प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने चिर परिचित स्वभाव के अनुरूप फिर एक नये विवाद को छेड़ डाला है। अभी तक उन्हें इण्डिया शब्द बहुत प्रिय लगा करता था। उन्हें लगता था कि भारत की बजाय इण्डिया कहने में ज्यादा स्मार्ट बोध है। इण्डिया से उनके नारों में टंकार भी अच्छी बन जाती थी। विपक्ष द्वारा अपने गठबंधन का नाम इण्डिया करने के पहले उन्हें रोज इण्डिया नाम जुड़े स्लोगन को गढ़ने की लत सी लगी हुयी थी। मेक इन इण्डिया, जीतेगा इण्डिया और न जाने कितने स्लोगन की फेहरिस्त है जो मोदी ने बड़े उमंग से गढ़े थे। लेकिन अब उन्हें इण्डिया से एलर्जी हो गयी है। हर जगह अंग्रेजी में भी लिखा जा रहा है तो इण्डिया की बजाय भारत जबकि यह अभी तक रहे रिवाज के विपरीत है। अन्य देशों ने भी मोदी की मर्जी देखते हुये इसका अनुकरण शुरू कर दिया है। विपक्ष पूंछ रहा है कि क्या कल को वे अपने गठबंधन का नामकरण इस तरह कर लें कि उसका संक्षिप्त नाम भारत हो जाये तो मोदी भारत नाम को भी बदल डालेंगे। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस मामले में बीजेपी की बड़ी प्यारी चुटकी ले डाली है।
वैसे इण्डिया नाम बदलने में कोई हर्जा नहीं है। यह अच्छा ही है। कहीं न कहीं इण्डिया नाम से औपनिवेशिक काल की स्मृतियां कौंध जाती हैं। पर बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। इण्डिया शब्द ग्रीक भाषा के इंडिके से लिया गया है जो बाद में लैटिन में बदल दिया गया। इंडिके सिंधु नदी से जुड़ता नाम है। इतिहास बताता है कि ईसा के 600 वर्ष पहले यूनानियों ने सिंधु नदी के आस-पास के क्षेत्र को भारत कहा था। यह नाम संस्कृत के सिंधु से उत्पन्न हुआ था और बाद में रोमनों ने जब ग्रीक शब्द को अपनाया तो इसका नाम इंडिका हो गया। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य में राजदूत रहे मैगस्थनीज ने अपने लेख में इंडिका के नाम से भारत का परिचय दिया था। लेकिन इस तरह देखें तो हिंदू पहचान भी फारसी भाषा से आयी। ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया था। कहा जाता है कि अरब से मुस्लिम हमलावर जब भारत में आये तो इन्होंने यहां के मूल धर्माबलंबियों को हिंदू कहना शुरू कर दिया। इस तरह हिंदू पहचान भी एक तरह कलंक ही कही जायेगी। क्या इण्डिया नाम बदलने के नाम के साथ साथ मुस्लिम हमलावरों की याद दिलाने वाली हिंदू पहचान बदलने के लिये भी योगी कोई कदम उठायेंगे।
वैसे इण्डिया नाम बदलने में कोई हर्जा नहीं है। यह अच्छा ही है। कहीं न कहीं इण्डिया नाम से औपनिवेशिक काल की स्मृतियां कौंध जाती हैं। पर बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। इण्डिया शब्द ग्रीक भाषा के इंडिके से लिया गया है जो बाद में लैटिन में बदल दिया गया। इंडिके सिंधु नदी से जुड़ता नाम है। इतिहास बताता है कि ईसा के 600 वर्ष पहले यूनानियों ने सिंधु नदी के आस-पास के क्षेत्र को भारत कहा था। यह नाम संस्कृत के सिंधु से उत्पन्न हुआ था और बाद में रोमनों ने जब ग्रीक शब्द को अपनाया तो इसका नाम इंडिका हो गया। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य में राजदूत रहे मैगस्थनीज ने अपने लेख में इंडिका के नाम से भारत का परिचय दिया था। लेकिन इस तरह देखें तो हिंदू पहचान भी फारसी भाषा से आयी। ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया था। कहा जाता है कि अरब से मुस्लिम हमलावर जब भारत में आये तो इन्होंने यहां के मूल धर्माबलंबियों को हिंदू कहना शुरू कर दिया। इस तरह हिंदू पहचान भी एक तरह कलंक ही कही जायेगी। क्या इण्डिया नाम बदलने के नाम के साथ साथ मुस्लिम हमलावरों की याद दिलाने वाली हिंदू पहचान बदलने के लिये भी योगी कोई कदम उठायेंगे।
