एक समय उत्तर प्रदेश में सामाजिक परिवर्तन की आंधी बनकर उभरी बहुजन समाज पार्टी के आतंक से सामाजिक उपनिवेश के अलम्बरदारों की नींद उड़ गई थी। 1993 में जब उसका गठबंधन मुलायम सिंह से हुआ तो परंपरागत सामाजिक सत्ताओं को कई दशकों तक निर्वासन झेलने का खतरा सताने लगा था। हालांकि इस गठबंधन के पीछे भी परिवर्तन को लेकर निर्मल दृष्टि नहीं थी। पता नहीं उस समय उक्त उभार को खड़ा करने में जिनकी लंबी तपस्या और सघर्ष जुड़ी हुई थी वे कांशीराम इतनी दूर दृष्टि रखते थे या नहीं कि मुलायम सिंह यादव की मृग मरीचिका ताड़ सकें। कांशीराम के बारे में यह कहा जा सकता है कि बहुजन समाज के उत्थान के संघर्ष के लिए उनका त्याग और समर्पण संदेह से परे रहा लेकिन उनमें राजनैतिक परिपक्वता की कमी कहीं न कहीं रही जिसके चलते उनका आंदोलन तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही विफलता के लिए अभिशप्त हो गया। वर्तमान में बहुजन समाज पार्टी जिस मोड़ पर है उस पर उसके भविष्य के आगे पूर्ण विराम लगता नजर आ रहा है। अब जबकि बसपा की पूरी फसल लुट चुकी है तब इसकी मौजूदा कर्ताधर्ता मायावती को यह याद आ रहा है कि लोकसभा चुनाव में सिर्फ जीतने की क्षमता के आधार पर किसी को उम्मीदवार नहीं बनाया जाना चाहिए। इसकी बजाय दावेदार के बहुजन मूवमेंट के प्रति वफादार, अनुशासित और कर्मठ व्यवहार को सर्वोपरि आंका जाये। लेकिन अब पछतायें का होत है जब चिड़िया चुग गई खेत यही स्थिति मायावती के सामने है।
2019 के लोकसभा चुनाव में जब सपा बसपा गठबंधन की पटकथा एक बार फिर लिखी गई थी तो बसपा के खेमें में बहार आ गई थी। इस समझौते में बसपा को एलाट सीटों पर उम्मीदवारी के लिए नेताओं का तांता लग गया था। हर सीट पर उम्मीदवार बोली बढ़ाकर मायावती की शरण में पांत के पांत आ रहे थे। तब तो उन्होंने नहीं देखा कि बहुजन मूवमेंट के प्रति इन उम्मीदवारों की कितनी निष्ठा है। जिसने ज्यादा चढ़ौती चढ़ा दी वह कितना भी कट्टर जाति वर्चस्ववादी क्यों न रहा हो मायावती ने उसे अपना लिया। इसके चलते भाजपा की आंधी के बावजूद बसपा को 10 सीटें मिल गई जबकि समाजवादी पार्टी इस गठबंधन में ठगी गई और उसके हिस्से केवल पांच सीटें आ पायीं थी।
चूंकि बहुजन मूवमेंट जैसे किसी बंधन से मायावती कोई लेना देना नहीं रखती थी इसलिए बहुजन होते हुए भी अभिजन की पार्टी भापजा की तुलना में सपा-बसपा गठबंधन पर भारी क्यों पड़ गई इसकी ईमानदार समीक्षा के फेर में पड़ने की वजाय उन्होंने सपा को कोसते हुए इकतरफा तौर पर गठबंधन को भंग कर दिया। बीते पांच सालों में बहुजन मूवमेंट के नाम पर मायावती कुछ करती नजर नहीं आयीं बल्कि अपने सांसद दानिश अली के साथ लोकसभा में हुए दुव्र्यवहार के प्रसंग में उनका स्टेंट बहुजन मूवमेंट की आत्मा को जख्मी करने वाला रहा। आज जब वे मूवमेंट की दुहाई दे रहीं हैं तो भविष्य के सारे रास्ते बंद हो जाने की उनकी कुंठा लोगों को इसमें अभिव्यक्त होती नजर आ रही है।
