शपथ ग्रहण के बाद भी यूपी में नई सरकार पंगु क्यों !

11 मार्च को विधानसभा चुनाव की मतगणना के साथ ही उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को दो तिहाई से ज्यादा बहुमत की तस्वीर साफ हो गई थी इसलिए चुनाव आचार संहिता के चलते सुसुप्तावस्था में पड़े प्रदेश के शासन को तत्काल हरकत में लाने में भाजपा के सामने कोई समस्या नहीं रह गई थी। लोग भी चाह रहे थे कि नई सरकार कुछ ही घंटों में कार्यभार संभाल कर प्रशासन के जाम पहियों को गति प्रदान करे जिससे चुनाव के दौरान उनके जरूरी कामकाज तक में आयी रुकावट का अंत हो और सार्वजनिक जीवन में उमंग के संचार की बहाली हो सके। लेकिन अजीब बात यह है कि बाहरी कोई चुनौती न होते हुए भी पार्टी इस मामले में अनिश्चितता के भंवर में फंस गई। सरकार के गठन में डिले को लेकर होलाष्टक का बहाना बताया गया लेकिन अगर यह बहाना सच होता तो 20 मार्च को होलाष्टक की समाप्ति के बाद ही सरकार का गठन किया जाता पर एक दिन पहले ही नई सरकार को शपथ दिला दी गई।

जाहिर है कि कोई शकुन-अपशकुन का कारण सरकार के गठन के पीछे नहीं था। विशुद्धतम राजनैतिक समस्याएं थीं जिसके कारण भाजपा का नेतृत्व चुनाव के बाद से अभी तक पशोपेश में है। 19 मार्च को जम्बोजैट मंत्रिमंडल के साथ नये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शपथ ग्रहण तो कर ली है लेकिन निर्धारित हो जाने के बावजूद उनके द्वारा कैबिनेट की बैठक को टाल दिया जाना, नौकरशाही के स्तर पर अपेक्षित बदलाव को अंजाम न दिया जाना यह जताने वाला रहा कि अभी भी हालात तदर्थ हैं। सरकार की शुरुआत उधेड़बुन के बीच होना अच्छे आसार की निशानी नहीं कहा जा सकता इसलिए उत्तर प्रदेश की जनता ने जिस आशा के साथ भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया है उस पर ग्रहण के आसार बनने लगे हैं।

हम पहले भी कह चुके हैं कि शुरू से ही यह तय था कि आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जायेगा लेकिन किसी रणनीति के तहत इस पर तत्काल अमल से परहेज किया गया। पर्दे के पीछे कोई था जो टीवी चैनलों पर कभी राजनाथ सिंह का तो कभी मनोज सिन्हा का नाम नये मुख्यमंत्री के बतौर चलवा रहा था। राजनाथ सिंह ने पत्रकारों के इस बाबत सवाल पर एक दिन आजिज आकर कह दिया कि क्या फालतू की बात करते हैं। फिर भी टीवी चैनलों पर उऩका नाम लिया जाना बंद नहीं किया गया। 24 घंटे दर्शकों को अटकाये रखने की बाध्यता के नाते लगातार ब्लफबाजी करना टीवी चैनलों की मजबूरी है। इसलिए कभी-कभी सामने दीवार पर लिखी इबारत भी वे नजरंदाज कर देते हैं। मनोज सिन्हा के मामले में भी ऐसा ही हुआ। शुक्रवार को मनोज सिन्हा ने संसद परिसर में मीडिया से साफ कहा कि वे यूपी के सीएम की रेस में नहीं हैं और न ही उन्हें इससे कोई सरोकार है कि कौन-कौन इस रेस में है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि सोमवार को वे फिर आप लोगों को इसी जगह मिलेंगे। इसके बावजूद शनिवार की दोपहर तक टीवी चैनलों पर मनोज सिन्हा का नाम यूपी के नये सीएम के बतौर लगभग पक्का का राग अलापा जाता रहा। इस बुद्धिहीनता को क्या कहा जाये।

लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सीएम के मामले में लोगों को भरमाने का काम भाजपा के खेमे से ही प्रभावशाली लोगों द्वारा किया जा रहा था। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सतीश महाना को विशेष व्यवस्था के तहत दिल्ली बुलाने का प्रयोजन क्या था। इसी तरह अटकलों को हवा देने के लिए सुरेश खन्ना को भी अचानक दिल्ली बुलवाया गया और उसको प्रचारित भी करवाया गया। जाहिर है कि योगी आदित्यनाथ को सीएम की शपथ दिलवाने के पहले पार्टी में कुछ लोगों की मंशा को तौले जाने के काम के तहत इस तरह के नाटक किये जा रहे थे। दरअसल मामला कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाने वाला था।

