उत्तर प्रदेश में भाजपा ने भूतो न भविष्यतो बहुमत हासिल किया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा को इतने बड़े पैमाने पर बहुमत मिला है कि पार्टी के नेताओं ने भी जिसकी कल्पना नहीं की थी। यह बहुमत हिंदू मॉडल के सामाजिक ढांचे की बहाली के लिए कुछ वर्गों की उत्कट अभिलाषा की देन है। जिन्होंने आस्था के नाम पर उनको भी अपने साथ बड़े ज्वार के रूप में समेट लिया जिनकी आक्रामक चेतना हाल के वर्षों में उनके लिए सबसे ज्यादा चुभने वाली चीज रही है और यह तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण के विरुद्ध बहुसंख्यक आबादी के मन में जमा हो रहे गुबार के धमाकेदार विस्फोट का भी नतीजा है। ऐसे में प्रभावी प्रशासन और अभिनव विकास की कसौटी का कोई बहुत मूल्य नहीं रह जाता। जैसा कि इस चुनाव में हुआ भी है। मोदी सरकार के तमाम दुखदायी प्रयोगों के बावजूद भाजपा के अश्मेघ यज्ञ के घोड़े की लगाम उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में नहीं थामी जा सकी और अब तो मोदी के कट्टर आलोचक भी मान चुके हैं कि उनका जादू इस कदर छाया हुआ है कि अभी एक-डेढ़ दशक तक उसमें उतार की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। फिर भी मोदी अपनी ओर से पूरी तरह सतर्क हैं। देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाला राज्य होने की वजह से उत्तर प्रदेश पर वे अपनी टकटकी हटाने को तैयार नहीं हैं। इसलिये उनकी पूरी कोशिश है कि इस सूबे में भाजपा की सरकार ऐसी हो जिसकी कार्य़शैली से लोग चमत्कृत हो सकें ताकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के करवट बदलने की कोई नौबत न आने पाये।
20 मार्च को राज्य के नये मुख्यमंत्री की शपथ हो जाने की उम्मीद है। मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में ऐलान किया था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार बनते ही राज्य कैबिनेट की पहली बैठक में पहला फैसला किसानों की कर्जमाफी का किया जाएगा। किसान इसके इंतजार में बैठे हैं। मुहूर्त के चक्कर में सरकार का गठन एक सप्ताह से ज्यादा समय के लिए टालकर भाजपा ने उन्हें और अधीर कर दिया है। इसलिये यह फैसला टलेगा नहीं और तात्कालिक रूप से यह प्रदेश के किसानों में भाजपा के प्रति और ज्यादा जोश बढ़ाने वाला फैसला साबित होगा।
लेकिन 2019 आते-आते इस फैसले की चमक समय के साथ धुंधला जायेगी इसलिए राज्य सरकार को इससे भी बढ़कर काम करने होंगे जो स्थायी छाप छोड़ने वाले हों। राज्य में सबसे बड़ा मुद्दा खराब कानून व्यवस्था को सुधारने का रहा है। मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह जब तक अखिलेश पर हावी रहे उनकी सरकार जंगलराज का पर्याय घोषित होती रही। कानून व्यवस्था के मामले में अपने रिकार्ड पर मायावती इतनी मुग्ध थीं कि वह सपा सरकार में पहले दिन से मानती रहीं कि जिस दिन नया चुनाव होगा उन्हें बैठे-बैठाये वापस सत्ता मिल जाएगी। इस अति आत्मविश्वास की वजह से उन्होंने बहुत नादानियां कीं। नाराज ओबीसी को मनाने की उन्होंने कोई कोशिशि नहीं की बल्कि उनके नेताओं को एक के बाद एक जलील करके पार्टी से भगाती रहीं। उप चुनाव न लड़ने का फैसला करके उन्होंने अपने गुरु