पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं जिसको लेकर राजनैतिक माहौल सरगर्म है। इन राज्यों में यूपी भी शामिल है जो दुनिया के कई देशों से भी बड़ा सूबा है। हिंदुस्तान में भी सियासी मंच पर यूपी सबसे भारी है। लोकसभा में उसके सांसदों की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा होती है। 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी को स्पष्ट बहुमत मिलेगा, इसका विश्वास उऩकी पार्टी तक के लोगों को नहीं था इसलिए नरेंद्र मोदी पीएम का चेहरा भले ही घोषित हो गये थे लेकिन भाजपा के अन्य तिकड़मबाज नेता हंग पार्लियामेंट के अनुमान की वजह से पीएम पद पर खुद के लिए दांत गड़ाये हुए थे। गुजरात दंगों को लेकर गठबंधन की हालत में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता सम्भव न होने के आसार थे इसलिए दूसरे नेता जाल बिछाये थे कि जादुई बहुमत के आंकड़े को छूने के लिए गठबंधन को सम्भव करने की दृष्टि से संघ द्वारा भी उऩ्हें आगे लाया जाए इसकी भूमिका वे लिखें। यह दूसरी बात है कि इसकी नौबत नहीं आयी।
मुजफ्फरनगर और समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगों पर राज्य सरकार ने जो रुख अपनाया उससे मुसलमानों का तो कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन हिंदू मतों का ध्रुवीकरण भाजपा की ओर जबर्दस्त हो गया जिससे सारे अनुमानों को धता बताकर भाजपा ने अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लिया और नरेंद्र मोदी निर्विघ्न प्रधानमंत्री बन गये।
अब यूपी में राज्य के चुनाव हैं। यूपी की अहमियत को देखते हुए यह चुनाव सीमित असर वाले करार नहीं दिये जा सकते इसलिए इन चुनावों में राष्ट्रीय चुनाव जैसा जोर अाजमाया जा रहा है। यूपी के चुनाव की इसी अहमियत के चलते नरेंद्र मोदी का संतुलन तक राजनीतिक सूझबूझ के मामलों में डगमगा गया। उन्होंने कन्नौज के गुरसहायगंज की रैली में जो भाषण दिया वह प्रधानमंत्री पद की गरिमा से काफी निकृष्ट स्तर का भाषण था, जिससे कई लोगों को जो मोदी में देश की बेहतरी के लिए सम्भावनाएं देखते हैं, उन्हें तक को सदमा लगा। इसके पहले कभी यह परम्परा नहीं रही है कि पीएम चुनावी रैलियों में व्यक्तिगत किस्म के मुद्दे उठायेंगे। मोदी ने यूपी के चुनाव को जीतने की कठिन चुनौती से पार पाने में सफल होने के लिए जैसे आपा खो दिया है। गुरसहायगंज में उनका भाषण बहुत निराश करने वाला रहा।
मोदी की तरह ही इंदिरा गांधी मोदी से बहुत ज्यादा अधिनायकतावादी रुख रखती थीं लेकिन वे अपने भाषण या किसी और तरह के कथन में ऊंचाई में कोई कमी नहीं आने देती थीं। इंदिरा गांधी ने विपक्षी नेताओं पर निजी कमेंट किए हों, यह तो बहुत दूर की बात है उन्होंने तो दूसरे दलों के नेताओं का नाम तक लेने से परहेज किया लेकिन मोदी ने पद के बड़प्पन के तकाजे को भूलकर अखिलेश पर निजी वार किया। उन्होंने 1984 में मुलायम सिंह के साथ हुई घटना को ताजा करते हुए अखिलेश को धिक्कारा कि वे अपने ही पिता की हत्या का मंसूबा रखने वालों से मिल गये हैं। क्या पीएम के भाषण में इस तरह की बात आनी चाहिए थी।