अंततोगत्वा शनिवार को दोपहर बाद नाटकीय ढंग से यह जाहिर किया गया कि सीएम का ताज योगी आदित्यनाथ के सिर पर रखा जायेगा। यह कुछ एंटी क्लाइमेक्स अंदाज में कराया गया आभास था। जिसने मीडिया के पंडितों को कुछ देर के लिए हतप्रभ कर दिया पर उनके सामने बहुत मौका नहीं था। वे इस उलटबांसी का पोस्टमार्टम करके अनर्थ करने वाले अर्थ निकालते लेकिन उन्हें इतना मौका ही नहीं दिया गया क्योंकि यह ऐलान हो चुका था कि शाम 5 बजे भाजपा विधायक दल की बैठक में औपचारिक रूप से योगी का नाम तय कराया जाएगा इसलिए मीडिया को विधायक दल की कुछ ही घंटों बाद होने वाली बैठक की माथापच्ची में मशरूफ हो जाना पड़ा। इसके बाद फिर मीडिया को चकमा दिया गया। लोक भवन में सारे विधायक तो शाम 5 बजे तक पहुंच गये लेकिन भाजपा हाईकमान के पर्यवेक्षक वेंकैया नायडू, भूपेंद्र यादव और मनोनीत किए जाने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्या के बीच वीवीआईपी गेस्ट हाउस में ही गुफ्तगू चलती रही। लम्बी प्रतीक्षा के बाद उन लोगों का लोक भवन में पहुंचना हुआ। तब तक पर्याप्त समय हो चुका था इसलिए विधायक दल में योगी को नेता चुने जाने की प्रक्रिया को साधारण तौर पर कवर करने के अलावा मीडिया के सामने कोई कलाकारी दिखाने का अवसर नहीं रहा।

विधायक दल की बैठक में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उन्हें सुचारु रूप से काम करने के लिए दो उप मुख्यमंत्री चाहिए। निश्चित रूप से उनका यह कथन स्वैच्छिक नहीं था बल्कि इसके लिए बाध्यकारी स्थितियां थीं। भले ही जल्दबाजी की वजह से मीडिया को यह तथ्य तत्काल में नजरंदाज करना पड़ा हो। दरअसल भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने कई मजबूरियों के चलते योगी को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपने की बात तो मान ली थी लेकिन उसकी मंशा यह भी पहले ही दिन से बनी हुई थी कि योगी को किसी कीमत पर फ्री हैंड नहीं किया जाएगा। इसलिए रविवार को शपथ ग्रहण के बाद भी योगी सरकार के वर्किंग मोड में न आ पाने को लेकर रात तक यह चर्चाएं शुरू हो गईं कि कहीं योगी बतौर मुख्यमंत्री शोपीस मात्र तो नहीं रहेंगे।

उनके साथ दो उप मुख्यमंत्रियों को शपथ दिलाया जाना इसी बात का संकेत था कि योगी की कार्यक्षमता पर भाजपा शीर्ष नेतृत्व को बहुत भरोसा नहीं है। इसके साथ ही विधायक दल की बैठक होने के पहले ही पीएमओ में तैनात वरिष्ठ नौकरशाह नृपेंद्र मिश्रा को लखनऊ पहुंचा दिया गया था। अब इसका मंतव्य स्पष्ट हो रहा है। प्रशासन की जो टीम नई सरकार के तहत प्रदेश में बनेगी उसके चेहरे तय करने का काम योगी की बजाय नृपेंद्र मिश्रा करेंगे। प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारें शपथ ग्रहण करते ही एक्शन मोड में आ जाती थीं और पहले मारे सो मीर की तर्ज पर तत्काल कई प्रभावी घोषणाएं कर देती थीं। यह काम मुलायम सिंह के समय भी हुआ, मायावती के समय भी और अखिलेश के समय भी इसलिए प्रदेश के लोगों को आदत पड़ गई है कि वे नई सरकार के पहले दिन और पहले घंटे ही चौंकाने वाले काम देखें लेकिन योगी सरकार द्वारा मंत्रिमंडल की परिचयात्मक बैठक मात्र पहले दिन करके छुट्टी पा लेने से लोगों को धक्का लगा है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।