कांशीराम की सारी मेहनत गुड़-गोबर कर दी, जिन्होंने दबे-कुचले वर्ग का जमीर जगाने के लिए लम्बी तपस्या की थी। जिसके दौरान उन्होंने बार-बार यह कहकर उनकी अंतरात्मा को झकझोरा था कि वोट बेचना अपनी बहू-बेटी बेचने के बराबर है। पदोन्नति में आरक्षण का लाभ प्राप्त करने वाले दलित अफसर जब रिबर्ट हुए तो अंदाजा किया जा रहा था कि मायावती इसे मुद्दा बनाकर सड़कों पर उतरेंगी पर दलित पिटते और अपमानित होते रहे और मायावती दिल्ली में आराम फरमाती रहीं।
विधानसभा चुनाव का समय आने के कुछ महीने पहले लखनऊ आकर उन्होंने आये दिन पत्रकार वार्ता के माध्यम से मोर्चा संभाला, जिससे कुछ होने-हवाने वाला नहीं था और अंत में जब मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण की बयार बह रही थी, उन्होंने चुनावी मंचों पर सबसे ज्यादा मुसलमानों को टिकट देने का पहाड़ा लगातार पढ़ा जिससे भाजपा के पक्ष में रही-सही कसर भी पूरी हो गई। कायदे से भाजपा को उनका आभारी होना चाहिए जो उनकी बेमौके की मुस्लिम टिकटों की दुहाई से उसे अपने पक्ष में 10 से 15 प्रतिशत और ज्यादा ध्रुवीकरण कराने में सफलता मिली।
कानून व्यवस्था के मुद्दे की चर्चा करने में चुनाव के दौरान भाजपा का नेतृत्व भी पीछे नहीं रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी हर सभा में कहा कि अखिलेश राज में यूपी के थाने समाजवादी पार्टी का दफ्तर बना दिये गये हैं। एंटी-इनकम्बेंसी भावनाओं की ज्वाला को भड़काने में मोदी के भाषण के इस पहलू ने कपूर का काम किया। लेकिन इसके साथ-साथ लोगों में यह सपना भी जगाया कि भाजपा के आते ही यह माहौल रातोंरात बदल जायेगा। दूसरी ओर चुनाव के बाद सरकार के गठन में देरी से शासन में जो वैक्यूम आ गया है उसके चलते अपराध की घटनाएं अभी भी बदस्तूर जारी हैं। जाहिर है कि लोगों को इससे बहुत निराशा हो रही है इसलिए ठोस कदम के मामले में नई सरकार के सामने सबसे पहली चुनौती यही बन गई है कि कैसे एक झटके में वह अपराधियों का मनोबल गिरा पाती है और अनुशासन का माहौल बनाने के लिए वह कौन सी जादू की छड़ी का इस्तेमाल करती है जिससे कानून व्यवस्था के बेपटरी बने रहने की कोई गुंजाइश न रह जाये।
यह काम निर्भर करता है प्रदेश में पुलिस के मुखिया पद पर ऐसे अफसर की तैनाती पर जिसका रिकार्ड ऐसा हो कि उसका नाम ही सुधार के लिए काफी हो जाये। उत्तर प्रदेश कैडर में डीजी स्तर के 21 आईपीएस हैं जिनमें कई नौकरी की शुरुआत में गजब के तेजतर्रार थे लेकिन बाद में उनके तेवर राजनीतिक दबाव का सामना न कर पाने, लोभ बढ़ जाने और अन्यान्य कारणों से बरकरार नहीं रह सके। फिर भी भाजपा का एक वर्ग चाहता है कि डीजीपी की नियुक्ति के मामले में विवाद से परे रहने के लिए सीनियर मोस्ट आईपीएस अफसर को चुना जाये। लेकिन यह फैसला लोगों को नाउम्मीद भी कर सकता है इसलिए डीजी स्तर के पुलिस अधिकारियों की लंबी सूची में केवल एक नाम पर भाजपा के उन नेताओं की निगाह पहुंचकर जम रही है जो कानून व्यवस्था में करिश्माई बदलाव को लोगों के विश्वास पर पार्टी को खरा साबित करने के लिए अनिवार्य मानते हैं। यह नाम है सूर्यकुमार शुक्ला का, जिनकी नौकरी की शुरुआत प्रदेश की राजधानी लखनऊ से उस समय हुई जब माफियाओं के बीच वहां