क्या प्रधानमंत्री को इतना लोकलाइज बनना चाहिए ?

उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा क्षेत्रों के लिए सात चरणों में मतदान की व्यवस्था है। इनमें तीन चरण हो चुके हैं। चौथे चरण के लिए चुनाव प्रचार बंद हो गया है। 23 फरवरी को चौथे चरण का भी चुनाव हो जाएगा। इस बीच चुनावी मोर्चेबंदी का घमासान चरमसीमा पर पहुंच चुका है। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का कोई प्रत्याशी घोषित नहीं किया है। गाहे-बगाहे भाजपा को बहुमत मिलने पर उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने की जिम्मेदारी केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को सौंपे जाने की चर्चाएं भाजपा के ही सूत्रों से सामने लाई जा रही हैं।

pm-3वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित न करने को एक मुद्दा बना दिया है जिसे भाजपा की लाचारी के रूप में पेश करके वे उसे मतदाताओं में नीचा दिखाने में लगे हैं। भाजपा का एक वर्ग निश्चित रूप से उनकी इस रणनीति से परेशान भी है। ऐसी हालत में पीएम मोदी ने राज्य के चुनाव को भी अपने चेहरे का चुनाव बनाने का दांव खेल डाला है। इसमें जोखिम यह है कि अगर यूपी विधानसभा के चुनाव में भाजपा सफल होती है तो उनके व्यक्तित्व के करिश्माई होने का इंप्रैशन और गाढ़ा होगा लेकिन अगर भाजपा पिछड़ गई तो न केवल इसका मूल्यांकन राज्य स्तर तक सीमित रहेगा बल्कि इससे सारे देश में मोदी की लोकप्रियता में गिरावट का संदेश जा सकता है। मोदी के शासन को ढाई वर्ष से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है इसलिए 2019 के चुनाव का समय आने तक यह उनके लिए ऐसा झटका साबित हो सकता है जिससे उनकी उलटी गिनती अभी से तेज होने लगेगी। पता नहीं मोदी को इस खतरे का अंदाजा है या नहीं।

फिर भी पीएम मोदी जिस तरह यूपी विधानसभा के चुनाव के लिए सभा-दर-सभा कर रहे हैं उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे अपने व्यक्तिगत करियर के लिए निश्चित रूप से यहां के चुनाव परिणाम का महत्व समझ रहे हैं। यूपी की चुनाव सभाओं में वे स्थानीय मुद्दों को जरूरत से ज्यादा तरजीह दे रहे हैं जिसमें कई मुद्दों पर उनका बचकानापन भी झलकने से नहीं बच पा रहा। यह उनकी व्याकुलता का सूचक है। भाजपा और उनकी धाक के लिए ऐसी धारणा मुफीद नहीं कही जा सकती। नरेंद्र मोदी ने विधानसभा चुनाव में गत सोमवार को बुंदेलखंड स्तरीय सभा जालौन जिले के मुख्यालय उरई में सम्बोधित की। इसमें वे मंच पर पहुंचने के बाद और अपने सम्बोधन की बारी आने के पहले प्रदेश के उन पदाधिकारियों से गुफ्तगू करते रहे जिनके बारे में उन्हें यह इल्हाम था कि वे बुंदेलखंड की राजनीति के बहुत बड़े एक्सपर्ट हैं जबकि हकीकत यह है कि कमजोर आईक्यू की वजह से भले ही उन्होंने कितना समय बुंदेलखंड में बिताया हो लेकिन यहां की हकीकत उनसे परे है। उनके अधकचरे फीडबैक के आधार पर मोदी ने उरई में जो भाषण दिया प्रधानमंत्री पद की ऊंचाई को देखते हुए वह इतना हल्का भाषण था कि उसे एक नौसीखिये के सम्बोधन की ही संज्ञा दी जा सकती है।

