मोहन भागवत ने लीक से हटकर बयान के जरिये भाजपा के कट्टरपंथियों को कैसे दिखाया आईना ?

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों बैतूल में एक कार्यक्रम में यह बयान दिया कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर कोई हिंदू है भले ही वह मुसलमान हो। यह बयान दोतरफा हलचलें पैदा करेगा। हिंदुओं का कट्टरपंथी तबका इस बयान का बेस लेकर मुसलमानों को इस बात के लिए बाध्य करने पर अपना जोर बढ़ा सकता है कि वे हिंदुओं के अवतारों को अपने पुरखे होने के नाते उसी तरह पूज्य मानें जैसे हिंदू मानते हैं। भले ही उनका ऐसा करना इस्लाम की बुतपरस्ती के खिलाफ बुनियादी अवधारणा से परे हो। दूसरी ओर अंदेशे से घिरे कुछ मुस्लिम दानिशमंद इससे भड़क सकते हैं। उन्हें मोहन भागवत के बयान में मुसलमानों पर हिंदुत्व आरोपित करने की बू महसूस हो सकती है। इस मामले में वस्तुपरक होने की जरूरत है। लेकिन पूर्वाग्रह और दुराग्रह की गुलाम भारतीय कौमों का सोचने का फलक बहुत व्यापक नहीं हो सकता जो उनके दुर्भाग्य की वजह बन गया है।

mohan-bhagwatआरएसएस की पहचान मुस्लिम अस्मिता को मिटा डालने वाले संगठन के रूप में बनी हुई है। जिसकी वजह से उसकी हर बयान को शंका की निगाह से देखा जाना लाजिमी है। ऐसे में किसी आरएसएस नेता का निर्मल बयान भी मुसलमानों के लिए शक की निगाह से देखने का कारण बन जाता है। मोहन भागवत का रिकार्ड इस मामले में कोई इतना ज्यादा अलग नहीं है कि मुसलमान उनके बयान में नकारात्मक पहलू देखने की गुस्ताखी न करें। मोहन भागवत ने तो मुसलमान क्या हिंदुओं के ही दबे-कुचले तबके के हितों को लेकर अपनी दुर्भावना झलकाने की चूक की है। बिहार विधानसभा चुनाव के समय आरक्षण के विरोध में उनका बयान इसका उदाहरण है, जिसकी वजह से भाजपा को बिहार में थाली में परोसी सत्ता से महरूम हो जाना पड़ा था।

कोई भी व्यक्ति कितनी भी बड़ी शख्सियत क्यों न हो, लेकिन परिस्थितियां और परिवेश उसे  बदलने को मजबूर करती हैं। अगर किसी व्यक्ति में सत्य के अनुसंधान की इच्छा है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। 1927 में लाहौर में संतराम बीए द्वारा आयोजित जाति-पात तोड़क अधिवेशन के लिए बाबा साहब अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित थे लेकिन रूढ़वादी हिंदुओं के विरोध की वजह से संतराम बीए को यह इरादा स्थगित करना पड़ा। इस अधिवेशन के लिए बाबा साहब ने जो भाषण तैयार कराया था उसे उन्होंने अपने खर्चे से छपवा कर दो-दो पैसे में बिक्री के वितरित करा दिया। इसे लेकर भड़के महात्मा गांधी ने वर्ण व्यवस्था का जमकर महिमामंडन किया। बाबा साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन 1945 आते-आते तक महात्मा गांधी पूरी तरह बदल चुके थे। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को गलत कहना शुरू कर दिया था और किसी शादी में शामिल होने के लिए यह शर्त रख दी थी कि उनकी उपस्थिति तभी सम्भव हो पाएगी जब अंतर्जातीय विवाह कराया जा रहा हो। महात्मा गांधी के माइंडसेट में क्रांतिकारी बदलाव की यह कहानी बहुत कुछ कह जाती है। मोहन भागवत भी जब तक द्वंद्वात्मकता का सामना करने का अवसर न पा सके हों तब तक हो सकता है कि इसके कारण उनके विचार बहुत एकतरफा रहे हों, लेकिन अगर उनकी समझदारी में अनुभवों के आधार पर वैचारिक ईमानदारी के कारण परिवर्तन आया है तो यह स्वागत योग्य होना चाहिए।

mohan2यथार्थ यह है कि भूगोल और नस्ल के आधार पर हर समाज की जो पहचान होती है वह ज्यादा वास्तविक रहती है। धर्म बदल जाने से इसीलिए उस समाज की आदतें और व्यवहार नहीं बदल पाता। भूगोल और नस्ल की पहचान मौलिक होने का तजुर्बा इस बात से किया जा सकता है कि  भारतीय मुसलमान इस्लाम की दीक्षा लेने के बावजूद उन रीति-रिवाजों को नहीं भूल सके जो इस्लाम में सहन नहीं होने चाहिए। दुनिया के किसी भी हिस्से में भारतीय उप महाद्वीप के मुसलमानों को छोड़कर कोई ताजिये नहीं बनाता क्योंकि ताजिया भक्ति बुतपरस्ती का ही एक नमूना है। फकीरों और दरवेशों की दरगाह पर मन्नतें मांगना यह भी इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों के खिलाफ है। ऐसी अनगिनत बाते हैं जो चल रही हैं। भारत में इस अद्भुत इस्लाम को कोई काफिराना नहीं ठहराता।

