राष्ट्रवाद के नाम पर स्यापे से महाशक्ति बन चुके भारत की हो रही जलालत

कोउ होय नृप हमैं का हानी जैसे सदियों तक बेखुदी में जीने वाले देश में राष्ट्रवाद के उन्माद का मौजूदा परिदृश्य अटपटा सा लगता है। आश्चर्य होता है कि राष्ट्रवाद पर बढ़ते खतरों से निपटने का गुस्सा उस समय ठांटे मार रहा है जब सवाल यह है कि वास्तव में भारतीय राष्ट्र इस समय पहले की तरह कातर और कमजोर है या अप्रत्यक्ष तौर पर भीरुता का आभास देने वाली यह प्रतिक्रिया उस समय सामने आ रही है जब महाशक्ति के रूप में भारत और भारतीयों का लोहा सारी दुनिया मानने को तैयार है।

विश्व मानचित्र पर भारत का मूल्यांकन इस समय क्या है, इस पर गौर करने के बाद बात की शुरुआत करें। भारत एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर अपने को स्थापित कर चुका है। यह उद्घोषणा मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही दुनिया के हर कोने में हो चुकी थी। योग्यता और क्षमता को लेकर भारतीयों को दुनिया का नंबर एक क्लास का सिटीजन स्वीकारे जाने का ही परिणाम था कि क्लिंटन से लेकर ओबामा प्रशासन तक में अमेरिका में शीर्ष पदों पर भारतीयों की भरमार रही। दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों के सीईओ के रूप में सबसे पहले भारतीयों का चुनाव किया जाने लगा। अमेरिका की कंप्यूटर इंजीनियरों की बस्ती सिलिकॉन वैली में भारतीयों का दबदबा तो दशकों पहले चर्चा का विषय बन चुका था। ऐसे मौके पर जबकि यह मौका भारतीयों के सारी दुनिया में उनकी श्रेष्ठता का सिक्का चलने के चलते इतराने का मौका है यह आभास क्यों दिया जा रहा कि भारतीय इस समय अनजानी आशंकाओं से बहुत ज्यादा घिरे हुए और त्रस्त हैं। आखिर अपने आत्मबल और आत्मविश्वास के कमजोर होने की झलक हम सारी दुनिया को क्यों दे रहे हैं।

जाहिर है कि यह प्रतिबिम्बन वास्तविक न होकर किसी अभिनय का परिचायक है। इस अभिनय की जरूरत क्या है और यह अभिनय किस उद्देश्य के लिए लक्षित है, इसकी खोज के लिए कुछ स्थितियों पर गौर करना होगा। आरक्षण जैसे प्रावधान जिन्होंने व्यवस्था में सभी की भागीदारी के उचित सिद्धांत को अमली रूप दिया है, भारतीय समाज की जड़ता को तोड़ने में सबसे ज्यादा योगदान कर रहे हैं। बहुतायत आबादी जब व्यवस्था से छिटकी हुई थी तो लगभग पूरी जनशक्ति पैसिव मोड में पड़ी हुई थी इसलिए जनसंसाधन जो आज भारतीय समाज की ताकत के रूप में इस्तेमाल हो रहा है उस अतीत में देश के लिए बोझ बना हुआ था। सर्वसमावेशी व्यवस्था की संरचना के बाद कोउ होय नृप हमैं का हानी का पैसिव मोड बदला है और पूरी जनशक्ति एक्टिव मोड में आ गई है। आज हुकूमत को कोई चोट पहुंचे तो सारा देश उदासीन बना रहे, यह संभव नहीं है। सर्वसमावेशी व्यवस्था ने हर तबके में यह भाव पैदा किया है कि ऐसी चोट उन्हें चुनौती की तरह है क्योंकि अब हुकूमत उनके लिए अमूर्त न होकर अपनी है। लेकिन कुछ लोग राष्ट्रवाद की जिस परिभाषा को संज्ञान में लेते हैं उन्हें बदलाव का यह रचनात्मक अवदान चुभ रहा है। राष्ट्रीय भावनाओं के लिए इससे विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता लेकिन विरोधाभास यह है कि राष्ट्रवाद की सारी ठेकेदारी इस नये सेटअप को नष्ट-भ्रष्ट करने के भाव से अभिप्रेत है।

