बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश असेंबली के चुनाव में लगभग सौ मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है। मायावती ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ की गणित से यूपी में इस बार फिर अकेले दम पर पूर्ण बहुमत हासिल करने का जो खाका खींचा उसके परवान चढ़ने के बहुत उम्मीद सपा-कांग्रेस महागठबंधन के बाद बचती नजर नहीं आ रही है। शायद मायावती को भी इसका अंदाजा है। नतीजतन वे सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले की परवाह किए बिना मुसलमानों को आक्रामक अंदाज में सम्बोधित करने में लगी हैं। इसके बावजूद उनका खेल जम नहीं पा रहा।
2007 के इलेक्शन में मायावती को मिली कामयाबी के पीछे हर सभा में उनके द्वारा मुलायम सिंह और उनके अनुज शिवपाल सिंह को जेल भेजने की हुंकार थी। तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मुलायम सिंह ने गुंडागर्दी का नंगनाच बंद नहीं किया था, जिससे प्रदेश की जनता में उनके प्रति जबर्दस्त असंतोष था। मायावती ने सरकार बनने के बाद उन्हें जेल भेजने का खम्भ ठोंककर इस असंतोष को भुना लिया था। लेकिन मुलायम सिंह और शिवपाल में से कोई उनकी सरकार में जेल नहीं भेजा गया इससे लोगों में यह भावना घर कर गई कि सारे नेता आपस में चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह हैं। सो चुनावी लाभ के लिए वे कुछ भी बकें पर एक-दूसरे का अहित नहीं कर सकते।
मायावती को चुनने की सबसे मुख्य वजह के इस तरह समापन से 2012 के चुनाव का रिजल्ट बदल गया और युवाओं ने सपा के लिए गुस्सा भूलकर लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता हासिल करने के लिए साइकिल चुनाव चिन्ह का बटन बढ-चढ़कर दबाया। इस चुनाव में सपा को जो सफलता मिली उसका अंदाजा खुद मुलायम सिंह को नहीं था। इस कारण उन्होंने मांग से ज्यादा बड़ा वरदान मिलने के बाद अपने जीते जी बेटे को राजनीति में मजबूती से स्थापित करने की ठान ली। पारिवारिक स्तर पर अपनी इस इच्छा को लागू करना उनके लिए आसान नहीं रहा लेकिन उन्होंने सधे हुए डिप्लोमेटिक पैंतरे से सारी मुश्किलें पार करके अंततोगत्वा अखिलेश को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा ही दी। भले ही इससे परिवार और पार्टी के सीनियर ठगे से रह गये हों।
लेकिन शुरू में अखिलेश को बतौर मुख्यमंत्री शोपीस साबित करने की चेष्टाएं की गईं। अपनी फितरत के मुताबिक मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह ने उनके मुख्यमंत्रित्व के चार साल में सत्ता बंदूक की नली से चलती और निकलती है के मंत्र पर ही अमल जारी रखा, लेकिन नये चुनाव का वक्त आने तक अखिलेश मास्टरस्ट्रोक खेलने की मुद्रा जो अख्तियार की तो मंजर बदल गया। पंचायत चुनाव में हुई गुंडागर्दी और सत्ता के दुरुपयोग के किस्से लोगों के जेहन से उनके मास्टरस्ट्रोक के चलते गायब होते गये। अखिलेश की शालीन और मंजी हुई भाषणशैली की चर्चा आज प्रदेश भर में छाई हुई है। किसी समय एनडी तिवारी के लिए विकास पुरुष का एडजेक्टिव ईजाद किया गया था लेकिन आज अखिलेश के विजन में लोग इसका सही अर्थ देख रहे हैं।
जाहिर है कि इसके बाद सपा के आतंकराज से राहत के नाम पर मायावती की ओर देखने का कोई औचित्य प्रदेश की निरीह जनता के लिए नहीं बचा है। चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर के नारे को बदले माहौल ने बेमानी बना दिया है और इसके चलते बसपा का आकर्षण बहुत हद तक चुक जाना लाजिमी है।
दलित-मुस्लिम गठजोड़ से सत्ता का समीकरण बनाने की चेष्टाएं नई नहीं हैं। जनता पार्टी के समय हाजी मस्तान जैसे बदनाम लोगों ने यह समीकरण आगे करके राजनीति में बड़ी कामयाबी की गोटें फिट करनी चाही थीं, लेकिन उन्हें निराशा हाथ में लगी। इसके बावजूद मायावती इस दगे कारतूस को इस्तेमाल करके विक्ट्री हासिल करना चाहती हैं। उनके दलित-मुस्लिम एकता के नारे के पीछे कोई राजनीतिक दृष्टिकोण नजर नहीं आता। बहुजन आंदोलन को संख्याओं का खेल बनाकर राजनीति में बहुत दूरी तय नहीं की जा सकती, इसका अहसास तो कांशीराम के समय ही हो गया था। विधानसभा के नये चुनाव के परिणाम एक बार फिर इसका सबक देंगे।
बसपा के आंदोलन का क्रेज सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई की चमक के चलते था। लेकिन इसमें जो वर्गशत्रु चिन्हित थे उन्हीं के साथ पावर शेयरिंग के जिस रास्ते को मायावती ने चुना उसके बाद आंदोलन की सार्थकता और प्रासंगिकता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया। दलितों की तरह मुसलमानों का भी वर्ण व्यवस्था में कोई निहित स्वार्थ नहीं है इसलिए वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हर राजनीतिक धारा में वे स्वाभाविक तौर से जुड़ जाते हैं। बहुजन आंदोलन की शुरुआत में पसमांदा मुसलमान बसपा से इसी रुझान के चलते बहुत तेजी से जुड़े थे। आज बसपा का मकसद केवल मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की जोर तक सीमित रह गया है। जिसके चलते यह पार्टी वर्ण व्यवस्था से हाथ मिला चुकी है।
मायावती को सबसे ज्यादा गुरूर इस बात पर है कि कानून व्यवस्था के मामले में उनका कोई सानी नहीं समझा जा रहा है, लेकिन मायावती को यह समझना चाहिए कि शोषित-पीड़ित वर्ग मानता है कि वर्ण व्यवस्था में न कोई कानून है और न व्यवस्था। ऐसे में कानून व्यवस्था का बहुत दूरगामी निर्वहन कैसे हो सकता है जब वर्ण व्यस्था पर प्रहार न किया जाये। इस मामले में मायावती के पक्षद्रोह रवैये ने उनके प्रति मोहभंग की जो लहर पैदा की है मुसलमान उससे अछूते नहीं हैं। यूपी विधानसभा के चुनाव सर्वे अगर बसपा को बहुत पीछे ठहरा रहे हैं तो इस संदर्भ में यह कोई दुराग्रह नहीं यथार्थ सम्मत आंकलन प्रतीत होता है।







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