राहुल गांधी ने जब जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाना शुरू किया था तो भाजपा उनका मखौल उड़ाने की मुद्रा में थी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना इन चार राज्यों के चुनाव में उन्होंने इसे कोर मुद्दा बनाया लेकिन भाजपा की तो छोड़िये उनकी पार्टी के नेताओं ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। अभी भी पार्टी के प्रमुख पदों पर सवर्ण मानसिकता के नेता कब्जा जमाये हुए हैं जिसे लेकर राहुल गांधी पर उंगलियां भी उठती हैं कि वे हर जाति को उसकी संख्या के मुताबिक व्यवस्था में भागीदारी दिलाना चाहते हैं पर अपनी पार्टी में ही ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें तो पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष अजय राज भूमिहार हैं जबकि प्रदेश के प्रभारी अविनाश पाण्डेय ब्राह्यण। जब राहुल गांधी ने बसपा की पृष्ठभूमि के कद्दावर दलित नेता बृजलाल खाबरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था तो इसकी काफी चर्चा हुई थी। यह माना गया था कि उनका यह कदम दलितों की पार्टी में घर वापसी में अहम भूमिका अदा करेगा लेकिन उन्हें खाबरी को हटाना पड़ा और उनके स्थान पर एक सवर्ण को लाये तो उनके मन में यह विचार नहीं आया कि जब वे जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं उस समय इस प्रतिगामी नियुक्ति से सवालों में घिर सकते हैं। बहरहाल उनकी जातिगत जनगणना की मांग को अपनी पार्टी के अंदर ही समर्थन नहीं मिल पाया। राजस्थान में तो पार्टी की बागडोर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के हाथ में थी दोनों ओबीसी हैं जिसके कारण विधानसभा चुनाव में पार्टी को फायदा न मिला हो पर लोकसभा चुनाव में इज्जत बच गई। लेकिन मध्य प्रदेश में दिग्यविजय और कमलनाथ ने जातिगत जनगणना की मांग से पूरी तरह दूरी रखकर लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की लुटिया ही डुबो दी।
पर राहुल गांधी के साहस की सराहना करनी होगी कि सामाजिक न्याय के इस मुद्दे से उनको तात्कालिक तौर पर फायदे की जगह नुकसान होता चला गया फिर भी वे इस पर डटे रहे। चूंकि उनकी यह खासियत सामने आ चुकी है कि अगर उनका ईमान किसी मुद्दे को न्यायोचित ठहराने लगे तो फिर वे मोदी की तरह राजनीतिक नफा नुकसान की परवाह नहीं करते और अपने स्टैण्ड पर कायम रहते हैं। मोदी के स्वभाव इसके विपरीत है। उनके मन में कुछ होता है लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के दबाव में आकर कहने कुछ लगते हैं। उदाहरण के तौर पर उन्हें संविधान बदलने के मुद्दे पर पलायनवादी रूख नहीं अपनाना चाहिए था। अटल जी के समय जब उनकी पार्टी ने संविधान बदलने का प्रयास किया था तो एक तार्किक औचित्य उसने सामने रखा था। संविधान समीक्षा आयोग के माध्यम से उनका यह प्रयास था कि प्रधानमंत्री प्रमुख शासन प्रणाली से छुटकारा पाकर राष्ट्रपति प्रमुख अमेरिका जैसी शासन प्रणाली को अपनाया जाये। चूंकि उस समय गठबंधन सरकारों के युग में हुए अनुभव यह धारणा प्रतिपादित कर रहे थे कि ब्रिटिश की तरह संसद के प्रति जबावदेह सरकार की प्रणाली के कारण प्रधानमंत्री को ब्लैकमेलिंग की स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जिससे कई बार नैतिकता और राष्ट्रीय हित की अवहेलना के लिए सरकार के मुखिया मजबूर रहते हैं। राष्ट्रपति प्रमुख प्रणाली लागू होगी तो निश्चिंत होकर शासन का प्रमुख वे फैसले लागू कर सकेगा जो जनहित और राष्ट्रहित की कसौटी पर खरे हों। अटल सरकार के प्रयास सफल नहीं हुए लेकिन बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग इसके औचित्य के