बहुत वस्तुपरक और निर्विकार होकर देखें तो राष्ट्र के रूप में भारत का कलेवर एक पहेली नजर आता है। भले ही इसके राज्य समुद्री सीमा से विभक्त न हों लेकिन तमाम राज्यों के बीच नस्ल, भाषा, पहनावे और खान-पान में जमीन-आसमान का अंतर है। एक सुगठित राष्ट्र के रूप में इतना बिलगाव किसी भी समायोजन में अकल्पनीय है इसलिए कई बार अस्मिता का सवाल क्षेत्र विशेष के लिए इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि राष्ट्र को नकारने में भी उस भावावेश में हिचक नहीं रह जाती। तमिलनाडु से लेकर महाराष्ट्र तक के इस मामले में अनुभवों का यह देश खूब भुक्तभोगी रह चुका है। धार्मिक विविधता का भी पहलू है जो इस्लाम के आने के पहले भी वर्चस्व की जंग छिड़ने का कारण बनकर इस धरा को लहूलुहान कर चुका है। लेकिन इसके समानांतर बहुत बड़ा सुखद तथ्य यह है कि सारे विश्व को धार्मिक तौर पर एकरूप बनाने की जिद ठानने वाले पंथ तक यहां सह-अस्तित्व के व्यवस्थापन में अपने को ढालने को प्रेरित हुए जिससे उन्होंने ऐसे पंथों की चमक को गौरवशाली नजीर कायम करके बढ़ाया है। लेकिन घर के बर्तन भी आपस में खनकते हैं इसलिए धार्मिक विविधता के चलते छोटे-मोटे विवाद भड़कते रहना यहां की अनिवार्य नियति भी है। समस्या यह है कि हर समस्या को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखने की बीमारी से ग्रस्त हो चुके लोग जिस तरह चिंगारी के देखते ही यह कल्पना कर भयभीत हो उठते हैं कि यह चिंगारी किसी छप्पर पर पड़ जाएगी तो इतनी तेज आग भड़क उठेगी कि पूरी बस्ती उसकी आगोश में समा जाएगी जिसमें उसका घर भी स्वाहा हो जाएगा। इसलिए चिंगारी को देखते ही अपने सारे कपड़े फाड़कर चिल्लाते हुए दौड़ जाना उस बीमार आदमी की अनिवार्य मनोदशा बन जाता है। वैसे ही इन विवादों की अतिरंजित कल्पना करके देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाने का दुःस्वप्न देखने लग जाना भी एक तबके की बीमारी बन चुका है। जो यह सिद्धांत बना चुके हैं कि जिन धार्मिक पंथों का प्रवर्तन भारतभूमि से बाहर हुआ है उनके मानने वालों के यहां रहने पर देश की अखण्डता सुरक्षित नहीं रह पाएगी। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जिन धार्मिक पंथों का प्रवर्तन इसी भारतभूमि से हुआ उनमें भी अपने लिए अलग राष्ट्र की मांग करने वाले समूह पनपे लेकिन अंततोगत्वा वे अकेले पड़ गये क्योंकि समग्र तौर पर यहां रहने वालों का धर्म कुछ भी हो जाये पर उनका अपने इस देश से लगाव अल्टीमेट तौर पर अटूट और अखण्ड है।