बीबीसी की डाॅट काम सेवा ने अपने एक ताजा लेख में मजेदार बात बतायी कि पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को भी इण्डिया नाम पर आपत्ति थी। वे इसे गुमराह करने वाला नाम बताते थे। जिन्नावादी होने का टैग जुड़ जाने से भाजपा के एक समय के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी का क्या हश्र हुआ था यह बताने की जरूरत नहीं है। क्या अनजाने में देश के नाम के मामले में जिन्ना की आपत्ति से सहमत होने का आभास पैदा करने में प्रधानमंत्री मोदी को कोई राजनैतिक जोखिम महसूस हो सकती है।
निश्चित रूप से यह बातें बहस को पेचीदा बनाने का शगल कहे जाने योग्य है लेकिन यह बात प्रमाणिक है कि अगर औपनिवेशिक अतीत की हीनता का परिचय देने वाली निशानियों का जुआ उतार फेंकने की कोशिशें हों जिनमें निरंतरता दिखती हो तो यह बहुत स्वागत योग्य होगा। पर मोदी के साथ दिक्कत यह है कि उनमें किसी चीज को लेकर मौलिक प्रतिबद्धता के दर्शन नहीं होते बल्कि रातों रात उनके द्वारा छेड़े जाने वाले शाब्दिक आंदोलन तात्कालिक होते हैं और अपने प्रतिद्वंदियों की क्रियायें देखकर उनके अंदर उपजने वाली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से प्रेरित होते हैं। इस मामले में उनकी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से तुलना करें तो स्थिति को अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है।
योगी कट्टर हिंदूवादी हैं जिसकी आलोचना की जा सकती है लेकिन अपनी इस प्रतिबद्धता के अनुरूप लगातार उनकी पद चाल को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर उनका गोवंश संरक्षण अभियान है जिसके लिये वे सनक की सीमा तक आगे बढ़े हुये देखे जा सकते हैं लेकिन इसकी शुरूआत उन्होंने किसी प्रतिद्वंदी की उखाड़ पछाड़ के लिये नहीं की। इसी कट्टर हिंदुत्व का निर्वाह करते हुये उन्होंने धार्मिक स्थानों को सजाने संवारने और उनकी कनैक्टिविटी को एक्सप्रेस स्तर पर सुगम बनाने का क्रम चलाकर विकास के मानक बदल दिये। वे रामनवमीं पर सुंदरकाण्ड का पाठ कराने के लिये बजट आवंटित करते हैं तो यह भी उनकी मौलिक प्रतिबद्धता के अनुरूप है। योगी के ये कट्टर कदम किसी क्रिया की प्रतिक्रया का नतीजा नहीं दिखाते। क्या मोदी जो तमाम उठा पटक करते हैं उसमें योगी जैसी कोई संगति दिखाई देती है।
औपनिवेशिक हीनता को मिटाने की कोई मौलिक भावना अगर उनमें होती तो वे पहले इण्डिया नाम के प्रति इतना चाव क्यों दिखा रहे थे। लोकतंत्र में होना यह चाहिये कि किसी अप्रत्याशित कदम को कम से कम उठाया जाये। कोई आवश्यक प्रतिबद्धता लगने पर उसके लिये जनमत संगठित किया जाना चाहिये। खुद उनकी पार्टी इसकी गवाह है। उसने सत्ता में आकर अचानक धारा 370 खत्म करने, अयोध्या में राम मंदिर बनाने, समान नागरिक संहिता लागू करने और गोहत्या पर पाबंदी जैसे कदम उठाने की हिमाकत नहीं की बल्कि जब सत्ता उससे बहुत दूर थी तभी