उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पांच चरण पूरे हो चुके हैं। सपा और कांग्रेस गठबंधन की ही नहीं तमाम लोगों की सदेच्छा थी कि यह चुनाव काम बोलता है की कसौटी पर हो। सीएम अखिलेश यादव ने पांचवे चरण के मतदान के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह चुनौती देकर कि वे उनसे यूपी में केंद्र सरकार ने क्या काम किया है, इसे लेकर बहस कर लें। एक बार फिर कोशिश की कि काम बोलता है के नारे को चुनाव के केंद्र में लाया जाये। लेकिन उनकी आवाज लगता है कि बकाया रह गये चरणों में भी नक्कारखाने में तूती की आवाज के रूप में नजरंदाज हो जाएगी।
काम बोलता है का मतलब सीएम अखिलेश यादव के काम को सबसे अच्छा मानने का सर्टिफिकेट नहीं था। उत्तर प्रदेश में एक अरसे से जाति और धर्म के संकीर्ण मुद्दों पर चुनाव हो रहे हैं। एक समय देश के सबसे बुद्धिजीवी और आधुनिक प्रदेश की पहचान रखने वाले उत्तर प्रदेश की इस राजनीति ने बहुत दुर्गति कर दी है। फिर भी यह मंजर बदलने के आसार नहीं आ रहे थे। लगभग साढ़े तीन साल तक उत्तर प्रदेश में सीएम डमी बने रहे और उनके पिता व चाचाओं ने उत्तर प्रदेश को अपने तरीके से हांका। साम, दाम, दण्ड, भेद हर नीति से चुनाव जीतने की मास्टरी रखने वाले समाजवादी पार्टी के संस्थापक और अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव ने पार्टी और घर में द्वंद्व चरमसीमा पर पहुंच जाने जिसकी परिणति में वे किनारे लग गये, के पहले सपा के भाग्यविधाता के बतौर जो भाषण देने शुरू किये थे वे स्मरण किए जा सकते हैं। कोई मुसलमान चुनावी मौसम में अयोध्या को याद नहीं करना चाहता था लेकिन मुलायम सिंह मान न मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर जबर्दस्ती मुसलमानों के तरफदार बनने के लिए कह रहे थे कि उन्होंने धर्म निरपेक्ष संविधान बचाने के लिए नवम्बर 1990 में अयोध्या कारसेवकों पर गोली चलवाई थी। जिसमें एक दर्जन से ज्यादा कारसेवक मारे गये थे। इसका दुख तो उन्हें हुआ था लेकिन अगर संविधान बचाने के लिए उन्हें और जरूरत महसूस होती तो कितने भी कारसेवक मारे जाते वे गोली चलवाते रहते।
लोगों ने मान लिया था कि समाजवादी पार्टी के पास भड़काऊ बातें करने के अलावा कोई एजेंडा नहीं है इसलिए नये चुनाव तक न जाने कितनी उत्पाती बयानबाजी होगी लेकिन अखिलेश ने अपनी पार्टी की संस्कृति को बदला। उन्होंने विकास का एजेंडा सेट किया। चुनाव में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के आसार पैदा हुए। अखिलेश और राहुल के युवा गठबंधन में भी लोगों को ताजगी दिखी। जिससे लगा कि अखिलेश को मतदाता बदलाव का इनाम देंगे और उनका उत्साहवर्धन उत्तर प्रदेश की राजनीति में सुखद बयार बहाने का प्रभावी कारण बनेगी।