जेएनयू और नवीनतम दिल्ली के रामजस कॉलेज के बीच छात्र संगठनों के टकराव के दौरान राष्ट्रवादियों को डराने वाली एक और ग्रंथि ने नये सिरे से सिर उठाया। यह ग्रंथि इस विश्वास पर आधारित है कि जैसे भारतभूमि से बाहर का कोई भी धार्मिक दर्शन इस देश की अखण्डता के लिए घातक है वैसे ही इस देश के बाहर के आदमी द्वारा खोजा गया राजनीतिक दर्शन भले ही वह कितना भी सार्वभौम क्यों न हो, इसकी अखण्डता के खिलाफ षड्यंत्र को जन्म देता है। कम्युनिज्म को लेकर इसके विवेकशील आलोचक यह मानते हैं कि सर्वहारा को सत्ता के केंद्र में लाने का इसका आह्वान तो नाजायज नहीं है लेकिन इसके लिए रक्तिम वर्ग संघर्ष की इसके द्वारा वकालत मानवीय सिद्धांतों के प्रतिकूल है। ऐसी आलोचनाओं पर बहस हो सकती है लेकिन कम्युनिस्टों के गढ़ रहे शिक्षा संस्थान भारत विरोधी हैं क्योंकि कम्युनिज्म की अवधारणा भारत के विरुद्ध है, यह सोच फैलाना कुटिलता की पराकाष्ठा है। इंदिरा दौर में भारत के सबसे नजदीक सम्बंध कम्युनिस्ट राष्ट्र सोवियत संघ से रहे और भारत की अखण्डता को जब भी खतरा हुआ इतिहास गवाह है कि सोवियत संघ उस समय भारत के साथ खड़ा रहा। इसलिए भारत कई बार नुकसान खाते-खाते बचा। भारत में राजनीतिक अस्थिरता और तोड़फोड़ में कम्युनिस्ट राष्ट्र सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी की भूमिका कभी नहीं पाई गई। अगर किसी की भूमिका पाई गई तो वह अमेरिका की शातिर खुफिया एजेंसी सीआईए रही है। हो सकता है कि जेएनयू के छात्र नेताओं का एक तबका यह प्रचारित कर रहा हो कि भारत में भूख और दमन जैसी समस्याओं का हल इसके विखण्डन से ही होगा लेकिन कम्युनिज्म के मौलिक सिद्धांत से इस तरह की धारणा का कोई सम्बंध नहीं है। अगर किसी देश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटना कम्युनिज्म का मौलिक लक्ष्य होता तो लेनिन द्वारा की गई क्रांति के बाद रूस और छोटा हो जाता बजाय सोवियत संघ के गठन होने के।

कम्युनिज्म राष्ट्रवादी विचार के परे है। अगर यह अवधारणा सही होती तो चीन के काम करने का तरीका दूसरा होता। वास्तविकता तो यह है कि कम्युनिस्ट राष्ट्र बनने के बाद चीन से ज्यादा कट्टर राष्ट्रवाद किसी देश में नहीं पनपा, जो अपने राष्ट्रीय हितों के लिए अंदर और बाहर दोनों किसी भी सीमा तक अन्याय करने को तत्पर रहता है। इसके बावजूद अगर कम्युनिस्ट जमातों में शामिल कुछ लोग अलगाववादी प्रवृत्तियों को हवा दे रहे हों तो यह उनके व्यक्तिगत सोच का परिणाम हो सकता है लेकिन इसका ठीकरा साम्यवादी विचारधारा पर फोड़ना इससे ज्यादा बेतुकी कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर लपलपाते उग्रवादी दृष्टिकोण के पीछे एक जबर्दस्त उत्प्रेरण कम्युनिज्म के सिद्धांत के प्रति भीषण घृणा का भी है।

और भी कुछ पहलू दृष्टव्य हैं। अंग्रेजों ने देश को आजादी देते समय जिस विरासत को छोड़ा था उसमें इसका वर्तमान राष्ट्रीय स्वरूप बहुत जर्जर अवस्था में नजर आता था। उन्होंने रियासतों को विकल्प दे रखा था कि वे चाहें तो अपने को स्वायत और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर लें। उनके इस शातिराना पासे के चलते यह देश बुरी तरह बिखर सकता था अगर सरदार पटेल ने सख्ती न दिखाई होती। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि आज जो लोग सबसे ज्यादा भारतमाता का जयघोष कर रहे हैं। वे ही लोग भारत के नहीं अपने राजा के साथ होते। इसलिए अगर यह कहा जाये कि राष्ट्रवाद की मौजूदा अप्रासंगिक और असंगत धधक वर्ण व्यवस्था जैसी भारतीय समाज के लिए अभिशाप रही व्यवस्थाओं के दीये की लौ की अंत में होने वाली तेज भभक के मानिंद हैं तो कुछ अन्यथा न होगा। बस इसमें विडम्बना यह है कि महान कहे गये एकमात्र शुद्ध भारतीय शासक सम्राट अशोक शूद्रवंशी थे लेकिन उनके साम्राज्य का आगे चलकर जल्द ही पतन कर दिया गया जिसके बाद किसी अन्य धर्म के लोगों का शासन तत्काल में नहीं आया। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और सनातन धर्म के प्रति भी वे अत्यंत सहिष्णु रहे। लेकिन नया साम्राज्य शूद्रों से प्रतिशोध की आधारशिला पर खड़ा किया गया। सम्राट अशोक और उनके वंशजों के शासन को इतना अधम मानने की वजह क्या रही कि उसके पतन के  बाद शूद्रों के लिए बेहद दमनकारी व्यवस्थाएं निर्मित हुईं। यह पहेली रणनीतिक तौर पर शूद्रों को कुछ समय के लिए हरावल दस्ता का अगुआ बनाकर बुने जा रहे हिंदुत्व के संदर्भ में देर-सबेर निश्चित रूप से बूझी जाने वाली है। फिर भी ओबीसी यानी शूद्रों को इस समय हिंदुत्व सर्वाधिक सम्मोहित कर रहा है।

