चित्रकूट में नानाजी देशमुख की सातवीं पुण्यतिथि पर आयोजित भण्डारे में शामिल होने पहुंचे संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि अमेरिका के मापक हमारे लिए सही नहीं हो सकते। उनकी बात से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन पर उपदेश कुशल बहुतेरे के प्रभाव का घटाटोप देश के सभी खेमों पर छाया हुआ है इसलिए उन्नति के हमारे प्रतिमान क्या हों, इस पर कोई काम सम्भव नहीं हो पा रहा। विकास के नाम पर हो रही आपाधापी में मनमोहन का जमाना रहा हो या आज मोदी का, कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। विडम्बना यह है कि हम इस जहानेफानी में अपना ठोस वजूद साबित करने में विफल हैं जिसके कारण आयातित वितंडा के अंधड़ में उड़ते जाना हमारी नियति बन गया है।
अमेरिका के मापक तो खुद अमेरिका और पश्चिम में संदिग्ध घोषित होने लगे हैं। यह न होता तो मानव विकास सूचकांक को अधूरा मानकर पश्चिमी अर्थशास्त्रियों को खुशहाली सूचकांक की चर्चा शुरू न करनी पड़ती। अमेरिका की अवधारणाओं का स्रोत उपनिवेशवाद है और आज भी उसके इस माइंडसेट में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। इसलिए उसका चश्मा संसार के हर कोने को अपने चरागाह के रूप में देखता है। लूट की संपदा ने अमेरिका को महाशक्ति का दर्जा दिलाया, जाहिर है उसकी कुलीनता में मुनाफा अाधारित अनाचार निहित है। फिर भी अमेरिका में अपने लोगों तक के लिए खुशनसीबी की व्यवस्था नहीं हो पाई है। आमदनी और संसाधनों के वितरण में अमेरिका में भी सर्व साधन सम्पन्न छोटी जमात और बहुसंख्यक आबादी के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। लेकिन आश्चर्य यह है कि हर देश की तरह भारत की भी हसरत अमेरिकन क्षितिज छूने की है।
भाजपा जब तक मजबूती से सत्ता में नहीं आई थी। संघ परिवार देश के अंदर पश्चिम के बढ़ते सांस्कृतिक आक्रमण पर सबसे ज्यादा स्यापा करता था लेकिन अब लगता है कि इस मामले में उसकी सुधि जाती रही है। मॉडल शहर से लेकर बुलेट ट्रेन चलाने तक में पश्चिमी सम्मोहन की झलक दिखाई देती है। हालांकि इसके साथ यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि नकल में भी अक्ल की आवश्यकता होती है इसलिए मॉडल शहर तैयार करने की बात हो या बुलेट ट्रेन चलाने की परियोजना, मीठी-मीठी बातों की जुगाली से इनमें कोई चीज आगे नहीं बढ़ पाई है।
सवाल यह नहीं है कि पश्चिमी संस्कृति इसलिए त्याज्य है कि भारतीय संस्कृति के अलावा कोई संस्कृति श्रेष्ठ नहीं हो सकती। जो भारत में जन्मा नहीं, सृजा नहीं गया वह हीन है। भारत अलौकिक देश है इसलिए अपने देश के अलावा हमें किसी और तरफ देखना भी नहीं चाहिए। भले ही उसके विचार कितने भी अभिनव क्यों न हों, यह खोखली दुरभिग्रंथि मन में पालते-पोसते हुए भी दूसरों की हर चमकदार चीज को सोना समझकर उस पर लट्टू हो जाना हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता है। ऐसे लोग पौराणिक हवालों से बखान करते हैं कि भारत की धरा कितनी पुण्यवान है। सिर्फ यहां मरने पर ही मोक्ष मिलना सम्भव है। यह दूसरी बात है कि ऐसे लोग विदेश में नौकरी कर रहे अपने लड़के-लड़कियों के पास जीवन की उस अवस्था में बार-बार जाने का मोह नहीं छोड़ पाते जब उनकी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं रह जाता और वे जानते हैं इसके कारण उन्हें अपने प्राण विदेश की अदंभ धरा पर भी गंवाने पड़ सकते हैं जो मोक्ष के अवसर से स्वयं अपने को वंचित करने की बहुत बड़ी भूल होगी।