कांग्रेस के जमाने में मुलायम सिंह की दुश्मनी बलराम सिंह यादव से चलती थी। अन्य कांग्रेसी नेताओं से तो उनके बहुत मधुर सम्बंध थे। गहराई से पड़ताल करने पर मालूम होता है कि यूपी में कांग्रेस की सरकार के मुखियाओं से तो उनका दलाली का रिश्ता था। जब नारायणदत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे तो उनसे मिलकर वे उन्हें हटाकर खुद मुख्यमंत्री बनने का मंसूबा पालने वाले वीरबहादुर जैसे नेताओं की घेराबंदी उस मैटेरियल से करते थे जो कांग्रेसी सीएम द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाते थे। बाद में वीरबहादुर उनका इस्तेमाल नारायणदत्त तिवारी के खिलाफ करने लगे। कांग्रेसी नेताओं की इस लड़ाई में अपने लोगों के काम कराकर और खुद के निजी लाभ के कामों को सफल बनाने के मौके खूब भुनाते रहे। इसीलिए उनके पास पैसा बढ़ा और दबदबा भी। लेन-देन का इतना मजबूत रिश्ता बाद में मुलायम सिंह ने कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बनाया कि बलराम सिंह के खिलाफ उन्हीं की सरकार में कार्रवाइयां होने लगीं।
एक समय ऐसा भी आया जब बलराम सिंह यादव मुलायम सिंह के शरणागत हो गये। 1980 या 1984 की किसी स्मृति की वजह से मुलायम सिंह ने बलराम यादव को उपेक्षा महसूस नहीं होने दी। उनकी मौत मुलायम सिंह के कृपापात्र के बतौर हुई। जाहिर है कि मुलायम सिंह खुद ही कांग्रेस के अपने दुश्मनों के कायल कभी के बन चुके थे। ऐसे में अखिलेश ने अपने पिता के दुश्मनों से हाथ मिला लिया है, इस उलाहने का कोई औचित्य नहीं रह गया था। दुश्मनी के जिस चैप्टर को मुलायम सिंह ने खुद ही बंद कर दिया था उसकी तोहमत अखिलेश पर कैसे मढ़ी जा सकती है। मुलायम सिंह तो इस बीच कांग्रेसियों के सहयोग और आशीर्वाद से लंगड़ी सरकार भी चला चुके थे। आज तक परमाणु न्यूक्यिलयर डील से लेकर हर संकटकालीन परिस्थिति में मुलायम सिंह ने कांग्रेस का साथ दिया। भले ही उन्होंने इसकी भरपूर कीमत ली हो।
इस तरह कांग्रेस के साथ मुलायम सिंह की तथाकथित दुश्मनी की बात की कोई रेलीवेन्सी है नहीं। मुलायम सिंह को भी अखिलेश द्वारा कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को लेकर कोई कसक नहीं है। इस मामले में उन्होंने एतराज का कुछ दफा जो नाटक किया उसका मकसद केवल किसी न किसी बहाने से अपने अनुज शिवपाल को संतुष्ट करने के लिए अखिलेश पर गुस्सा दिखाना भर था। सही बात तो यह है कि अगर ऐसे कारणों से राजनीतिक दोस्ती करने को लेकर आपत्तियां उठाई जानी चाहिए तो सबसे पहले लोगों को मोदी पर सबसे बड़ी आपत्ति हो जाएगी। मोदी भाजपा के शीर्ष नेता होने के नाते अव्वल दर्जे के रामभक्त हैं। दूसरी ओर मुलायम सिंह क्या हैं, जिनके कार्यकाल में रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे के नारे लगा रहे कारसेवकों पर गोलियां चलवा दी गई थीं। रामभक्तों का संहार कराने के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोषी के साथ तो हिंदू धर्म के जज्बाती विधान में असल धार्मिक आदमी को पानी पीने तक का सम्बंध नहीं रखना चाहिए। लेकिन मोदी तो कारसेवकों पर गोलीकांड की याद भूलकर मुलायम सिंह को महिमामंडित करने के लिए उनके पौत्र की शादी में सारे प्रोटोकॉल एक किनारे कर सैफई चले गए थे। क्या उन्हें खुद इस कारगुजारी पर कोई रंज नहीं है। अगर वे असल रामभक्त हों तो कायदे से तो उन्हें इसके लिए इतना बड़ा पापबोध हो सकता है कि वे इससे मुक्ति के लिए पद छोड़कर शेष जीवन गंगा तट पर संन्यासी रहने में निकालने की तैयारी कर लें। लेकिन सियासी मामलों में इतनी कट्टरता सम्भव नहीं है तो फिर अखिलेश द्वारा कांग्रेस से गठबंधन को उन्हें अपने भाषण की विषयवस्तु कदापि नहीं बनाना चाहिए था।