योगी के मंत्रिमंडल में 22 कैबिनेट, 9 स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्री और 13 राज्यमंत्री शामिल किए गए हैं। इनमें कई विवादित चेहरे हैं। तमाम चेहरे दूसरे दलों से चुनाव के दौरान शामिल हुए नेताओं के हैं। योग्यता और दक्षता की बजाय क्षेत्रीय और जातिगत संतुलन साधने की कवायद मंत्रिमंडल के गठन में नजर आती है इसलिए भी सरकार के प्रभावी होने पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।

अफरातफरी जैसे हालातों की ही वजह है कि 11 मार्च के बाद भाजपा की धमक के मुताबिक अधिकारियों की कार्यशैली में जो परिवर्तन नजर आना चाहिए था वह नहीं आ पा रहा है। खासतौर से क्राइम के फ्रंट पर अचानक दुस्साहसिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है। योगी की जिस तरह की सख्त छवि है उसके मद्देनजर शनिवार के बाद से तो अपराधियों में खौफ नजर आना ही चाहिए था लेकिन प्रदेश के किसी हिस्से में इसका असर नजर नहीं आया। शुरुआत में ही सरकार का दबदबा बनता न दिखाई देना अच्छा लक्षण नहीं कहा जा सकता।

सरकार नये डीजीपी की तैनाती को लेकर पशोपेश में है जबकि कानून व्यवस्था के मोर्चे पर बढ़त लेना नई सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है। नृपेंद्र मिश्रा के लखनऊ में डेरा डाले होने के बावजूद सक्षम डीजीपी के चयन में देरी अबूझ है। इस मामले में बहुत दुविधा की स्थिति भी नहीं होनी चाहिए। चुनाव परिणाम आने के दिन से ही प्रदेश का जनमानस सूर्यकुमार शुक्ला के नाम को लेकर क्लियरकट है। उऩकी कार्यप्रणाली के कई पहलू हैं जिनसे वे भाजपा सरकार की वांछनीयताओं की कसौटी पर सर्वोपरि ठहरते हैं। लेकिन सबसे बड़ा पहलू है माफियाराज का भेदन करने की उनकी साख जो उन्होंने सन 2000 में गोरखपुर रेंज के डीआईजी रहते हुए बिहार के दुर्दांत माफिया सरगना शहाबुद्दीन की चूलें हिलाकर कमाई थी। नृपेंद्र मिश्रा जैसे पारखी अफसरों को तो यह बहुत अच्छी तरह याद होगा कि तब शहाबुद्दीन के नैक्सस के बारे में कैसी-कैसी चर्चाएं थीं। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के कोआर्डिनेशन में शहाबुद्दीन और उत्तर प्रदेश के दो माफिया मिलकर भारतीय राजसत्ता को चुनौती देने का दुस्साहसिक बीड़ा उठा चुके थे। पुलिस की शहाबुद्दीन से भिड़ने की हिम्मत नहीं रह गई थी। तभी देवरिया पुलिस की टीम को साथ लेकर सूर्यकुमार शुक्ला ने सीवान में शहाबुद्दीन की मांद में जाकर धावा बोला जिसमें सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक जबर्दस्त इनकाउंटर हुआ। इस इनकाउंटर में पुलिस का एक आदमी घायल नहीं हो पाया लेकिन शहाबुद्दीन के 10 गुर्गे मारे गये और इसी के बाद है कि शहाबुद्दीन के बारे में लोगों को अहसास हो गया कि ऊंट की हालत पहाड़ के नीचे आने पर क्या होती है। तबसे शहाबुद्दीन फिर कभी नहीं उबर पाया और देश को चुनौती देने का एक बहुत बड़ा खतरा टल गया।

सूर्यकुमार जैसे अफसर के रहते हुए भी नये डीजीपी के चयन में देरी से बहुत गलत संदेश जा रहा है।  ऐसा लग रहा है कि भाजपा को प्रदेश के अफसरों की बहुत पहचान नहीं है या प्रदेश में उसके काम के लायक अफसरों की कमी है। यह दोनों ही धारणाएं उसे बेहद नुकसानदेह साबित होंगी। इसलिए उत्तर प्रदेश में भाजपा को तदर्थवाद से उबरकर अपनी सरकार को तत्काल एक्शन में लाना होगा। अन्यथा हाल में नई नवेली दुल्हनिया के स्वागत की वेला होने की वजह से अभी उस पर बहुत उंगलियां न उठें लेकिन अचेतन में उसकी क्षमताओं को लेकर लोगों में ऐसा बीजारोपण हो सकता है जो आने वाले दिनों में प्रचण्ड बहुमत के बावजूद उसके प्रति प्रचण्ड जनअसंतोष कारण बन जाए।

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