होना तो यह चाहिए था कि भाजपा अखिलेश के खिलाफ बढ़त बनाने के लिए काम के मामले में प्रतिस्पर्धा करती जिससे उत्तर प्रदेश में सकारात्मक बदलाव में उसका योगदान और बढ़ जाता। हो सकता है कि भाजपा को इससे लाभ मिलता लेकिन भाजपा ने भी भले ही अयोध्या में राममंदिर का राग अलापने जैसे मुद्दों की छाया से चुनावी परिदृश्य को बचाया हो लेकिन रमजान और दीवाली में बिजली देने के मामले में भेदभाव और कब्रिस्तान वर्सेज श्मशान के मुद्दे उठाकर सुसुप्तावस्था में जा रहे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की चिंगारी को बहुत ही सलीके से हवा देने का काम किया। इसलिए सारा खेल पलट गया। दरअसल इस मामले में भाजपा के सामने मजबूरी भी थी। पीएम मोदी अप्रत्याशित कदम उठाने और उसे करिश्मे के रूप में पेश करने की कला में अपनी महारत साबित कर चुके हैं। लेकिन इस महारत से कोई ठोस फलित तो हो नहीं सकता। इसलिए लगभग पौने तीन वर्ष का उनका कार्यकाल सुहावने शिगूफों में बीता है जिसका हासिल क्या है, यह बताना उनके समर्थकों तक के लिए मुश्किल है।
नोटबंदी भी कुछ इसी तरह का कदम था। 50 दिन का समय उन्होंने अपने इस कदम से देश की व्यवस्था में सुशासन के नये कीर्तिमान स्थापित करने के लिए मांगा था। लेकिन 100 दिन से अधिक का समय गुजरने का बावजूद ऐसा कुछ नहीं हो सका है जिससे यह माना जा सके कि वास्तव में यह किसी बड़ी गम्भीर कार्रवाई का पहला स्टेप था। जिसकी अंतिम परिणति नई व्यवस्था का अहसास कराने वाली होगी। सही बात यह है कि नोटबंदी के फॉलोअप की कोई श्रंखलाबद्ध योजना सरकार के पास नहीं है। सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में भी यही कहा जा सकता है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा जिस तरह से घाटी में हमले और विध्वंसक कार्रवाइयां जारी हैं उससे सरकार की शोशेबाजी का खोखलापन उजागर हो चुका है। नोटबंदी केवल एक चौंकाने वाला तमाशा ही साबित नहीं हुआ बल्कि असंगठित क्षेत्र में रोजगारों की व्यापक क्षति से यह गरीबों के लिए हमेशा डराते रहने वाला दुस्वप्न भी सिद्ध हुआ है। इसीलिए भाजपा विरोधी दलों ने आशा लगाई थी कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में नोटबंदी से उपजे आक्रोश के चलते भाजपा की खटिया खड़ी हो जाएगी लेकिन देखा जाए तो चुनावी माहौल में भाजपा ने इस मोर्चे पर भी स्थिति पलटकर रख दी और नोटबंदी को अपने पक्ष में भुना लिया।
उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव मुख्य रूप से दो मुद्दों पर हुआ। एक तो मुसलमानों को उनकी हैसियत में पहुंचाने की हसरत और आरक्षण की व्यवस्था का उन्मूलन। घोषित-अघोषित रूप से फैलाई गई इन मुद्दों की चर्चा ने कहीं न कहीं 2014 के लोकसभा चुनाव जैसी व्यापक लामबंदी का उत्प्रेरण उत्तर प्रदेश में किया। जिस समय लोकसभा चुनाव हुआ था उस समय मुजफ्फरनगर सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों की यादें ताजा थीं। सपा नेताओं ने इन दंगों को लेकर वैसे ही करतब किए थे जिसका एक नमूना ऊपर हम मुलायम सिंह के कारसेवकों पर गोली चलाने सम्बंधी बेमौके बयान के बतौर गिना चुके हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व के आधार पर उत्तर प्रदेश में हुई एकजुटता को स्वाभाविक माना जा सकता था लेकिन फिलहाल तो वह माहौल अखिलेश ने पूरी तरह धो-पोंछ दिया था। लेकिन आखिर में साम्प्रदायिक भावनाओं के प्रेत को लोगों पर सवार होने से वे नहीं रोक सके। जिसके सामने उनके विकास का एजेंडा भी तितर-बितर नजर आया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि लोकदल परिवार की पार्टियां समाजवादी पार्टी जिसका अपडेट संस्करण है ओबीसी की पार्टियां मानी जाती हैं। ऐसे में जबकि यह राज्य का चुनाव था और ओबीसी के लिए अपनी पार्टी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई थी। यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि इसमें वे हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के उतने ही दीवाने फिर हो सकते हैं पर यह गजब हुआ है। ओबीसी ने भी मुस्लिम विरोधी भावनाओं के तहत सपा से पल्ला झाड़कर बहुतायत में भाजपा के पक्ष में मतदान किया है।
सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि भले ही मायावती दलित वोट बैंक को अभी भी अपनी जागीर मान रही हों लेकिन छोटे प्रतिशत में ही सही उनके बीच भी भाजपा के हिंदुत्व ने सेंध लगाई है। जिन्होंने बहुत जमीनी सर्वे किया है वे इस सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते। आरक्षण का लाभ खो देने का जोखिम देखते हुए भी ओबीसी और दलितों के एक हिस्से ने भाजपा के पाले में जाना पसंद किया। यह सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए एलार्मिंग सिचुएशन है। विधानसभा चुनाव के बाद इस पर गहन चिंतन करने की जरूरत पड़ेगी। लेकिन इसके लिए सपा और बसपा को अपने गिरेबान में भी झांकना होगा।
वीपी सिंह दौर में मंडल-कमंडल के नारे ने राजनीतिक चेतना को बहुत साफ रखा था। ओबीसी हों या दलित दोनों अध्यात्म से वर्ण व्यवस्था को अलग देखने लगे थे और उनमें यह व्यवस्था अपनी प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिन्हित हो गई थी। ऐसे में दलित और पिछड़े तो एक हुए ही थे साथ में मुसलमानों का उनसे जुड़ना भी तार्किक औचित्य के तहत था क्योंकि ओबीसी व दलित यह पाते थे कि वर्ण व्यवस्था में कोई निहित स्वार्थ न होने से अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वे मुसलमानों को सहज तौर पर अपने साथ जोड़ सकते हैं। यह द्वंद्वात्मकता अगर अपनी परिणति पर पहुंचती तो सम्भव था कि देश में नया सांस्कृतिक अभ्युुदय होता जिसका अध्यात्म ज्यादा चमकदार रहता। लेकिन अखिलेश की कमजोरी रही कि वे शुरू से ही समाज के सफेदपोश वर्ग के ग्लैमर के शिकार थे जिसके चलते उन्होंने इस वर्ग में अपने नम्बर बढ़ाने के लिए पदोन्नति में आरक्षण को पलटने में बहुत उत्साही भूमिका निभाई।
सामाजिक न्याय के स्तर पर आक्रामक चेतना को कुंद कर देना उनकी भद्र ग्रंथि का अवश्यंभावी परिणाम था। यह भद्रता पिछड़ों में संस्कारों की लालसा बढ़ाने का कारण बनी जिसके चलते हिंदुत्व की गिरफ्त में उनका आना लाजिमी था। मायावती ने तो उनसे भी ज्यादा इंतहा की। उन्होंने सर्वसमाज की बात तो की लेकिन इसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं था। अगर वे जनरल कास्ट के लोगों को अपने साथ जोड़कर उनमें सामाजिक बदलाव का हमसफर बनने की चेतना को मजबूत करतीं तो सर्वसमाज का नारा शायद सार्थक साबित हो जाता। लेकिन बोली के आधार पर उन्होंने ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाने से परहेज नहीं किया जो कि बेहद कट्टर थे। इस नाते उनके लोग भी कट्टर ही होंगे। अगर मायावती अपने ऐसे उम्मीदवारों के लिए प्रचार के समय केंद्र की आरक्षण खत्म करने की साजिशों का जिक्र छेड़ती हैं तो उनके उम्मीदवार का सत्यानाश हो जाना तय ही था। फिर भी उन्होंने कोई ख्याल नहीं रखा। जबकि उन्हें मालूम था कि किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में उनकी पार्टी की जीत का समीकरण तभी बनता है जब उनका उम्मीदवार अपनी बिरादरी के वोट हाथी के पाले में खींच लाता है।