यही नहीं भारतीय मुसलमान कमोवेश हिंदुओं की तरह ही जातियों में बंटे हुए हैं। पूरे इस्लामिक विश्व के लिए यह व्यवहार बहुत अनोखा हो सकता है। इसलिए अगर कोई यह कहे कि कलमा पढ़ने के बाद भारतीय मुसलमान यहां की किसी चीज में हकदार नहीं रह गये तो उनसे ज्यादा कोई मक्कार नहीं है। भारतीय मुसलमान अत्यंत विशिष्ट हैं और दुनिया के किसी अन्य मुस्लिम समुदाय के साथ वे खप नहीं सकते। दूसरे उन्होंने कोई भी धर्म स्वीकार कर लिया हो लेकिन हिंदुस्तान में उनका पुश्तैनी हक है। जिसे वे अगर मांगते हैं तो उस हक को झुठलाया नहीं जा सकता।

मोहन भागवत के बयान ने एक दिशा दी है कि लोग इस हकीकत को स्वीकार करें। भारतीय मुसलमान भी हिंदू हैं, इसका तात्पर्य यह है कि धर्म बदल जाने के बावजूद वे इस देश की हर चीज पर बराबर का अधिकार रखते हैं। दूसरे किसी धर्म को अपनाना उनका मौलिक अधिकार है लेकिन इस वजह से उन्हें देश में प्राप्त किसी भी पुश्तैनी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। समस्या यह पैदा हो रही है कि जबसे केंद्र में मोदी की सरकार बनी है तबसे यह प्रयास घोषित-अघोषित रूप से हो रहा है कि हिंदुस्तानी मुसलमान कलमा पढ़ने में अपनी गलती को स्वीकार करें और इस कुफ्र के नाते कुछ दशकों तक वे इस अंचल में किसी भी दावेदारी का इरादा छोड़ दें। लेकिन यह डिमांड एकदम अनैतिक और अप्राकृतिक है।

mohan-3भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया जबकि आधुनिक राजनीतिक शास्त्र में किसी भी देश की सेहत के लिए उसके एक वर्ग को व्यवस्था में भागीदारी देने से घोषित-अघोषित रूप में इंकार किया जाना खतरनाक माना गया है। मोहन भागवत के बयान से इसमें क्या कुछ बदलाव आ सकता है, यह एक अहम प्रश्न है। इस्लाम और मुसलमान विकास और प्रगति के मामले में देश के लिए कोई समस्या नहीं हैं बल्कि हकीकत यह है कि जब तक मुसलमानों को दबाकर रखने की लालसा में ऊर्जा खर्च की जाएगी तब तक यह देश अपने उत्थान के लिए बहुत मजबूत अवसरों को खोता रहेगा इसलिए मोहन भागवत के बयान को समझो और मानो।

मुसलमानों को हिंदू बनने के लिए बाध्य करने की मूर्खता छोड़कर सभी को अपनी-अपनी आस्था के मुताबिक कार्य करने का अवसर देते हुए देश की भौतिक परिस्थिति को संवारने का सबकी भागीदारी से खाका खींचा जाना चाहिए। मुसलमानों के लिए भी यह जरूरी होगा कि वे मोहन भागवत के बयान से भडकें नहीं बल्कि इस बयान का सहर्ष स्वागत करें। राष्ट्रीयता के संदर्भ में उऩ्हें 24 कैरट का मुसलमान रहते हुए अपने को हिंदू घोषित करने से कोई हर्जा नहीं होगा। उनके मुसलमानपना में इससे एक पर्सेंट का खोट नहीं आएगा। क्या मोहन भागवत अपने बयान की इस व्यापकता और विराटता के अनुकूल भारतीय समाज को ढालने में अनुकूल सहयोग देने को तत्पर हैं। उन्हें यह बात प्रमाणित करनी होगी और अगर वे इसमें कामयाब रहते हैं तो उन्हें इतिहासपुरुष का दर्जा सटीक तौर पर मिल सकता है, इसमें कोई दोराय नहीं है।

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