चरखा दांव नेताजी का या अखिलेश का

राजनीति में मुलायम सिंह की बुलंदी के पीछे सबसे बड़ा योगदान उनकी साजिशी प्रतिभा का है लेकिन कोई इसका इतना अभ्यस्त हो सकता है कि अपने प्रिय सुपुत्र पर भी इन दांव-पेंचों के इस्तेमाल से बाज न आये, मुलायम सिंह के बारे में पहले आसानी से यह नहीं सोचा जा सकता था। अपनी विशालता और जनसंख्या बाहुल्य के बावजूद भारत अदने से देशों की गुलामी के लिए यूं ही मजबूर नहीं हुआ। इसके पीछे निश्चित रूप से शहजोरी के आगे नतमस्तक हो जाने की कुदरती विसगंति है। मुलायम सिंह को लेकर अगर भारतीय समाज के इस चरित्र को ध्यान में रखकर आंकलन किया जाये तो बहुत जल्दी स्पष्ट हो जायेगा कि उनके तमाम निकृष्ट हथकंडों में गुण ढूंढने के पीछे भारतीय समाज की इसी कमजोरी का हाथ है। अन्यथा सही बात यह है कि उन्हें राजनीति में जो मुकाम हासिल हुआ उसे भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना ही करार दिया जाना चाहिए।

mulayamसमाजवादी पार्टी आज जिस मोड़ पर है उसमें मुलायम सिंह के अनुज प्रेम और यारों के यार के उनके गुण की बहुत दुहाई दी जा रही है, लेकिन यह बिल्कुल गलत है कि वे शिवपाल और अमर सिंह की वजह से अपने पुत्र के प्रति इतने निर्मोही हो गये हैं। अगर उनमें इतना ही भ्रातृ प्रेम होता तो वे 2012 में विधानसभा चुनाव में पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद शिवपाल को ही मुख्यमंत्री न बना देते। बल्कि हुआ तो यह कि शिवपाल को गच्चा देकर अपने पुत्र को इस कुर्सी पर आसीन करने के लिये उन्होंने बहुत कपट किया था। अमर सिंह को भी वे किसी भी कीमत पर माफ करने के लिये तैयार नहीं थे क्योंकि अमर सिंह ने उनके लिये क्या-क्या नहीं कहा और षड्यंत्र करने में किस सीमा तक नहीं चले गये थे। लेकिन आज वे इन्हीं दोनों के कहे में काम कर रहे हैं तो इसकी वजह उनके घर में इन दोनों द्वारा बनायी गयी अपनी जड़ें हैं। निश्चित रूप से वे अपनी दूसरी पत्नी और उनके पुत्र व सम्बंधियों के हाथ में खेल रहे हैं। जिसके चलते अपने जीवन के आखिरी दौर में उन्होंने अपनी पार्टी और अपने परिवार के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया है।

वर्तमान घटनाक्रम को लेकर मीडिया में यह प्रस्तुतिकरण किया गया कि राजनीतिक दंगल के मंजे हुए पहलवान मुलायम सिंह ने आखिर में अपने बेटे को भी चरखा दांव में उलझा दिया और यह साबित कर दिया कि बाप तो बाप ही होता है इसलिए उसे तो बेटे पर भारी पड़ना ही है। लेकिन हकीकत इसके उलट है। अखिलेश ने मुलायम सिंह की इस सोच को पहले से ही भांप रखा था इसलिये उन्होंने संयम और आज्ञाकारिता की मुद्रा जानबूझ कर साध ली थी ताकि अपने पिता और चाचा को जनमानस के बीच अपनी कुटिलता की वजह से खलनायक के रूप में उजागर कर सकें। अखिलेश इस चाल में कामयाब हुए। टिकट वितरण को लेकर समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह चरम पर पहुंचने के साथ यह स्पष्ट हो गया कि साफ-सुथरे ढंग से चुनाव जीतने के अखिलेश के रास्ते को बेवजह नकारकर मुलायम और शिवपाल विवादित लोगों की उम्मीदवारी इसलिये थोप रहे हैं कि वे आदतन अलोकतांत्रिक और फासिस्ट हैं। दूसरे अखिलेश के हर समर्थक का जिताऊ होते हुए भी पत्ता साफ करने व उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वालों को पुरस्कृत करने की नीयत की वजह से दोनों ने जो कुछ किया वह अखिलेश के साथ बहुत बड़ा अन्याय था।

इस तरह चुनाव परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन उत्तर प्रदेश में जनमानस की जबर्दस्त सहानुभूति के हकदार अखिलेश बन गये हैं। उनकी सरकार तो वैसे भी रिपीट नहीं होने वाली थी लेकिन अब अगर ऐसा होता है तो उन्हें इसमें कोई घाटा नहीं है। अब हार का ठीकरा नेताजी और शिवपाल के सिर फूटेगा। अखिलेश के पास अभी बहुत उम्र पड़ी है और वे उसी हिसाब से अपनी बिसात बिछा रहे हैं। अगले चुनाव तक अगर समाजवादी पार्टी सत्ता में न रही तो नेताजी और शिवपाल सिंह का दौर बीत चुका होगा और अखिलेश एकछत्र नेता रह जाएंगे। इसीलिए इस जंग में अखिलेश का कुछ बिगड़ पाने वाला नहीं है लेकिन आखिरी समय उस पार्टी को जिसके वे जनक थे मटियामेट हो जाने का दर्द मुलायम सिंह को झेलना पड़ेगा।

akhileshअखिलेश की रणनीति यह मालूम पड़ती है कि वे जीत सकने वाली सीटों पर समानांतर प्रत्याशी खड़े करें और साथ में बकाया सीटों के लिए कांग्रेस, जद यू, राजद और रालोद के साथ गठबंधन कर लें। अखिलेश को भरोसा है कि इस गठबंधन का पासा उनकी हार को जीत में भी बदल सकता है इसलिए अखिलेश बेहद आश्वस्त हैं। दूसरी ओर मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह केवल बदले की भावना पर उतारू हैं और इसके लिए आत्मघाती कदम उठाने तक में उन्हें संकोच नहीं हो रहा।

इस बीच कांग्रेस कमजोर हुई है। राहुल गांधी की अनिश्चित मानसिकता को देखते हुए यह कहा जाने लगा है कि किसी भी दिन वे यह कह सकते हैं कि मुझे प्रधानमंत्री बनने के पचड़े में नहीं पड़ना। ममता बनर्जी अड़ियल रुख के लिये बदनाम हो चुकी हैं जिससे राष्ट्रीय पैमाने पर वे स्वीकार्य होने वाली नहीं हैं। नीतीश कुमार भी एक दायरे में सिमट कर रह गये हैं। कैचवर्ड के सहारे सम्मोहन की राजनीति करने वाले पीएम नरेंद्र मोदी की कामयाबी की एक सीमा है। ऐसे में भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर भी अखिलेश आने वाले वर्षों में सबसे ज्यादा ताजगी भरे चेहरे के रूप में उभरने के आसार बन सकते हैं। जरा सोचिये कि जो स्थितियां बनी हैं वे अखिलेश के अनुकूल हैं या नेताजी और उनके खेमे के, अगर उत्तर अखिलेश हैं तो फिर यह कहने की जरूरत नहीं कि बाप का अपना जमाना होता है लेकिन बेटे के जमाने में उसकी प्रासंगिकता चुक ही जाती है।

 

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