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Monday, December 2, 2024

क्यों बिखर रहा पी डी ए का कुनबा

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भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से हिन्दू आधिमत्य वाले राष्ट्र के लिए सैद्धांतिक तौर पर सुगठित है विपक्ष के खेमे में सिद्धांतों को लेकर ऐसी स्पष्टता नजर नहीं आती जो उसकी कमजोरी का एक मुख्य कारण साबित हो रहा है। यह साफ दिखायी देता है कि विपक्षी नेताओं में निजी स्वार्थ सबसे ऊपर है और उनमें सैद्धांतिक कटिबद्धता का बुरी तरह अभाव है। इसी के चलते उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन तो संभव हो ही नहीं पाया है साथ ही सपा स्वामी प्रसाद मौर्य, पल्लवी निरंजन और चन्द्रशेखर जैसे नेताओं को गंवाने से भी नहीं बच सकी है। इसके चलते इंडिया गठबंधन के पक्ष में पिछड़ों और दलितों की लामबंदी का स्वप्न बिखर रहा है फिर भी यह गठबंधन सबक सीखने को तैयार नहीं है।
ताजा खबर आयी है कि सपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर असमंजस को बनाये रखते हुए आखिरकार उन्हें कोई लिफ्ट न देने का फैसला कर लिया है जबकि कहा जा रहा है कि पहले अखिलेश ने कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी अविनाश पाण्डेय से स्वामी प्रसाद को लेकर कहा था कि मौर्य सपा छोड़कर गये ही कब थे जो उनको फिर से अपनाने की सोची जाये। इससे लगा था कि अखिलेश स्वामी प्रसाद मौर्य को अपने पाले में बनाये रखेंगे लेकिन उन्होंने मौर्य का तिरस्कार कर दिया। न केवल इतना बल्कि कांग्रेस ने मौर्य को अपने सिंबल पर प्रत्याशी बनाने को कहा तो उन्होंने इस पर भी आपत्ति कर दी। ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य कुशीनगर से चुनाव मैदान में कूद पड़े हैं। साथ ही उन्होंने यह घोषणा भी की है कि वे नगीना में चन्द्रशेखर का समर्थन करेंगे। इतना सब कुछ होने के बावजूद स्वामी प्रसाद मौर्य ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि वे अन्य सीटों पर इंडिया के साथ रहेंगे। यह उनकी सदाशयता है जबकि अखिलेश में अहंकार नजर आता है।
इंडिया गठबंधन में न तो अखिलेश पीडीए के अपने घोषित नारे का निर्वाह कर पा रहे हैं और न ही राहुल गांधी द्वारा अपनी हर सभा में जातिगत जनगणना और आरक्षण का दायरा बढ़ाने की दुहाई दी जाने के बावजूद बहुजन समाज का रूख कांग्रेस की तरफ हो पा रहा है। सपा और कांग्रेस दोनों की अपनी समस्यायें हैं। सपा अभी भी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाई जा रही है जिसके कारण उसमें सामूहिक नेतृत्व नहीं उभर पा रहा है जबकि इसकी बहुत अपेक्षा है। प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है कि भाजपा उन धार्मिक विचारों को पुष्ट कर रही है जिनसे समाज और व्यक्ति का नैतिक चरित्र तो मजबूत नहीं होता पर मनुवादी व्यवस्था को नये सिरे से ताकत मिले। बावजूद इसके सामाजिक दासता के लंबे अभ्यास में वंचित जातियां इस कदर हीन भावना की शिकार हैं कि वे अपने प्रति शोषण और अत्याचार के लिए जिम्मेदार तबकों की गोद में जा बैठने की भूल करने से नहीं बच पाती।
उनमें उपनिवेशवादी धर्म के प्रति इस कदर सम्मोहन है कि जरा सा इस ओर उन्हें दुलराया जाये तो वे भाव विभोर हो जाती हैं। देखा जा चुका है कि रामनाथ कोविद जब राष्ट्रपति पद पर थे उस समय दलित होने के कारण उनके साथ पुरी के जगन्नाथ मंदिर में धक्का-मुक्की कर दी गई थी फिर भी ये मुद्दा दलितों में कोई आक्रोश नहीं जता सका था। कुछ दशक पहले तक ऐसे सामाजिक आंदोलनों ने जोर पकड़ रखा था जिनके चलते राजनीतिक मंचों पर भी विद्रोह की आंच सुलगती देखी जाती थी। नतीजतन ऐसा दबाव बन रहा था जिससे परंपरागत धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के सूत्रधार इनमें व्याप्त अप्रासंगिक कुरीतियों को त्यागने और मानवीय आधार पर अपनी व्यवस्थाओं को समंजित करने की सोचने लगे थे। पर सत्ताये ंहमेशा अपने अस्तित्व के लिए निहित स्वार्थो से समझौता करके यथा स्थिति बन जाने को अभिशप्त रहती हैं और सत्ताओं के इसी चरित्र के अनुरूप सपा, बसपा और राजद जैसे दलों के परिवर्तनवादी नेताओं ने यथा स्थितिवाद के आगे समर्पण कर दिया। उत्तर प्रदेश में सपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ-साथ पल्लवी पटेल और चन्दशेखर को भी बाया कांग्रेस इंडिया गठबंधन से नहीं जुड़ने दिया तो बिहार में राजद ने पूर्णियां से पप्पू यादव का टिकट कांग्रेस से नहीं होने दिया जबकि अगर पप्पू को टिकट मिलता तो कांग्रेस की यह सीट पक्की हो जाती।
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा तबका देश में हिन्दू आधिपत्य कायम करने के लिए कटिबद्ध रहा है और भाजपा उसकी इस मंशा को हठ धर्मिता की किसी भी सीमा तक जाकर पूरा करने के लिए समर्पित है। इसके चलते सैद्धांतिकता के धरातल पर भाजपा का पलड़ा विपक्ष पर बहुत भारी पड़ रहा है। कांग्रेस की बिडंवना यह है कि राहुल गांधी सामाजिक न्याय के लिए जो जिहादी तेवर अपनाये हुए हैं उनकी प्रमाणिकता को मजबूत करने के लिए वंचित वर्ग के ऐसे नेताओं की टीम का उसमें अभाव है जो राहुल गांधी के सुर में सुर मिलाकर बहुजन को भरोसे में लेेने में मदद कर सकें। ऐसे में राहुल गांधी का अभियान पूरी तरह बांझ साबित हो रहा है। फिर भी विपक्ष मुगालते में है तो इसे आश्चर्यजनक ही कहा जायेगा। चुनावी तस्बीर की सच्चाई यह है कि जनमत एक ओर दिशाहीनता के भंवर में डूब रहा है। दूसरी ओर संसाधनों और धनबल की उपलब्धता से भी भाजपा पूरा चुनावी माहौल कैप्चर करने में सक्षम नजर आ रही है। नतीजतन पूरे आसार हैं कि मोदी सरकार तीसरी बार फिर सत्ता में पहुंचने में सफल हो जायेगी।

 

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