समाजवादी पार्टी और साइकिल चुनाव चिन्ह पर पिता-पुत्र की हकदारी की लड़ाई शनिवार को सुनवाई का एक और मौका दिए जाने के बाद भी उलझी हुई है, लेकिन अभी भी इसमें दिलचस्प हालात बने हुए हैं। सस्पेंस का अंत नहीं हो पा रहा है। अखिलेश के द्वारा नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने मुलायम सिंह यादव से लखनऊ में उनके 5 विक्रमादित्य मार्ग स्थित आवास पर मुलाकात की और इसके बाद कुछ देर के लिए वे मीडिया से भी मुखातिब रहे। इस दौरान उनका अंदाज-ए-बयां सस्पेंस को और गहराने वाला था। जब दोनों पक्षों के बीच का द्वंद्व युद्ध के महाभारत सरीखे दौर में पहुंच चुका हो तब उनका मुलायम सिंह के पास जाना और मुलायम सिंह का उनसे मिल लेना और इसके बाद मीडिया से पार्टी के हालातों को लेकर सुखद अंत का आभास दिलाने वाला उनका बयान आखिर इस भूलभुलैया का निष्कर्ष क्या हो सकता है, इस बारे में भले ही अटकल दर अटकल का मंजर हो लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अंदरखाने में कहीं न कहीं कोई समझौता होने की गुंजाइश अभी भी बनी हुई है।
इस पूरे द्वंद्व के विश्लेषण के लिए इसके तमाम प्रसंगों को अलग-अलग खंडों में बांटकर मंथन करना शायद अधिक समीचीन होगा। पहला तो यह है कि अखिलेश ने जब पार्टी में दोफाड़ के हालात बहुत स्पष्ट होकर नहीं उभरे थे, उस समय एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में अपनी परवरिश को लेकर कुछ ऐसी बातें कही थीं जिससे मुलायम सिंह बुरी तरह आहत हो गए थे। अखिलेश की इस इंटरव्यू में कौन सी भावनाओं का प्रकटन हुआ था, इस पर बाद में बहुत ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई। लेकिन उस समय एक-दो दिन यह लगा था कि अखिलेश अपने साथ परिवार में हुए सौतेलेपन को मुद्दा बनाकर पिता को घेरने की फिराक में हैं। इसी दौर में टीवी चैनलों पर एक-दो घंटे यह खबरें प्रसारित हुईं कि सीबीआई रिकॉर्ड में मुलायम सिंह ने यह दर्ज कराया है कि अखिलेश के सौतेले भाई प्रतीक सीधे तौर पर उनके पुत्र न होकर साधना यादव के पूर्व पति चंद्रप्रकाश गुप्ता के पुत्र हैं। टीवी चैनलों पर इस प्रसारण से राजनीतिक भूकम्प की स्थिति बनी रही, लेकिन एक-दो घंटे बाद ही यह समाचार ब्लैकलिस्ट हो गया और इसका कोई फॉलोअप अभी तक किसी चैनल ने नहीं किया है। क्या इस समाचार को रुकवाने के लिए मीडिया को मैनेज किया गया था, इस पर सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
लेकिन कूटनीति हो या अपने पिता के प्रति बेहद लगाव, अखिलेश का मुलायम सिंह के साथ कोई न कोई ऐसा समझौता इस दौरान हुआ जिसके बाद अखिलेश ने प्रतिज्ञा जैसी कर ली कि राजनीतिक लड़ाई में वे पिता के खिलाफ किसी निजी प्रसंग का इस्तेमाल नहीं करेंगे। यह समझौता एकतरफा नहीं था। कहीं न कहीं मुलायम सिंह ने भी इसमें अपने को बांधा इसीलिए उनसे एक बार गफलत में अखिलेश को भी पार्टी से निष्कासित कर देने का ऐलान करने की चूक हो गई थी लेकिन बाद में वे संभल गए और पारिवारिक लड़ाई के चरम पर पहुंच जाने के बाद भी न केवल उन्होंने अखिलेश को पार्टी से निकालने जैसा ऐलान दोबारा नहीं दोहराया बल्कि अभी तक बराबर यह साबित कर रहे हैंं कि अखिलेश उनके प्रिय पुत्र हैं और उनसे हो रही राजनीतिक जंग में पिता-पुत्र का रिश्ता बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होने दिया जा रहा है।
यही नहीं चुनाव आयोग में पार्टी और चुनाव चिन्ह पर हकदारी के लिए पूरी ताकत से लड़ते हुए उन्होंने इसे उनके और अखिलेश के शक्ति परीक्षण के रूप में प्रस्तुत होने से रोकने का पूरा कौशल साधा। उन्होंने यह इंप्रेशन दिया कि उनके इतने अधिक आवेश में आने की वजह यह है कि वे अपने पुत्र को उन पर अविश्वास कर दूर के चाचा को मार्गदर्शक बना लेने से सदमे में हैं। इसे वे रामगोपाल के द्वारा अपने को नीचा दिखाने का षड्यंत्र जाहिर करके पार्टी के लोगों की सहानुभूति जीतने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें समझौते की भी एक खिड़की खुली है कि उनका लक्ष्य केवल रामगोपाल को उनके विश्वासघात के लिए दंडित कराना है। पुत्र के लिए तो वे किसी भी सीमा तक सरेंडर कर सकते हैं। ऐसी हालत में जब यह नजर आ रहा है कि चुनाव आयोग में उन्हें मुंह की खानी पड़ सकती है तो वे पुत्र के साथ हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें ले डूबेंगे का खेल खेलने की बजाय अंतिम क्षणों में सम्मानजनक समझौते के रास्ते की तलाश में हैं।