प्रति सहमति प्रकट कर रहा था। इस दृष्टि से अगर मोदी ने अपने समय संविधान को बदलने का अधूरा कार्य पूरा करने का वीणा उक्त तर्को की रोशनी में सीना ठोककर उठाया होता तो हो सकता है कि उन्हें चुनाव में नुकसान की बजाय फायदा हो जाता। लेकिन ईमान और प्रतिबद्धता से मोदी के सरोकार बहुत दूर होते हैं। वे चुनाव जीतने के लिए गिरगिट से भी तेजी से अपना स्टैण्ड बदलते रहते हैं जिसके लिए जनमानस के बीच उनका चेहरा पर्याप्त बेनकाब हो चुका है इसलिए उनके समर्थकों तक में उनके प्रति समर्पण में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रह गई।
राहुल गांधी ईमान के लिए हर जोखिम उठाने का जो संकल्प दिखा रहे हैं लोग उसके कायल होने लगे हैं। उनके मुद्दों से सहमत या असहमत होने का प्रश्न नहीं है लेकिन लोग यह कहने लगे हैं कि नेता में सैद्धांतिक दृढ़ता का गुण राजनीति के सुचारू संचालन के लिए बहुत आवश्यक है। बहरहाल जातिगत जनगणना की मांग का जो बीच राहुल गांधी तात्कालिक असफलताओं के बावजूद बोते रहने पर आमादा रहे तो अब उसकी फसल काटने का अवसर उन्हें मिलने लगा है। लोकसभा चुनाव में वे मोदी को अपने दम पर बहुमत से पीछे धकेलकर उनका मान मर्दन करने में कामयाब हुए जिससे उनका आत्मबल बुलंदी पर जा पहुंचा था। मोदी को चाणक्य बुद्धि माना जाता है और इसके अनुरूप अभी तक उन्होंने तमाम ऐसी चालंे चली जिससे राहुल गांधी का राजनीतिक ऊंट पहाड़ के नीचे आ जाये और उनके मनोबल को तलेहटी में धकेला जा सके। पर मोदी के सारे पांसे उल्टे पड़े हैं। जातिगत जनगणना की मांग का जिन्न लोकसभा चुनाव के बाद भी न केवल उभार पर रहा बल्कि उसने प्रचंड रूप ले लिया है। मोदी चाहते थे कि पहले की तरह विपक्ष को अपनी पिच पर खेलने के लिए बाध्य कर सकें पर इसके विपरीत उनकी स्थिति असहाय बन गई और वे राहुल गांधी की पिच पर हाथ पैर मारने के लिए मजबूर हो गये हैं। जातिगत जनगणना की मांग से शुतुरमुर्गी रूख अपनाकर पार पाना संभव नहीं हुआ इसी कारण केरल में आयोजित अपने सम्मेलन में संघ को यह कहना पड़ा कि जातिगत जनगणना पर किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए। इससे पिछड़ी हुई जातियों के उत्थान के लिए कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी इसलिए यह उपयोगी है। साफ है कि संघ ने और उसके पल्लू से बंधे भाजपा के कर्णधारों को राहुल गांधी के आगे घुटने टेकने में ही खैरियत समझ में आ रही है।
संघ का कहना यह है कि जातिगत जनगणना संवेदनशील मुद्दा भी है इसलिए इसे चुनाव में लाभ उठाने का हथियार नहीं बनाना चाहिए। जाहिर है कि संघ भाजपा की संभावित दुर्गति की कल्पना से दुबला हुआ जा रहा है वरना उसे सबसे पहले तो राम मंदिर पर भाजपा को उपदेश करना चाहिए था कि वह इसे चुनावी लाभ से न जोड़े। भगवान राम किसी भी पार्टी का हिन्दू हो उसके आराध्य हैं पर मोदी ने राम पर अपना पेटेंट जताने की हटधर्मिता दिखाकर हिन्दुओं को बांट देने का काम किया। उन्होंने यह धारणा बनाने की जोरदार मशक्कत की कि राम भक्ति को प्रमाणित करने के लिए भाजपा को ही वोट करना अनिवार्य है अन्यथा आप राम की कितनी भी वंदना करते हों लेकिन कमल की जगह दूसरे पार्टी का चुनाव चिन्ह दबाकर अपने सारे पुण्य नष्ट किये जा रहे हो। यह फतबा किसी के गले में नहीं उतरा और इससे राम भक्ति और हिन्दुत्व की शक्ति कमजोर हुई जो राजनैतिक दलबंदी से परे है। संघ को भाजपा की बजाय हिन्दुओं का शुभेच्छु बनना चाहिए और ऐसा होता तो उसने मोदी को रोका होता कि पूस के महीने मे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन न करें और राम भक्ति के लिए चुनाव में वोट देने को कसौटी बनाने से बाज आयें। सही