इस भाषण में उन्होंने जालौन जिले के कालपी क्षेत्र के हाथ कागज उद्योग की समस्या उठाई। हमीरपुर में चांदी की मछली बनाने वाले कारीगरों और जूता बनाने वालों की बदहाली की चर्चा की। केंद्रीय सरकार और प्रधानमंत्री की भूमिका में बहुत ज्यादा ऊंचाई है इसलिए राष्ट्र के संदर्भ में समझदार केंद्रीय सरकार स्थानीय स्तर तक दखल देने की बजाय सार्वभौम नीतियों और कार्यक्रमों को अपनाने, लागू करने पर ध्यान देती है। इसी सोच के तहत मनमोहन सिंह ने बुंदेलखंड व विदर्भ में किसानों की आत्महत्या का मुद्दा सबसे ज्यादा सरगर्म होने के बावजूद कर्जमाफी का फैसला लिया तो पूरे देश के किसानों के लिए लिया।

pm-2नरेंद्र मोदी ने बुंदेलखंड के जिन कुटीर उद्योगों पर लगे ग्रहण की चर्चा की वे हस्तशिल्प पर आधारित उद्योग-व्यवसायों की आधुनिक परिस्थितियों में अप्रासंगिकता बढ़ते चले जाने के मुद्दे हैं। परम्परागत उद्योगों को अपडेट करके प्रभावी बनाने का सारा काम राज्य सरकार पर निर्भर करता है केंद्र केवल इसमें दिशा निर्धारित करके योगदान दे सकता है। इस नाते अगर इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को बोलना है तो वे केवल इतना कहकर काम चला सकते हैं कि उनकी सरकार हस्तशिल्प पर आधारित परम्परागत उद्योग-व्यवसायों के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए एक व्यापक नीति बनाने जा रही है जिससे बुंदेलखंड अंचल को बड़ा फायदा होगा। किस स्पेसफिक रीजन को और किस स्पेसफिक उद्योग को यह फायदा कैसे होगा इसकी चिंता भले ही भाजपा की राज्य सरकार बनने वाली हो उस पर छोड़ी जानी चाहिए। शासन के सारे निकायों की पहल भारत सरकार और प्रधानमंत्री स्वयं हस्तगत करने की सोचें,  यह एक बेतुका विचार है। इसलिए उनके भाषण का यह ट्रेंड बिल्कुल भी परिपक्व नहीं कहा जा सकता।

प्रधानमंत्री पद मिलने से प्रदेश स्तरीय सलाहकार बन गये अपने वार्ड स्तर के कार्यकर्ताओं के सत्संग के चलते उरई के भाषण में स्थानीय मुद्दों पर बहुत सूक्ष्मता में चले गए जिसने उनके भाषण को बकवास बना दिया। उन्होंने कहा कि वे उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने पर बुंदेलखंड में पलायन की समस्या को विराम लगा देंगे। यह सही है कि 2007 तक सूखे की वजह से बुंदेलखंड के जालौन जैसे जिलों के लोग जब रोजगार की तलाश में अपना गांव छोड़ रहे थे तो उनके अंदर गहरा दर्द और कसक थी। साफ है कि यह मजबूरी काम की तलाश में उनके अन्यत्र जाने को पलायन के रूप में परिभाषित करती थी, लेकिन जब यहां के लोग मजदूर बनकर बाहर गये और बाद में लेबर कांट्रेक्टर बनकर खासा मुनाफा कमाने का जरिया हासिल करने लगे तो तस्वीर बदल गई। यहां के लोग पानीपूड़ी का धंधा करने के लिए चेन्नई तक पहुंच गये। लेकिन इस बदलाव ने उन्हें जो वरदान दिया उसके चलते पलायन बेहतर जीविका के लिए शिफ्टिंग में तब्दील हो गया।