नरेश उत्तम से मुलाकात और उसमें कहीं न कहीं उनके नरम रहने के पीछे उनकी जो कमजोरी है उसका कारण इसी में निहित है। दूसरी ओर निर्णायक दौर में एक बात और स्पष्ट हुई है कि मुलायम सिंह के पुत्र के प्रति झुकाव में कोई कमी नहीं है लेकिन वे शिवपाल और अमर सिंह के सामने गुनहगार नहीं बनना चाहते। जबकि इन दोनों नेताओं का मकसद किसी कीमत पर अखिलेश को सबक सिखाना है। इसीलिए उनके दृश्य में प्रवेश करते ही मुलायम सिंह मजबूर हो जाते हैं और बनती बात बिगड़ जाती है। मुलायम सिंह इस कशमकश में कब तक रहेंगे, यह एक सवाल है, लेकिन घुटना पेट की ओर ही मुड़ेगा इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
मुलायम सिंह से इतर अखिलेश निजी समीकरणों की बजाय सारी स्थितियों के प्रति पॉलीटिकल नजरिया अपनाये हुए हैं। एक ओर तो उन्होंने यह तय कर लिया है कि वे कांग्रेस और सम्भव हुआ तो रालोद, जद यू व कृष्णा पटेल के नेतृत्व वाले कुछ छोटे दलों के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ेंगे। इसमें मोदी का ग्लैमर तोड़ने के लिए प्रियंका और डिंपल की संयुक्त सभाओं का तड़का वे सबसे मजबूत हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। इसके बावजूद सफलता में कोई कोर-कसर रह जाए तो हंग विधानसभा की हालत में बसपा के साथ समझौते की गुंजाइश उन्होंने नसीमुद्दीन और रामवीर उपाध्याय को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्षमादान दिलाकर पैदा कर दी है।
चुनावी कारणों से मायावती उन पर भी इस समय चाहे कितनी भी हमलावर क्यों न हों, लेकिन दयाशंकर सिंह मामले में अखिलेश ने मुंहबोला भतीजा बनकर उनके साथ जो रिश्ता निभाया उससे मायावती उनके प्रति कहीं न कहीं नरम जरूर हुई हैं। मुलायम सिंह के दौर में बसपा के साथ समाजवादी पार्टी का जिस दुश्मनी का रिश्ता बन गया था और जिसके कभी न संभलने के आसार बन गए थे, उसमें अखिलेश ने निर्णायक तब्दीली की है। ऐसी हालत में अगर अखिलेश अपने नाम पर आगे की स्थितियों में मायावती को भी गठबंधन के लिए राजी कर लें तो इसमें अचम्भा नहीं होगा।
इस पूरी लड़ाई में एक और मुद्दा है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के लिए जातिवाद, साम्प्रदायिकता और बाहुबलियों को लामबंद करने के अलावा जीत का कोई साफ-सुथरा फार्मूला हो सकता है या नहीं। अखिलेश शुरू से विकास के मुद्दे को लेकर बेहद आशावादी हैं क्योंकि उनके मन में कहीं न कहीं यह धारणा बनी हुई है कि 2012 के चुनाव में पार्टी को मुलायम सिंह के प्रति लोगों की आस्था के कारण नहीं लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता वितरण की उनकी लोक-लुभावन योजनाओं की वजह से सफलता मिली थी। जिन योजनाओं को घोषित कराने का श्रेय वे स्वयं के खाते में मानते हैं। इसीलिए उनका दृढ़ विश्वास है कि सरकार के आखिरी दौर में उन्होंने खुलकर बैटिंग करते हुए विकास व कल्याणकारी घोषणाओं के जरिये जो व्यूह रचना की उससे वे निर्विवाद रूप से प्रदेश के सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में उभरे हैं और इस आधार पर कुछ भी हो जाए वे मोदी का जादू पीटकर चुनाव परिणामों में अपनी कुर्सी बचाने में सफल हो जाएंगे।
जमीनी तौर पर देखा जाये तो मायावती ने इस बार मुसलमानों को बहुत ज्यादा टिकट दिए हैं ताकि उनका एकमुश्त वोट बसपा के पाले में खींच सकें लेकिन मुस्लिम समाज में लोगों से बात करिये तो पता चलता है कि उनकी प्राथमिकता में सपा बसपा से कहीं ऊपर है और कांग्रेस का साथ हो जाने पर तो यह पूरी तरह ऊपर हो जाएगी। इससे यह जाहिर होता है कि उम्र कम होते हुए भी अखिलेश नादान नहीं हैं बल्कि अपने पिता से कहीं अधिक दूरंदेशी हैं। अगर मतदाताओं ने उन्हें सफल होने का मौका दिया तो उत्तर प्रदेश में सारे दलों को नसीहत मिलेगी और वे संकीर्ण मुद्दों व गलत हथकंडों की बजाय विकास के नारे को महत्व देंगे जो कि एक बहुत सकारात्मक बदलाव होगा।
मुलायम सिंह को भी इस वास्तविकता का पूरी तरह भान है इसीलिए यह उम्मीद बची हुई है कि निर्वाचन आयोग का चुनाव चिन्ह के बारे में फैसला घोषित होने के पहले वे निजी कुंठाओं से उबरकर आखिर में अखिलेश के आगे सरेंडर कर जाएं। नरेश उत्तम से वार्ता करके उन्होंने अखिलेश को कोई मैसेज देने की कोशिश जरूर की है। जिसके खुलासे के लिए अगले दिन का इंतजार किया जा रहा है।







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