मान्यवर कांशीराम ने परिवर्तन के कारवा को मंजिल पर पहुंचाने के लिए यह तय किया था कि वे न तो परिवार बसायेंगे और न ही राजनीति के माध्यम से अपने परिवार को किसी तरह की ताकत देंगे। उन्होंने इस व्रत का निर्वाह किया और अपना उत्तराधिकारी परिवार के किसी व्यक्ति को बनाने की बजाय मायावती को बनाना तय किया। कांशीराम को आभास था कि उनके जीवन में हो सकता है कि बहुजन मूवमेंट पूरी तरह कामयाब न हो पाये इसलिए आगे के नेतृत्व से भी उनकी अपेक्षा परिवार के मोह से अपने को अलग रखकर समाज के लिए कार्य करते रहने की थी। इसलिए मायावती ने भी उत्तराधिकारी के मामले में यही वचन बद्धता प्रकट की थी कि वे भी जब मिशन की बागडोर किसी को सौंपेंगी तो वह उनके परिवार से नहीं होगा। पर वे कांशीराम की बुलंदी को नहीं छू सकीं जब सत्ता में रहीं तो उन्होंने मिशन का कम अपने भाई भतीजों को अधिक ध्यान रखा जो आज अरबों में खेल रहे हैं। यही नहीं अब उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर भी अपने भतीजे आकाश आनंद का नाम घोषित कर दिया है।
आकाश आनंद कितना तेज तर्रार है यह सामने आना चाहिए था लेकिन उत्तराधिकारी के तौर पर अपने नाम का ऐलान हो जाने के बाद भी आकाश आनंद अभी तक ऐसा कुछ नहीं कर सका है जिससे पार्टी उसके करिश्मे का अंदाजा कर सके यह तो दूर की बात है वह अपनी उपस्थिति तक का एहसास पार्टी को नहीं करा सका है। इसी कारण बसपा का टिकट का बाजार अब पहले की तरह गुलजार नहीं हो पा रहा है। उधर बसपा के पिछली बार चुने गये सारे सांसद दूसरी पार्टियों में भाग रहे हैं। आखिर उन्हें बसपा से कोई भावनात्मक लगाव तो था नहीं। बसपा नेतृत्व को लेकर उन्हें लिहाज भी नहीं है और न होना चाहिए क्योंकि उन्होंने भरपूर कीमत देकर टिकट खरीदा था तो इसमें नेतृत्व का क्या एहसान। मायावती ने दिखाया कि उनकी खुद ही कोई दिशा नहीं है तो बसपा के प्रति किसी के सैद्धांतिक लगाव की चर्चा बेमानी है। उनसे जो कुछ भी लोग जुड़े रह गये वे केवल एक जाति विशेष के लोग हैं जिन्हें पता है कि अगर वे दूसरा दरवाजा देखेंगे भी तो कोई उन पर विश्वास नहीं करेगा। इसलिए उनकी बिरादरी की पूंछ बनी रहे सो बहिन जी के खूंटे से बंधे रहना उनकी मजबूरी है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि इसका मतलब यह हो कि बहुजन मूवमेंट को अप्रासांगिक करार दे दिया जाये। भारत में धर्म सामाजिक विधान का विनियमन करता है बजाय व्यक्ति के नैतिक चारित्रिक विकास के। आज धर्म इस भूमिका में फिर पूरे जोरों से प्रभावी हो गया है। धर्म की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए सदाचार के जिन बीजों के आरोपण की जरूरत समाज में होती है धर्म उसमें सहायक बन सकता है। धर्म कोई भी हो उससे मानवतावादी मूल्यों के पोषण की अपेक्षा की जाती है लेकिन अगर धर्म बेपटरी हो जाये तो उसमें कहीं विकृतियां पनपने लगती हैं। समाज में जन्मना ऊंच नीच की भावना इस विकृति का ज्वलंत उदाहरण है।