pm-4बुंदेलखंड में लगातार छोटी होती जोत की वजह से मौसम पूरी तरह अनुकूल भी हो जाए तब भी पुश्तैनी खेती से पेट तक भरना ग्रामीणों के लिए सम्भव नहीं रह गया था लेकिन होम सिकनेस की बीमारी की वजह से काम के नये क्षितिज तलाशने की दिलेरी से उनका कोई परिचय नहीं था। इन पंक्तियों के लेखक ने आत्महत्या करने वाले कई किसानों के घर जाकर पड़ताल की। इनमें से बहुत किसान ऐसे थे जिनके पास दो एकड़ भी जमीन नहीं थी और परिवार के नाम पर आधा दर्जन से ज्यादा बच्चों के साथ आठ-दस सदस्य थे। अगर उनकी सीमित खेती भरपूर उपज देती भी तो भी उनका पड़ता कैसे पड़ता, यह सोचने वाली बात थी। उनकी आत्महत्या संवेदित करती है। सोचने का विषय हो सकती है लेकिन उनकी परिस्थिति के मद्देनजर यह निष्कर्ष तो साफ था कि जल संरक्षण, किफायती सिंचाई जैसे ठठकर्मों से बुंदेलखंड के लघु और सीमांत किसानों के अस्तित्व की रक्षा सम्भव नहीं है। उनके लिए आजीविका के वैकल्पिक साधन ईजाद करने होंगे।

सूखे के चलते अपने अंचल से उनके बहिर्गमन ने आवश्यकता अविष्कार की जननी है की तर्ज पर जब उनको इसमें सक्षम बनाया तो उनकी दुनिया बदल गई। कालपी के पास केवटों का एक गांव है हीरापुर। जहां के बाशिंदे दिल्ली में मल्टीप्लेक्स बिल्डिंगों के निर्माण के लिए मजदूर बनकर गये थे। बाद में उन्हें बिल्डरों ने लेबर कांट्रेक्टर बना दिया। इस गांव में सरकार और प्रशासन बेहतर सड़क भले ही न बना पाया हो लेकिन बहुत बड़ी संख्या में गांवों में पक्की इमारतें बन चुकी हैं और आधा दर्जन घरों में बिजली के आधुनिक उपकरणों के साथ एसी लगे हैं। रामपुरा के पास दस्यु समस्या से बर्बाद रहे जायघा गांव में नरेंद्र मोदी के गुजरात में लेबर बनकर गये ग्रामीणों ने इतना कमाया कि आज कई लोगों के पास उस गांव में बाइक नहीं फोर व्हीलर आ चुके हैं।

यहां से पलायन की खबरें मीडिया के लिए भले ही अभी भी बिकने वाला प्रोडक्ट बनी हुई हैं लेकिन सही बात यह है कि माइग्रेशन ने बुंदेलखंड के जीवट और उद्यमिता के धनी लोगों के लिए समृद्धि के द्वार खोल दिये हैं। जिसके चलते अब इस मुद्दे पर कोई गर्मी नहीं रह गई है। पीएम मोदी ने अपने भाषण में यह भी कहा कि बुंदेलखंड में हर चार में से एक आदमी धंधे के नाम पर लखनऊ की दलाली करता है। इसमें क्या शक है, लेकिन यह प्रथा किसी एक दल की जागीर नहीं है। मोदी को मालूम होना चाहिए था कि उनकी पार्टी में भी बहुत से सड़कछाप लोग लखनऊ और दिल्ली की दलाली के धंधे से ही इतने बड़े आदमी बन चुके हैं और उनके नोटबंदी के कदम ने न तो उनकी विरोधी पार्टियों के संदेहास्पद तरीके से एक ही पीढ़ी में अरबपति और खरबपति हुए किसी नेता को सड़क पर खड़े होने को मजबूर कर पाया है और न ही उनकी अपनी पार्टी के इतने ही हैसियतदार बने नेता से हिसाब-किताब ले पाया है।

pm5उत्तर प्रदेश शायद आजादी के पहले जब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था तो सपनों जैसा सूबा रहा होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कहा कि उत्तर प्रदेश की 70 वर्षों की बर्बादी को खत्म करने का वक्त आ गया है तो यही लगा कि उसके पहले शायद उत्तर प्रदेश में गुलामी के दौर में बहुत खुशहाली रही होगी। हो सकता है कि उनके भाषण का इस तरह का अर्थ निकालना बहुत लोगों को उचित न लगे लेकिन नरेंद्र मोदी को यह तो सोचना चाहिए था कि अभी तक के 70 वर्षों में 89 के बाद के ही दौर में चार बार उनकी पार्टी के लोगों का कार्यकाल शामिल है। इनमें कल्याण सिंह दो बार मुख्यमंत्री रहे। एक बार रामप्रकाश गुप्ता और एक बार राजनाथ सिंह रहे। इसके पहले 1977 से 1980 के तीन साल के जनता पार्टी शासन में भी उनकी पार्टी सहभागी रही। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली संविद सरकारों में भी उनकी पार्टी भागीदार थी तो क्या उन्होंने प्रदेश की तथाकथित बर्बादी का ढीकरा अनजाने में अपने अलावा जनसंघ से भाजपा तक के अपनी ही पार्टी के दूसरे नेताओं पर भी नहीं फोड़ दिया है।