इस तरह दोनों ही पार्टियां हिंदुत्व की गुप्त आंधी में उड़ने से अपने माल को नहीं बचा पाईं। हालांकि भाजपा ने भी दिखावे के तौर पर यूपी को ऐसी सरकार देने का वायदा किया है जो बहुत कार्यकुशल व स्वच्छ होगी। लेकिन यूपी में भाजपा के ज्यादातर सांसदों की कार्यनीति और क्षमता से सारे लोग परिचित हैं। मोदी लहर में यूपी में जो लोग सांसद और विधायक बने हैं वे 1977 के चुनाव की याद दिलाते हैं जब कहा गया था कि जनता पार्टी के टिकट पर अगर खम्भा भी खड़ा हो गया तो उसे पब्लिक ने जिता दिया था। खुद मोदी जानते होंगे कि यूपी के उनकी पार्टी के सांसद लोकतंत्र की समृद्धि और सुचारु प्रशासन में कोई योगदान देने में कितने वीक हैं। इसलिए विधानसभा चुनाव में उन्हें इसके लिए मजबूत राजनीतिक तंत्र बनाने की जरूरत पर गौर करना चाहिए था लेकिन विधायक के रूप में भी पार्टी ने ऐसे लोगों को टिकट दिए जो मिट्टी के माधौ बने रह सकें। भेड़चाल में लोगों ने वोट भले ही भाजपा को दिये हों लेकिन पार्टी के उम्मीदवारों को लेकर उनकी धारणा भी कमोवेश इसी तरह की है जिससे उनके मन में निराशा की भावना रही है।
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी कोर्ट की अखाड़ेबाजी से कम नहीं होती जिसमें बचाव का वकील सरेआम हत्या करने वाले को बेगुनाह बताते हुए सालों तक जज को दुविधा में घेरे रहता है। इसलिए चुनाव में स्वच्छता के नाम पर अपनी पीठ ठोकने वाली दलीलें भाजपा ने भले ही चाहे जितनी दी हों लेकिन उनकी कमीज एकदम साफ होगी, यह यकीन नहीं किया जा सकता। मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले ने इस बात को उजागर कर दिया है अगर उत्तर प्रदेश में नौकरियां नीलाम होती हैं तो मध्य प्रदेश बेरोजगारों के साथ अन्याय और उनके शोषण में पीछे नहीं है। उत्तर प्रदेश में मोदी के मंचों पर प्रदेश के ऐसे पदाधिकारियों को जगह मिली है जिनके सामने खाने तक के लाले थे लेकिन आज वे कई सैकड़ों करोड़ के मालिक बन गये हैं। ऐसी पार्टी जिसको ऐसे लोगों को अपने सिर पर बैठाने में एतराज नहीं है वह क्या खाक ईमानदारी का प्रशासन कायम करेगी, यह सोचा जा सकता है। कल्याण सिंह ने जब वे पहली बार मुख्यमंत्री थे तो स्वच्छ प्रशासन देने की निर्भीक कोशिश की थी लेकिन नतीजा क्या निकला, उऩकी सरकार 19 महीने में ही चली गई तो दूसरों की वजह से नहीं उन्हीं की पार्टी के लोग रहे जिनके स्वार्थ सैद्धांतिक प्रशासन चलाने के कल्याण सिंह के हठ के कारण पूरे नहीं हो रहे थे। इसलिए उन्होंने अयोध्या के बहाने उनकी सरकार को अकाल मौत के लिए मजबूर कर दिया था।
अब केवल दो चरण बचे हैं इसलिए विधानसभा चुनाव की आने वाली तस्वीर में अब कोई बदलाव आने वाला नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी की भी बने वह ऐसी सरकार होनी चाहिए जो नॉर्म्स के तहत काम करे और विकास की बड़ी लाइन खींचकर जाति-धर्म के झगड़ों को बेमानी कर दे।







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