सड़कों पर छिड़ा गैंगवार सरकार के अस्तित्व का मखौल उड़ाता था। उस दौर के साक्षी रहे लोग आज भी दो ही अफसरों का नाम जांबाजी के मामले में याद करते हैं जिनमें बृजलाल और सूर्यकुमार शुक्ला शामिल हैं। सूर्यकुमार को बाद में लखनऊ में एसएसपी के रूप में भी काम करने का मौका मिला। वीवीआईपी गण्यमान्यों का शहर होने की वजह से यहां पुलिस व्यवस्था को अमूर्त होना पड़ता है। लेकिन सूर्यकुमार ने अपने कार्यकाल में इस धारणा को बदला। भले ही क्रीमीलेयर के लोगों को उस समय उनकी कार्यशैली में पुलिस राज नजर आया हो लेकिन बाद में जब लखनऊ में हद दर्जे का जंगलराज बढ़ता चला गया तो वही लोग यह कहते सुने जाने लगे कि लखनऊ में अगर राजधानी जैसा बनाना है तो सूर्यकुमार शुक्ला जैसे अफसर के हाथ में पुलिस की कमान होनी चाहिए जिनके रहते कानून के खिलाफ पत्ता तक नहीं खड़क पाता था।
1991 के चुनाव में जब टीएन शेषन ने इटावा का चुनाव रद्द कर वहां अलग से चुनाव कराया था उस समय सूर्यकुमार वहां एसएसपी रहे और उन्होंने काबू में न आने वाली इटावा की राजनीतिक हस्तियों को जिस तरह से कानून के पिंजड़े में जकड़ कर रखा उसकी मिसाल दी जाती रहेगी। डीआईजी रेंज और आईजी के बतौर पोस्टिंग में भी सूर्यकुमार ने अपना यह कीर्तिमान जारी रखा इसीलिए उनके प्रमोशन के बाद अखिलेश सरकार ने पहले उन्हीं को डीजीपी की कुर्सी सौंपने का मन बनाया था लेकिन कान भरने वालों की वजह से बाद में वे अपने इस फैसले को अमली रूप नहीं दे सके और उन्होंने सूर्यकुमार को डीजी अभियोजन की कुर्सी पर धकेल दिया। अन्य डीजी जो अभियोजन में भेजे गये इसे सजा मानकर शासन को कोसने के अलावा कोई काम नहीं करते थे। ऐसा लगता था कि अभियोजन निदेशालय में अफसरों का कोई काम ही नहीं है लेकिन सूर्यकुमार ने यहां भी निष्ठावान अधिकारी के रूप में इतनी लगन से कार्य किया कि डीजी अभियोजन की पहचान डीजीपी से भी ऊपर हो गई। उनके व्यक्तिगत रुचि लेने के वजह से अभियोजन की पैरवी में इतनी कसावट आ गई कि पिछले डेढ़-दो साल में जितने आपराधिक मुकदमों में सजाएं हुईं वह प्रदेश के इतिहास में रिकार्ड है।
बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति में सुधार तब आया था जब सजा का प्रतिशत बढ़ा। उत्तर प्रदेश भी सूर्यकुमार के डीजी अभियोजन रहते इसी रास्ते पर चला। जाहिर है कि आने वाले दिनों में इसके कारण बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी लोग अपराध करने से तौबा कर जाएंगे। अखिलेश सरकार चाहती तो कानून व्यवस्था के मामले में अपने खिलाफ तमाम आरोपों का सामना अभियोजन विभाग की उपलब्धियों को आगे करके कर सकती थी और बता सकती थी कि उसने सबसे अच्छा रोडमैप अपराध नियंत्रण के लिए तैयार किया है जिसके शानदार नतीजे जल्द ही सामने आने लगेंगे। पर अपने पूर्वाग्रहों की वजह से अखिलेश सरकार से अभियोजन निदेशालय की कारगुजारी नजरंदाज हो गई।
बहरहाल जो भी हो कानून व्यवस्था के मुद्दे की अहमियत से प्रदेश के नये मुख्यमंत्री अपरिचित नहीं होंगे इसलिए इस मामले में उन्हें राज्य की जनता को आश्वस्त करने के लिए कुछ ही हफ्तों में परिणामकारी कदम अनिवार्य रूप से उठाने पड़ेंगे।







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