से जो उसका मूल एजेंडा कहे जाते हैं उनके लिये जनमत संगठित करने का उसने लंबा प्रयास किया। पर मोदी को अपने किसी कदम के लिये जनता को विश्वास में लेने की प्रक्रिया अपनाने में भी तौहीन महसूस होती है यह अहंकार की चरमसीमा है। क्या सत्ता में आने के लगभग 10 वर्ष पूरे होने तक वह पहले से इण्डिया के स्थान पर देश का नाम भारत करने के लिये मुहिम नहीं छेड़ सकते थे। वे तो अब इसे लोगों पर थोपने की मुद्रा में हैं और हर चीज में वे यही करते हैं। लोकतंत्र के लिये यह प्रवृत्ति कतई अस्वीकार है।
औपनिवेशिक हीनता को मिटाने की कोई मौलिक भावना अगर उनमें होती तो वे पहले इण्डिया नाम के प्रति इतना चाव क्यों दिखा रहे थे। लोकतंत्र में होना यह चाहिये कि किसी अप्रत्याशित कदम को कम से कम उठाया जाये। कोई आवश्यक प्रतिबद्धता लगने पर उसके लिये जनमत संगठित किया जाना चाहिये। खुद उनकी पार्टी इसकी गवाह है। उसने सत्ता में आकर अचानक धारा 370 खत्म करने, अयोध्या में राम मंदिर बनाने, समान नागरिक संहिता लागू करने और गोहत्या पर पाबंदी जैसे कदम उठाने की हिमाकत नहीं की बल्कि जब सत्ता उससे बहुत दूर थी तभी से जो उसका मूल एजेंडा कहे जाते हैं उनके लिये जनमत संगठित करने का उसने लंबा प्रयास किया। पर मोदी को अपने किसी कदम के लिये जनता को विश्वास में लेने की प्रक्रिया अपनाने में भी तौहीन महसूस होती है यह अहंकार की चरमसीमा है। क्या सत्ता में आने के लगभग 10 वर्ष पूरे होने तक वह पहले से इण्डिया के स्थान पर देश का नाम भारत करने के लिये मुहिम नहीं छेड़ सकते थे। वे तो अब इसे लोगों पर थोपने की मुद्रा में हैं और हर चीज में वे यही करते हैं। लोकतंत्र के लिये यह प्रवृत्ति कतई अस्वीकार है।
फिर भी अब जबकि उन्होंने औपनिवेशिक हीनता को मिटाने का शंखनाद कर ही दिया है तो उन्हें इसे तार्किक परिणति पर पहुंचाने के लिये कुछ और कदम भी उठाने पड़ेंगे तभी मामला संतुलित होगा। क्या मोदी जी को यह पता नहीं है कि क्रिकेट का खेल केवल उन्हीं देशों में होता है जो एक समय इंग्लैण्ड के गुलाम रहे थे। जलवायु की दृष्टि से भी क्रिकेट भारत के लिये मुफीद खेल नहीं है। क्रिकेट के पीछे एक और खेल होता है सट्टे का खेल जिसकी बदौलत दाऊद इब्राहिम जैसे शैतानों को ताकत मिली और उसने इसका इस्तेमाल हमारे देश में खून की होली खेलने के लिये किया। आज भी क्रिकेट के मूल खेल में इतना वारा न्यारा नहीं होता जितना उस पर खेले जाने वाले सट्टे के कारोबार में होता है। तो क्या उन देशों की तरह जिनको आजाद होने के बाद क्रिकेट के खेल को ढोना अपनी खुद्दारी को कचोटने वाला लगा हमे भी इस खेल के तथाकथित ग्लैमर को झटक नहीं देना चाहिये ताकि हमारे परंपरागत खेल कुश्ती, हाॅकी, जिम्नास्टिक आदि फिर से पनप सकें। इसी तरह हमें राष्ट्रकुल यानी काॅमनवैल्थ से अलग होने का फैंसला घोषित करना पड़ेगा क्योंकि इसके पदेन अध्यक्ष ब्रिटेन के महाराजा और कल तक महारानी होतीं थी यह व्यवस्था किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता को कचोटने वाली है।
इसके अलावा इण्डिया ही अकेला क्यों? आगे से किसी भी नारे को, किसी भी आवाहन को अंग्रेजी संपुट के साथ गुंजाने के मोह का संवरण करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी प्रधानमंत्री मोदी को लेनी पड़ेगी। क्या वे इसके लिये तैयार हैं।