इसी बीच कांग्रेस की बिहार से सांसद रंजीत रंजन ने लोकसभा में एक विधेयक पेश किया है जिसमें शादियों के खर्च पर लगाम लगाने और मेहमानों व व्यंजन की लिमिट तय करने का प्रस्ताव है। एक अवधारणा है कि राजनीति के माध्यम से बहुत बड़े परिवर्तन कानून बनाकर अंजाम देना सम्भव नहीं है इसलिए सामाजिक मुद्दे भी राजनीतिक एजेंडा में आते रहना चाहिए। ताकि लोगों का माइंडसेट बदलती सामाजिक संरचना के अनुरूप ढाला जा सके। इसके बाद नये परिवर्तनों के अनुकूल राजनैतिक प्रयास ज्यादा फलदायी रहेंगे। इमरजेंसी की बहुत आलोचना होती है लेकिन इमरजेंसी के कई रचनात्मक आयाम रहे पर इस पर व्यापक चर्चा बाद में करेंगे। यहां केवल इतना स्मरण दिलाना है कि इमरजेंसी में सामाजिक मुद्दों को राजनीतिक एजेंडे के केंद्रबिंदु में लाया गया था। संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम में वृक्षारोपण, दहेज रहित शादियां, परिवार नियोजन और श्रमदान जैसे गैर परम्परागत राजनीतिक मुद्दे शामिल किये गये थे और जिन पर अभियान छेड़ा गया था। इमरजेंसी के तत्काल बाद तो इमरजेंसी के साथ-साथ संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम की भी काफी छीलालेदर की गई लेकिन बाद में यह कहा जाने लगा कि संजय गांधी के कार्यक्रम दमदार थे और उन पर अमल जारी रहता तो देश की राजनीतिक व्यवस्था में भी गुणात्मक परिवर्तन आ जाता।
आज राजनीति में गैर परम्परागत सामाजिक मुद्दों की बहुत जरूरत है। पांच राज्यों के चुनाव में घिसे-पिटे मुद्दों पर घोषणापत्र बनाये और सुनाये जा रहे हैं। दूसरी ओर सामाजिक प्रणाली और रीति-रिवाजों में ऐसी विसंगतियां घर कर रही हैं जिनसे बड़े नुकसान हैं और राजनीतिक व्यवस्था भी उनके दुष्परिणामों से अछूती नहीं है। लेकिन वह चुनाव में चर्चा का विषय नहीं बन पाते। हर शादी में हजारों लोगों को न्योतने का रिवाज कुरीति का एक उदाहरण है। धीरे-धीरे कन्याभोज कराने वाले इस देश में कन्याओं को शादी समारोह में वेटर की जिम्मेदारी देकर यौन शुचिता के माहौल की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। शादियों में बढ़ती फिजूलखर्ची से क्या नुकसान है, इस पर एक पूरा लेख लिखा जा सकता है। इसी मौके पर रंजीत रंजन का विधेयक सामने आया है। उम्मीद है कि इस पर व्यापक चर्चा होगी। दिखावे में बड़ों की फिजूलखर्ची भरी शादी के कारण गरीबों को जो मुसीबतें इज्जत बनाये रखने के नाम पर झेलनी पड़ रही हैं वे बहुत ही कठिन हैं लेकिन उन पर चर्चा नहीं हो रही।
रंजीत रंजन ने विधेयक पेश करके इस मामले में चर्चा का द्वार खोला है। कन्याओं से शादी समारोह में वेटर का काम लेने पर भी देर-सवेर बहस छिड़ेगी। क्योंकि यह न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से गलत है बल्कि सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से भी इसे सहन नहीं किया जा सकता। इस तरह के कई और मुद्दे सोचे जा सकते हैं। पर्यावरण से लेकर जल संरक्षण तक के मुद्दे चुनाव में केंद्रबिंदु बनाने की जिद ठानी जा सकती है। उम्मीद है कि रंजीत रंजन की पहल इस मामले में एक नया रंग लायेगी और मुद्दों के नाम पर संकीर्ण चौखटबंदी में कैद भारत का राजनैतिक तंत्र सामाजिक, रचनात्मक मुद्दों पर अभिनव पहल को प्रेरित हो सकेगा।







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