बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए यूपी विधानसभा का वर्तमान चुनाव जीवन-मरण की लड़ाई की तरह बना हुआ है। पंचायत चुनावों के समय जब शिवपाल यादव अखिलेश सरकार के मेंटर की हैसियत में थे। जो कारनामे हुए उनसे लोग पनाह मांग गये थे। भाजपा में जुझारूपन कभी रहा नहीं इसलिए लोगों को उससे बहुत उम्मीदें भी नहीं थीं। यह भी चर्चाएं काफी जोर पकड़ती रही हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को सैफई परिवार की जो लोकसभा सीटें हाथ लग गई थीं वे भी खिसक जातीं अगर भाजपा में राजनाथ सिंह जैसे नेता आगे के समीकरणों के लिए मुलायम सिंह पर मेहरबानी न करते। भाजपा नेताओं की इस साख के चलते लोगों को लगने लगा था कि सपा के आतंकराज से कोई मुक्ति दिला सकता है तो केवल मायावती, इसलिए बड़ा जनमत फिर से बहिनजी के शरणागत होने लगा था। लेकिन सैफई परिवार में जो अंदरूनी जंग छिड़ी उसमें अखिलेश द्वारा दिखाए गए तेवरों से यह धारणा बनती गई कि वे मुलायम खानदान में अलग किस्म के चिराग हैं। राहुल गांधी पर भी अति नाटकीय मुद्रा अख्तियार करने, बचकानेपन और किसी मामले की गम्भीर समझ न होने के आरोप चस्पा होते रहे हों लेकिन लोगों की निगाह में उऩकी इमेज भी कुल मिलाकर भले युवा की है। इसलिये अखिलेश और उनका मिलन हुआ तो भद्रलोक के लिए वे आकर्षण के ऐसे केंद्र बने कि मायावती की बढ़ती स्वीकार्यता अचानक जमीन पकड़ गई।
मायावती में कभी संघर्ष क्षमता थी। कांशीराम युग में जब हरिद्वार के उप चुनाव में उनके साथ पक्षपात हुआ तो उन्होंने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सत्ता के केंद्रों को हिलाकर रख दिया था। कांशीराम शायद उस समय के उनके तेवरों की वजह से ही उनके इतने मुरीद हो गये कि उन्होंने तमाम जोखिम दिखाई देने के बावजूद तुनकमिजाज मायावती को बहुजन समाज पार्टी हवाले कर दी और इस मामले में बहुत नजदीक और विश्वसनीय लोगों तक की उन्होंने न केवल एक नहीं सुनी बल्कि उन्हें दंडित भी कर डाला। लेकिन उप चुनावों को न लड़ने का मायावती का फैसला और इसके पहले पंचायत चुनाव में भी किनारा कर जाने के चलते उनकी इमेज को धक्का पहुंचाने वाला रहा। लोग यह मानने लगे कि मायावती से किसी लड़ाई में मैदान में पहुंचकर मदद की उम्मीद बेकार है। जातिगत और साम्प्रदायिक जोड़तोड़ की सुविधाभोगी राजनीति के सहारे मंजिल पाने का ख्वाब देखने की उऩकी छवि स्थापित हो जाने से लोगों का उन पर भरोसा टूटा।
ऐसे में जब अखिलेश ने अपने को साफ-सुथरी व्यवस्था देने के मामले में विकल्प के रूप में स्थापित कर लिया तो जिन लोगों की राजनीतिक दुकानदारी को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ उनमें मायावती का नाम सबसे ऊपर लिया जा सकता है। मायावती ने भी अपने प्रति बन रही गलत धारणाओं को बदलने की बजाय गणितीय मामले के तहत पार्टी में मुस्लिम टिकटों को बढ़ाकर उनको और ज्यादा पुष्ट किया। आज बहुजन समाज पार्टी की स्थिति बहुत ही विडम्बनापूर्ण है। मायावती के भाषण का केवल एक ही सार है कि उन्होंने ज्यादा मुसलमानों को टिकट दिए हैं इसलिए मुसलमान उनको समर्थन दें। दूसरा मुसलमान अगर सपा-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन देंगे तो वे भाजपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से नहीं रोक पाएंगे क्योंकि सपा में परिवार के आंतरिक झगड़े की वजह से आपस में एक-दूसरे को हराने का काम हो रहा है जिससे गठबंधन इतना पीछे हो गया है कि मुसलमानों का वोट उनके साथ बेकार हो जाएगा और भाजपा की ही सरकार बन जाएगी।