बहरहाल हर संस्कृति में कुछ सनातन और सार्वभौम तत्व होते हैं जो दुनिया के किसी भी हिस्से के समाज के लिए वरेण्य हो सकते हैं लेकिन तमाम सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के निर्माण में किसी देश की जलवायु, मानव नस्ल की विशेषताओं और प्राकृतिक चुनौतियों से मुकाबला करने के क्रम में बनी समझ का योगदान होता है। हर भूभाग पर यह परिवेश बदल जाता है। इसलिए किसी समाज को अपनी मौलिक संस्कृति पर बाहरी संस्कृति को बिना सोचे-समझे तरजीह नहीं देनी चाहिए। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजार की मायावी चालों ने उपभोक्ता संस्कृति से संसार के हर समाज को आच्छादित, आप्लावित कर सांस्कृतिक एकरूपता को आरोपित करने का प्रयास किया है जो पूरी तरह जबरिया है। जो प्रतिबद्धता में ठोस थे उनकी चिढ़ इसके खिलाफ सामने आई। यह बात केवल इस्लामिक दुनिया के संदर्भ में ही नहीं है। चीन ने कहा कि हमारे स्कूलों में बड़ा दिन नहीं मनाया जाएगा क्योंकि बाहरी पर्वों के प्रति आकर्षण दिखाने से हमारे परम्परागत त्योहारों की रौनक प्रभावित हो रही है। वेलेंटाइन डे, प्रपोज डे, फ्रेंडशिप डे और मदर्स-फादर्स डे भी यह तो ऐसे मनाये जाने लगे हैं जैसे वेद और संहिताओं में इन्हें मनाने की आज्ञाएं शामिल हों। नवरात्र पर एक ओर कन्या भोज आयोजित होते हैं, जहां बच्चियों को जलेबी, खाना खिलाकर दक्षिणा के साथ चरण स्पर्श करना अनिवार्य होता है वहीं कैटरिंग व्यवसाय से जुड़े महान लोगों की प्रेरणा से शादी-समारोहों में शराब पीकर आने वाले मेहमानों की गलत निगाह पर चढ़ाने के लिए बच्चियों यानी कन्याओं को वेटर बनाकर उन्हें खाना सर्व करने की ड्यूटी पर लगा दिया जाता है। यह कैसा विरोधाभास है।
सांस्कृतिक आक्रमण या संक्रमण के ऐसे उदाहरण कदम-कदम पर बिखरे हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में जीडीपी बढ़ाने के नाम पर अस्मिताबोध को कुंठित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय चलन देश में खूब फले-फूले लेकिन भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों के सत्ता में आने के बाद क्या कन्याओं को शादियों में वेटर बनाने के रिवाज पर रोक लगाने की सुगबुगाहट कहीं नजर आ रही है। भारतीय संस्कृति में महान तथ्य क्या है, जन्मना किसी को ऊंचा समझना और व्यापक समाज को नीचा समझना, व्यवस्था को सर्वसमावेशी बनाने की बजाय मुट्ठी भर तबके के प्रभुत्व का हथियार बनाना, यह कोई भारतीय संस्कृति नहीं है। भारतीय संस्कृति आडम्बर की भी संस्कृति नहीं है। यह जीवन की वास्तविकताओं को स्वीकार करने की महत्वपूर्ण संस्कृति है इसलिए इसमें मोक्ष के साथ-साथ अर्थ, धर्म और काम को भी चार प्रमुख पुरुषार्थ में जोड़ा गया है। लेकिन अर्थ पुरुषार्थ बनता है जब उसका उपयोग लोगों की जरूरतें गुणवत्तापूर्ण साधनों को सुगमतापूर्वक हर किसी के पास पहुंचाने के उद्यम के लिए किया जाए। भारतीय संस्कृति में अर्थ को पाप की खान भी कहा गया है लेकिन यह विरोधाभास नहीं है। धन पाप है जब उसके साथ वैभव प्रदर्शन को जोड़ दिया जाए। शादियों में औचित्यहीन फिजूलखर्ची धन के इसी पापाचार का नमूना है। वैभव प्रदर्शन के पीछे अपनी चकाचौंध दिखाकर दूसरे लोगों को बौना साबित करना होता है जो किसी हिंसा से कम नहीं है। नोटबंदी के दौरान भी यह हुआ जिसमें भाजपा के कुछ नेताओं के यहां हुई कई सौ करोड़ की शादियां खबरों की सुर्खियां बनीं।
सांस्कृतिक दुहाई के संदर्भ में मुंह में राम बगल में छुरी वाली इस करतूत से भाजपा को जवाब देना मुश्किल हो गया। आप भारतीय संस्कृति के नाम पर बौद्धिक जुगाली कर सकते हैं लेकिन आपका आचरण यह जाहिर कर देता है कि आपकी निष्ठा इस संस्कृति में बिल्कुल भी नहीं है।