सामाजिक उपनिवेशवाद से देश को उबारने के लिए परिवर्तनवादी आंदोलन शुरू हुए थे जिससे देश तेजी के साथ आधुनिकताबोध से जुड़कर वैश्विक प्रगति के प्रतिमानों में नये कीर्तिमान स्थापित कर सके। आज जब पुनरूत्थानवााद फिर जोर पकड़ रहा है तो परिवर्तन के लिए किये गये संघर्षों को निरर्थक बनाये जाने की प्रक्रियाओं का प्रतिवाद पूरे जोरों से होना चाहिए। एक समय दलित फोर से लेकर बहुजन समाज पार्टी का कांशीराम का आंदोलन इसी आवश्यकता की पूर्ति करता नजर आ रहा था। मंडल आयोग की रिपोर्ट भी सदियों की सामाजिक जड़ता पर प्रहार करके परिवर्तनवादी मुहिम को प्रवाह देने का उपक्रम था। इस रिपोर्ट के लागू होने से देश निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया था जिसमें आर पार की लड़ाई लड़ी जानी थी। लेकिन मुलायम सिंह इस मोड़ पर व्यक्तिगत कैरियर के लिए विचलन के शिकार हो गये और परिवर्तनवादी गोल को छोड़कर सामंती ताकतों को प्रतिनिधित्व कर रहे चन्द्रशेखर की गोद में जा बैठे। उन्होंने अपने को यथा स्थितिवाद का मोहरा बनाने में ही गनीमत समझी। उधर दलितों के उत्पीड़न के लिए बदनाम चन्द्रशेखर और देवीलाल जैसी ताकतों का हमबार होना कांशीराम को भी श्रेयस्कर लगा जो उनकी वैचारिक गफलत का नमूना था। जिस दिन मंडल ज्वार को शांत करने के लिए आयोजित हुई चन्द्रशेखर, देवीलाल और मुलायम सिंह की रैली में कांशीराम भी उपस्थित हुए उसी दिन बसपा का मूवमेंट अपने उद्देश्य से भटक चुका था। बाद में जब आर्थिक उदारवाद के नाम पर नव पूंजीवादी उपनिवेशीकरण के लिए सत्तारूढ़ हुई नरसिंहाराव सरकार के सामने अल्पमत से ढ़ह जाने का खतरा पैदा हो रहा था उस समय भी कांशीराम जाने अनजाने में अपनी प्रतिबद्धता से मुकर गये थे।
समय वह था जब मंडल आयोग को लेकर इंदिरा साहनी बाना बनाम भारत सरकार का फैसला सामने आया इससे मंडल रिपोर्ट लागू करने के फैसले के न्यायोचित सिद्ध होने से परिवर्तनवादियों में उत्साह का ज्वार उमड़ पड़ा तो बाबरी मस्जिद ध्वंस की घटना हुई जिसमें साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनाक्रोश चरम सीमा पर पहुंच गया। ऐसे में रामो वामो के अविश्वास से नरसिंहाराव की सरकार छिन्न भिन्न होने पर थी पर मुलायम सिंह के रणनीतिक बहिर्गमन ने जाहिर कर दिया कि परिवर्तनवादियों का एक धड़ा किस कदर पतित हो चुका है। इसके बाद भी सारे देश में रामो वामो का तूफान था जिसका केन्द्र था उत्तर प्रदेश। प्रतिगामी शक्तियों को पता था कि परिवर्तन की नाभि का अमृतकंुड उत्तर प्रदेश है जिसमें छेद होने पर इसका ज्वार बबूले की तरह शांत पड़ जायेगा। सपा बसपा गठबंधन ने यही रोल अदा किया। हो सकता है कि इसके बाद यह गठबंधन परिवर्तन की गाड़ी का नया इंजन बनता। लेकिन मायावती के वैचारिक अध कचरेपन की वजह से गेस्ट हाउस कांड के वितंडा ने इस मुहिम की भी भ्रूण हत्या कर दी।
कांशीराम की राजनैतिक अपरिपक्वता का ही नतीजा था कि उन्होंने मायावती को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना जिनकी वैचारिक कशिश शुरू से ही बहुत कमजोर रही। बहरहाल बहुजन मूवमेंट भले ही आज भी प्रासंगिक हो लेकिन मायावती को इतिहास लोकसभा चुनाव में अप्रासंगिक करार देने जा रहा है।