2004 के इलेक्शन के समय बीबीसी वर्ल्ड पर करन थापर ने लालकृष्ण आडवाणी का इंटरव्यू किया था। इस इंटरव्यू में उन्होंने पूछा था कि आपने अनुच्छेद 370 का मुद्दा पेंडिंग कर दिया, कॉमन सिविल कोड का मुद्दा बरतरफ कर दिया, अयोध्या में विवादित स्थल पर ही रामजन्मभूमि मंदिर बनाने का मुद्दा ताक पर रख दिया। इसके बाद गुड गवर्नेंस के नाम पर जो बचा है क्या उसके लिए ब्यूरोक्रेटिक एक्सरसाइज ही पर्याप्त नहीं है। इसमें पॉलीटिकल लीडरशिप का क्या योगदान है। किसी जिले में कोई कलेक्टर अच्छा आ जाये तो दफ्तरों में कर्मचारियों की नियमित आमद शुरू हो जाती है। लोगों के आम कामों में सुविधा शुल्क की वसूली बंद हो जाती है वगैरह-वगैरह। लेकिन राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका तो इससे कहीं बहुत ज्यादा है। सिस्टम को ठीक करने के लिए नीतिगत कार्यक्रम और प्रतिबद्धताओं से लैस राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत है।

सिस्टम या व्यवस्था में कौन सी चीज हैं जो एक बड़े गतिरोध का कारण बनी हुई हैं। जिसके निवारण के लिए राजनीतिक नेतृत्व से आगे आने की अपेक्षा की जाती है। प्रधानमंत्री अपने भाषण में गाहे-बगाहे अपने गरीब होने का बहुत जिक्र करते हुए भी चीजों को स्पष्ट नहीं कर पा रहे। उनका कहना है कि वे गरीब हैं इसलिए गरीबी का दर्द समझते हैं, यह पर्याप्त नहीं है। उन्हीं की पार्टी में बहुत से लोग ऐसे हैं जो राजनीति के कारण गरीब की हैसियत से बहुत ऊपर उठ चुके हैं और इसके बाद उन्हें सबसे ज्यादा एलर्जी है तो गरीब से क्योंकि वह उनकी जरूरत के पैमाने पर किसी काम का नहीं हो सकता। ऐसे लोगों का चेहरा गरीबों को उनसे सावधान करता है जिनकी जड़ें गरीबी से निकली थीं। गरीब के प्रति संवेदनशीलता के लिए गरीब अतीत कोई प्रमाणपत्र नहीं है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारी नेतृत्व अक्सर उस वर्ग में से ही उपजा जो शोषण की व्यवस्था का कर्ता-धर्ता था।

बहरहाल भाजपा ने टिकटों के वितरण में इस बार अस्मिता की राजनीति को महत्व दिया। जिसके चलते भाजपा को अपनी जागीर समझने वाले वर्गों के नेताओं को कम टिकट मिल पाए। इससे चुनाव के शुरुआती दौर में भाजपा में कई जगह बगावत का विस्फोट हुआ। हालांकि बाद में सब कुछ मैनेज हो गया लेकिन एक स्थिति सामने आई कि व्यवस्था या सिस्टम में सर्वसमावेशी समायोजन के लिए सहमति न बन पाना एक बड़ा गतिरोध है। इसके लिए परम्परागत रूप से वर्चस्व में रहे वर्ग के लोगों को सद्बुद्धि देने का प्रयास होना चाहिए। कपटाचार से अंतर्विरोधों को कुछ समय तक मैनेज किया जा सकता है लेकिन बाद में इसके घाव नासूर का रूप ले लेंगे, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए।