बात तो यह है कि अगर जातिगत जनगणना की मांग को राजनीति में न उठाया गया होता तो 2021 की बकाया जनगणना में भी ऐसे किसी रद्दोबदल की गुंजाइश नहीं होती। राजनीतिक दबाव में ही इसकी भूमिका बनाने के लिए संघ को आगे आने को मजबूर किया। जातिगत जनगणना के साथ आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग भी जुड़ी है। सवर्ण अपने साथ नाइंसाफी के रूप में इसे पेश करते हैं लेकिन स्थिति यह है कि आज भी सवर्ण जनसंख्या के अनुपात में तो 14 या 15 प्रतिशत ही हैं लेकिन सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व 60 फीसदी से ऊपर है। आरक्षण का दायरा बढ़ने पर भी वे अपनी संख्या के अनुपात से ज्यादा सरकारी नौकरियों में रहने वाले हैं। पर समाज में सवर्ण/वंचित का विग्रह न कराकर सवर्णो को विश्वास में लेकर यह काम किया जाना चाहिए जिसकी 10 साल से सत्ता में रहने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। डा लोहिया ने जब नारा दिया था कि पिछड़ो ने बांधी गांठ सौ में पावें साठ तो इस नारे की डोली के कहारों में सवर्णों की संख्या वंचितों से अधिक थी। बजह यह कि लोहिया ने सवर्णों के बड़े वर्ग को सामाजिक परिवर्तन के लिए लामबंद करके दिखाया था। भाजपा ने इसके उलट अपने आईटी सेल के माध्यम से आरक्षण को सबसे बड़े अनर्थ के रूप में पेश करने और सवर्णों की जन्मजात श्रेष्ठता को ईश्वरीय देंन की रूप में स्थापित करने की मुहिम छेड़ी। पहले आईटी सेल से आरक्षण के खिलाफ विष वमन करने और आरक्षण से लाभान्वित दलित और पिछड़े वर्गों के प्रति घृणा व्यक्त करने की पोष्ट डाली जाती है और इसके बाद सोशल मीडिया पर निजी एकाउंट चलाने वालों को इन पोस्टों के मजमून को और वीभत्स रूप में पेश करने के लिए उकसाया जाता है। समाज में बंटवारे के पीछे इसीलिए कहा जाता है कि भाजपा की हरकतें जिम्मेदार हैं।
सरकारी कामों में निजीकरण को बढ़ावा देने के पीछे के उद्देश्य पर भी गौर किया जाना चाहिए। सरकारी क्षेत्र की जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र में सौंपने का विचार जिस मकसद से आया उसके दो उद्देश्य थे। एक तो प्रोडक्ट या सेवा को सरकारी क्षेत्र की तुलना में सस्ता किया जा सके साथ-साथ उनमें गुणात्मक सुधार लाया जा सके। शुरू में इन उद्देश्यों को ध्यान रखा गया जिसका उदाहरण टेलीकाम का क्षेत्र है जहां निजी क्षेत्र को लाने से काल सस्ती हुई और कंजक्शन की समस्या का निवारण किया जा सका। लेकिन मोदी राज में इसके दो मकसद हैं। एक तो एकाधिकारवारदी प्रवृत्ति का बढ़ावा देकर चहेते कारपोरेटों को भरपूर मुनाफा लूटने का अवसर प्रदान करना और दूसरे कर्मचारियों को संविदा व आउट सोर्सिंग के आधार पर भर्ती करने के पैटर्न से आरक्षण को बढ़ावा देना। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संविदा और आउट सोर्सिंग के काम में 75 फीसदी से भी अधिक मौके हथियाने का मौका सवर्णों को दिया जा रहा है। मांग यह भी है कि इस विसंगति के निराकरण के लिए आउट सोर्सिंग व संविदा भर्तियां भी आरक्षण के आधार पर हों। जातिगत जनगणना की मांग मानने की ही तरह ही इन मांगों को भी मोदी सरकार को मानना पड़ेगा। बिडंवना यह है कि इसका श्रेय वंचितों के बीच तो इंडिया गठबंधन के खाते में जा रहा है जबकि कट्टर सवर्ण जो मोदी से आरक्षण से छुटकारा दिलाने की उम्मीद लगाये थे उनमें मोदी के लिए मोह भंग की भावना गहरायेगी। बहरहाल भाजपा के लिए इस समय इधर कुंआ उधर खाई की हालत है। यह मोदी के कौशल की बड़ी परीक्षा है। वे सवर्णों का भरोसा बनाये रखते हुए दलितो, पिछड़ों में पहले की तरह पैठ मजबूत करने का करिश्मा कैसे दिखा सकेंगे यह देखने वाली बात है।