राजनीति में जनसमर्थन अंकगणित और बीजगणित के नंगे खेल से नहीं जुटता, मायावती को इसकी समझ नहीं है। मायावती ने एक समय गुजरात में नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव प्रचार किया था जबकि उन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं थी। मुसलमानों को उनके कदम से इतनी बड़ी ठेस लगी थी कि आज भी उसकी भरपाई वे अपने मन में महसूस नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने नीतिगत तौर पर मुसलमानों को आश्वस्त करने की कोई बात नहीं कही है इसलिए अगर मुसलमान उनका भरोसा नहीं कर पा रहे तो यह लाजिमी ही है। मायावती के लिए मुसलमानों का यह रुख बहुत बड़ी बौखलाहट का कारण बन गया है जिसके चलते वे एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं, जैसी गलती करती जा रही हैं।
मुसलमानों को रिझाने की व्यग्रता में उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहता कि उनके उम्मीदवार कौन हैं और उनके निजी वोट बैंक पर इसका क्या असर होगा। वे कई जगह गईं जहां उनकी पार्टी का कोई उम्मीदवार मुसलमान नहीं था। उन्होंने जनरल कास्ट को बढ़-चढ़कर टिकट दिए हैं और यह काम ओबीसी की कीमत पर किया गया है इसलिए ओबीसी बसपा से पूरी तरह छिटक गये हैं। सारा दारोमदार इस पर रह गया है कि बसपा के बेस वोट के साथ बल्क में मुसलमान जुड़ें और उसके बाद कैंडीडेट की अपनी जाति का वोट बसपा के पाले में आ जाये, लेकिन जनरल कास्ट के उम्मीदवार के क्षेत्र में जब वे कहती हैं कि भाजपा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामियां मिलिया का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म करना चाहती है जिसे वे नहीं होने देंगी तो उनके कैंडीडेट के वोटों की निजी पूंजी लुट जाती है। नीलामी की प्रथा के चलते जनरल कास्ट के उनके उम्मीदवार वे लोग हैं जिनका वायुमंडल मुसलमानों के हक में कुछ भी करने को तुष्टिकरण मानकर हिकारत जताने का है। मुसलमानों के प्रति जलन की भावना से भरे उनके कैंडीडेट के निजी वोट बैंक का मायावती के इन भाषणों के बाद बिदकना लाजिमी है। कई जगह जहां मायावती ने सभा की ऐसे ही कारणों से जनरल कास्ट के उनके उम्मीदवारों को ताकत मिलने की बजाय उनका भट्टा बैठ गया।
आरक्षण का मुद्दा भी इसी तरह उनके लिए एक समस्या बन गया है। उन्होंने टिकट तो ज्यादा दिए हैं जनरल कास्ट को जबकि उनका भाषण लोगों को यह सचेत करने के लिए होता है कि भाजपा को न रोका गया तो आरक्षण खत्म हो जायेगा। क्या बहिनजी को यह पता नहीं है कि उनके कैंडीडेट के बिरादरी के लोग और रिश्तेदार आरक्षण की व्यवस्था से कितनी नफरत करते हैं। इसलिए उनके बीच आरक्षण के लिए प्रतिबद्धता दिखाने का भाषण उनके कैंडीडेट को अपनों में ही अलग-थलग कर देगा। इन राजनीतिक नादानियों की वजह से मायावती विधानसभा के चुनाव में लगातार पिछड़ती जा रही हैं। उन्हें खुद भी इसका अंदाजा भलीभांति हो रहा है लेकिन रणनीति बदलने की बजाय वे इसके चलते और ज्यादा गलतियां करती जा रही हैं।
यूपी विधानसभा का यह चुनाव इस बात को साबित करता जा रहा है कि किसी भी पार्टी को अपना वजूद बनाये रखने के लिए न्यूनतम सैद्धांतिक धरातल तय करना होगा। अगर मायावती आरक्षण की व्यवस्था के लिए वफादार हैं तो उन्हें चाहिए था कि वे जनरल कास्ट को केवल उन्हीं जगह पर टिकट देतीं जहां पर यह बहुत आवश्यक होता। दूसरे जनरल कास्ट में उन लोगों को बसपा का उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए था जो कि स्वतःस्फूर्त बहुजन लाइन के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखते हों इसलिए उनमें और उनके समर्थकों में मुसलमानों के प्रति जलन जैसी चीज न हो। लेकिन जब ऊंची बोली मायावती की पार्टी में निर्णायक तत्व है तो ऐसा एहतियात बरता जाना कैसे सम्भव हो सकता था। इसलिए मायावती भले ही कहें कि चुनावी सर्वे प्रायोजित हैं और ऐसे सर्वे जातिवादी पूर्वाग्रह के कारण झूठ फैलाने के लिए प्रचारित किए जा रहे हैं लेकिन सही बात यह है कि अपने लिए विरोधाभासों का जाल उन्होंने खुद बुना है जिसके जोखिम से उन्हें दो-चार होना ही पड़ेगा।







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