maayaa-jhanseeमोदी में लोगों की इस मुद्दे पर गलत अवधारणाओं के निराकरण की दिलेरी नजर नहीं आती। उनके द्वारा और उनकी पार्टी के द्वारा यह न मानना कि मुसलमान हो जाने के बावजूद देश के उन लोगों का हक यहां की व्यवस्था पर खत्म नहीं हो जाता जो यहीं के धरतीपुत्र हैं। सर्वसमावेशी व्यवस्था की संकल्पना के परे विचार है जिससे देश के लिए आगे चलकर बहुत कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। यूपी विधानसभा के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट न देकर इसी तरह की अदूरदर्शिता का परिचय दिया गया है। यह सही हो सकता है कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियों ने वोट बैंक की खातिर संतुलित नीति अपनाने की बजाय मुसलमानों के तुष्टीकरण को बढ़ावा दिया हो, इसमें आप मायावती की तरह निर्विकार नीति को तो अपना सकते हैं लेकिन मुसलमानों को अलग-थलग करने की इजाजत राष्ट्रीय हित के मद्देनजर आपको दिया जाना बिल्कुल भी मुनासिब नहीं है।

भारत की लोकतांत्रिक राजनीति कई अनुभवों से गुजर रही है। जनप्रतिनिधियों के लिए निधि का प्रावधान किया गया था तो इसके पीछे अस्थिर सरकारों द्वारा उत्कोच वितरित कर अपनी सलामती का कपटाचार था लेकिन जनप्रतिनिधियों की निधि आज कई संदर्भों में औचित्यपूर्ण हो गई है इसलिए आम जनता का भी बड़ा वर्ग अब यह नहीं चाहता कि इस निधि को समाप्त किया जाए। तमाम लोक-लुभावन घोषणाएं निंदा का विषय हुआ करती थीं लेकिन तमिलनाडु और इसके बाद उत्तर प्रदेश में इस राजनीतिक स्वार्थ ने गरीबों के हित में रचनात्मक भूमिका अदा की है, इसमें अब कोई दोराय नहीं रह गई। मोदी को स्वप्नदृष्टा नेता बनने के लिए राजनीतिक स्तर पर इस तरह की गतिशीलता में भी बढ़त दिखाने की जरूरत है, जिसमें उनकी ओर से कोई योगदान नहीं हो पा रहा है। यह कमी उनको संकीर्ण राजनेता की कोटि में खड़ा करने का कारण साबित हो रही है। राजनीतिक मुद्दे जब बहुत टाइप्ड होने लगते हैं तो समाज की तमाम असल समस्याओं से उनका सम्पर्क टूट जाता है।

मोदी लालबहादुर शास्त्री का बहुत जिक्र करते हैं। उनके जमाने में शादियों और दावतों में होने वाली फिजूलखर्ची को रोकने की कोशिश सरकारी स्तर पर हुई थी। लोकसभा में हाल में नोटबंदी के बाद हुई खर्चीली शादियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेसी सासंद रंजीता रंजन एक विधेयक पेश किया जो चर्चा का विषय रहा, क्या आज निजी कार्यक्रमों में बढ़ती फिजूलखर्ची पर रोक राजनीतिक एजेण्डे में शामिल होने वाला मुद्दा नहीं होना चाहिए। संजय गांधी के समय पांच सूत्रीय कार्यक्रम के तहत कुछ ऐसे मुद्दे सामने आये थे जिन पर काम जरूरी था लेकिन उस समय तक जिनका बहुत राजनीतिक वजन नहीं माना जाता था कई ऐसे जरूरी मुद्दे आज भी वजन न माने जाने की वजह से राजनीति में छूटे हुए हैं। निश्चित रूप से हर पहलकदमी का ठेका सिर्फ मोदी का नहीं होना चाहिए। लेकिन दूसरे लोग भी ऐसा नहीं कर रहे इसीलिए तो वे बोनसाई हैं। मोदी को जब आदमकद से बहुत ऊंचे का प्रस्तुत किया जा रहा है तो उनसे बहुत ज्यादा अपेक्षा करना शायद गलत भी नहीं है।

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