छोटी-छोटी सी बातें और आदतें व्यक्ति का ज्योतिष बता देती हैं। एक राजनीतिक पार्टी के रूप में गठित समुदाय कितनी ही प्रवंचनाएं ओढ़े हुए है यह उसके नेताओं के सहज व्यवहार की त्रुटियों से पता चल जाता है। देवताओँ को मानव से श्रेष्ठ योनी में माना गया है लेकिन देवताओं के राजा इंद्र को पौराणिक साहित्य में क्यों गरिमा प्राप्त नहीं है क्योंकि वह वैभव प्रदर्शन में महिमा तलाशने के लिए अभिशप्त दिखता है। देवलोक में उसने अर्थ के रचनात्मक उपयोग का दृष्टांत प्रस्तुत नहीं किया। अप्सराओं के नृत्य और सुरापान की मंडली सजाने में उसने अपने वैभव को निखारा। श्रीकृष्ण ने धर्मयुद्ध का श्रीगणेश गोवर्धन की कंदराओं से इंद्रपूजा के विरोध से किया था। इंद्र के खिलाफ उनका आगाज ईश्वर के रूप में उनकी प्रतिष्ठा की अग्रसरता बना।
देवताओं में ऐश्वर्य की लालसा आ ही जाती है। बापू यानी महात्मा गांधी ने ठीक ही किया जो वे कोई पद लेकर देवता नहीं बने। वे अगर आजादी के बाद राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित रहते तो उनके मन में बैरिस्टर होने के कारण खून-मांस की तरह रचा-बसा सूट-बूट उतारने संकल्प जन्म ले ही नहीं सकता था। लेकिन अच्छा आदमी भी अगर धोखे से देवराज के सिंहासन पर विराजमान हो जाये तो उसे वैभव प्रदर्शन का रोग लग ही जाता है। आप मॉडल नहीं हैं, क्रिकेटर नहीं हैं, फिल्म स्टार नहीं हैं या अन्य किसी भी ग्लैमरस उद्योग से भी आपका करियर नहीं जुड़ा है। आप लोगों के नेता हैं। लोगों के बीच अपनी महिमा बनाये रखने के लिए आपको करोड़ों का सूट पहनकर रहने की जरूरत कैसे महसूस हो गई। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा नेतृत्व खर्चीली शादियों पर रोक के लिए लोगों को प्रेरित करने की सामाजिक मुहिम नहीं छेड़ सकता।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने शायद इसी के मद्देनजर यह कहा है कि विकास के लिए लोगों को सरकार के भरोसे जरूरत से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। भौतिक विकास सांस्कृतिक विकास के समानांतर होता है। लोकतंत्र के कारण देश में राजनीतिकरण बढ़ा है और सामाजिक पहलकदमियां खत्म होती चली गई हैं। इसने बड़ा नुकसान किया है। राजनीति में सामाजिक समस्याएं नहीं उठ पा रही हैं जबकि समाज को सुधारे बिना राजनीति के माध्यम से प्रस्तावित किए जाने वाले तकनीकी उपाय कभी सार्थक नहीं हो पाते।
राजनीति में धोखे-धड़ाके में कभी सामाजिक सुधारों का पहलू छू लिया जाता है अन्यथा राजनीति आज बहुत टाइट हो चुकी है। जैसे पीएम मोदी ने देश को साफ-सुथरा बनाने का नारा दिया जो एक सामाजिक आंदोलन बन सकता था पर उनमें किसी कार्यक्रम को लेकर निरंतरता बनाए रखने की कमी है इसलिए जमीनी स्तर पर उनकी यह सही पहल रफ्तार नहीं पकड़ पाई। बिहार में नीतीश सरकार ने शराबबंदी लागू की जिसे बेहद ठोस और सामाजिक पहल के रूप में गिना जा सकता है। चुनाव में सीएम अखिलेश यादव ने बुंदेलखंड में अन्ना पशुओं के समाधान की योजना का जिक्र भाषणों में छेड़ा जिसमें यहां के समाज का वास्तविक दर्द था लेकिन राजनैतिक एजेंडे में इसे जगह नहीं मिल पा रही।
इसलिए संघ प्रमुख का कहना सही है कि लोगों को व्यक्तिगत, पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक भूमिक में भी पर्याप्त क्रियाशील रहना चाहिए। उनके ऊपर चित्रकूट में नानाजी देशमुख का अभिभूत करने वाला प्रभाव रहा होगा जिन्होंने अपने राजनीतिक करियर के भरे-पूरे दिनों में दिल्ली छोड़कर चित्रकूट में एक ऐसा प्रकल्प खड़ा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली जिसकी सफलता ने सिद्ध कर दिया है कि सरकारी प्रयासों से व्यक्ति का निष्ठापूर्ण प्रयास कितना भारी हो सकता है।







Leave a comment