लेकिन इन सारी विसंगतियों के बीच यह प्रश्न वास्तव में विचारणीय है कि इस देश में इतनी तरक्की के  बावजूद राष्ट्रीय भावनाएं इतनी ज्यादा कमजोर क्यों हैं। राष्ट्रवाद पर उस शिक्षक की भौंहें सबसे ज्यादा तनी नजर आती हैं जो कभी स्कूल नहीं जाता। वह कश्मीर में अलगाववादियों से निपटने की चर्चा शुरू करके इतना आक्रामक हो जाता है कि लगता है कि निश्चित रूप से यह सूरमाई दिखाने के लिए अगले ही दिन कश्मीर में मोर्चे पर जाने वाला है, लेकिन जहां उसकी राष्ट्रीय भावना की परीक्षा है यानी शिक्षक के रूप में उसकी ड्यूटी वहां वह इस राष्ट्र की ऐसी-तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। कभी स्कूल न जाकर वह इस देश की आने वाली नस्ल का नुकसान करके जो राष्ट्रद्रोह कर रहा है उसको लेकर उसके मन में कभी पछतावा नहीं आता। यही हाल उस इंजीनियर का है जो बनने से पहले ही गिर पड़ने वाले पुल का निर्माण करा रहा है लेकिन राष्ट्रवाद की डींगें हांकने में उसका कोई सानी नहीं है। उसे यह ख्याल नहीं है कि उसका बनाया पुल गिरेगा तो उसमें दबकर मरने वाले पाकिस्तानी नहीं भारतीय होंगे। फीस देने में असमर्थ मरीज को मरने के लिए अपनी चौखट पर बाहर छोड़ देने वाला डाक्टर भी राष्ट्रभक्ति की जबानी जमा-खर्च में किसी भी सीमा तक क्रांतिकारिता दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहता। क्या कोई देश कभी मजबूत हो सकता है जहां के डाक्टर अपने देश के मरीजों को पैसे के लिए मार डालने को तत्पर रहते हों।

भारतीय संस्कृति की महानता के गीत गाने वालों का भी पाखण्ड कुछ कम नहीं है। लेकिन सही यह है कि इंडिया बनाम भारत की खाई को चौड़ा करके इस देश की नींव खोखली करने में लगी कॉन्वेंट शिक्षा प्रणाली को मुनाफे के लिए पोसने में ऐसे लोगों को कभी अपराधबोध नहीं होता। यह लोग कभी नहीं सोचते कि कन्या भोज करने की भारतीय परम्परा के बीच कन्याओं से वेटर का काम कराना उनकी संस्कृति के हिसाब से बहुत बड़ा पाप हो सकता है। फैशनपरस्ती के नाम पर जातीय संस्कृति को किसी भी सीमा तक भुला देना जिनको गवारा है वे लोग देश और यहां की संस्कृति का क्या उद्धार करेंगे, इसलिए सतही राष्ट्रवाद का शिकार बनकर इतिहास की गलतियों को दोहराते हुए देश को कमजोर करने की बजाय महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुके इस देश को सर्वोपरि बनाने के लिए राष्ट्रीय भावनाओं की यथार्थ कसौटियों पर बकवासियों को कसने की जरूरत है। राष्ट्रीयता की कसौटी से जुड़ी ड्यूटी से गद्दारी करने वालों को जूते मारकर ठीक करने की जरूरत है। अगर यह हो जाये तो भारत के महाशक्ति से सर्वोपरि महाशक्ति बन जाने के लक्ष्य की पूर्ति में भी देर नहीं लगेगी।

 

Leave a comment

I'm Emily

Welcome to Nook, my cozy corner of the internet dedicated to all things homemade and delightful. Here, I invite you to join me on a journey of creativity, craftsmanship, and all things handmade with a touch of love. Let's get crafty!

Let's connect

Recent posts