला पुलिस प्रमुखों के तो कहने क्या बोली के आधार पर थानों की कमान सौंप रहे हैं। प्रशांत कुमार इस ढ़र्रे को कितना पलट पायेगें यह देखने वाली बात होगी।
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