कहां तक रंग ला पाएगी लालू की मुहिम

मोदी युग में भाजपा जिस तरह बढ़त लेती जा रही है उससे ऐसा लगता है कि जैसे देश में एकदलीय शासन कायम हो चुका हो। भाजपा की विराट सफलता और अभेद्य किलेबंदी के चलते विपक्ष में किंकर्तव्यविमूढ़ता की हालत है। ऐसे में उसके मुकाबले के लिए नये समीकरणों की तलाश लाजिमी है। राजद के सुप्रीमो लालूप्रसाद यादव ने उत्तर प्रदेश में भाजपा से पार पाने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन की वकालत शुरू कर दी है। उनका कहना है कि बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी वास्तविक महागठबंधन सेकुलर दलों में हो जाए तो देश के सबसे बड़े सूबे में भी राजनीति का सूरत-ए-हाल बदल सकता है। विडम्बना यह है कि लालूप्रसाद यादव उत्तर प्रदेश में विपक्ष के महागठबंधन की वकालत कर रहे हैं तो उनके गृह राज्य बिहार में उन्हीं के पुत्र तेजस्वी यादव ने राजद के कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है कि वे 2019 का चुनाव बिहार में अकेले लड़ने के लिए कमर कस लें। जाहिर है कि बिहार में महागठबंधन के बीच निभ नहीं पा रही है और इसलिए महागठबंधन राजद को भारी लगने लगा है।

हालांकि लालू ने भाजपा के विरुद्ध मोर्चे में बसपा को शामिल करने की वकालत एकाएक नहीं की है। संयुक्त मोर्चा के दौर में भी तीसरी शक्ति को मजबूती देने के लिए उन्होंने जनता दल और बसपा को एक गठबंधन के तले लाने का भरसक प्रयास किया पर उसमें कामयाबी मायावती के अड़ियल रवैये की वजह से नहीं मिल पाई। उस समय मुलायम सिंह लालू की कोशिश के पीछे विश्वनाथ प्रताप सिंह की अपने को नीचा दिखाने की चाल मानते थे इसलिए उन्होंने भी इस सम्भावित गठबंधन को आकार न मिलने देने का बड़ा जतन किया। आज मुलायम लालू के चढ़ती के रिश्तेदार बन चुके हैं। लालू इसके नाते कोई भी राजनीतिक कदम उठाने के पहले मुलायम सिंह यादव की सुविधा का ख्याल करना नहीं भूलते। उनकी इसी कमजोरी की वजह से नीतीश और उनके सम्बंधों में दरार आयी है। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जिस तरह मुलायम सिंह ने रंग बदला था उससे महागठबंधन की हवा को बेहद धक्का पहुंचा था। नीतीश मुलायम सिंह के इस विश्वासघात को भूल जाने को तैयार नहीं हैं। मुलायम सिंह के मुकरने से नुकसान तो लालू को भी हुआ था लेकिन लालू के लिए आज राजनीतिक लाइन से ज्यादा महत्वपूर्ण रिश्तेदारी है इसलिए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को मजबूत रखने के लिए उन्होंने नीतीश की इच्छा के विरुद्ध पूरा जोर लगा दिया। नीतीश का दुर्भाग्य यह रहा कि उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके पूर्व  राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी सपा के रजत जयंती समारोह में शामिल होने लखनऊ चले गये। जातिवाद की हूक सर्वत्र नेताओं को ओतप्रोत कर गई और इसमें अंधे होकर उन्होंने आत्मघाती रास्ता चुनने से भी परहेज नहीं किया।

बहरहाल लालू के पास विचारधारा पर आधारित एक राजनीतिक दृष्टि भी है लेकिन दूसरी ओर परिवारवाद और जातिवाद के प्रभाव ने भी उऩको बुरी तरह ग्रसित कर रखा है। जिसकी वजह से उनकी राजनीति दिशाहारा होकर बियाबान में भटकने को मजबूर हो रही है। बाबा साहब अंबेडकर और लोहिया जी दोनों ने ही बेहतर लोकतंत्र के लिए समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को पहली शर्त मानते हुए जिस राजनीतिक दिशा पर बल दिया था उसमें वर्ण व्यवस्था से पीड़ित सामाजिक वर्गों को एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा किया जाना लाजिमी था। जनता दल के समय काफी हद तक इस मामले में सफलता मिली। लेकिन व्यक्तिवाद ने अंततोगत्वा इस वास्ते हुए पूरे संघर्ष का मटियामेट कर दिया। गठजोड़ तो सपा और बसपा के बीच भी हुआ था लेकिन इसके निहितार्थ कुछ और ही थे। वंचितों को अधिकार संपन्न बनाने के जनता दल के तूफान की काट के रूप में यह गठजोड़ सामने आया इसलिए तासीर में इसका प्रभाव प्रगतिशील परिघटना की बजाय प्रतिक्रांति के रूप में फलित होना स्वाभाविक ही रहा। इसके बाद व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को मिशन से ऊपर करके मायावती ने प्रतिगामिता की इंतहा ही कर दी। उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर बार-बार सरकार बनाई लेकिन लालू यादव के गठजोड़ के प्रस्ताव को बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया।

आज पूरा परिदृश्य बदल चुका है। वर्ण व्यवस्था से पीड़ित वर्गों में पिछड़ों के साथ-साथ दलित भी अपना दर्द भुलाकर धार्मिक भुलावे में भाजपा की गोद में जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश में उन्हें सतर्क करने का कोई काम नहीं हुआ। इसकी बजाय प्रशांत किशोर को जड़ी-बूटी के रूप में हायर करके कांग्रेस ही नहीं सपा भी अपने उद्धार का दिवास्वप्न देखती रही। बिहार में भाजपा के चक्रवर्ती रथ को थामने के पीछे प्रशांत किशोर नहीं थे, यह बात इन पंक्तियों के लेखक ने बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम के सामने आने के बाद लिखी भी थी। अगर प्रशांत किशोर की वजह से बिहार में महागठबंधन को सफलता मिली होती तो प्रशांत किशोर की सेवाएं नीतीश ने खरीदी थीं न कि लालू ने  इसलिए बड़ी पार्टी जनता दल यू को होना चाहिए था जबकि ज्यादा सीटें लालू के राजद को मिलीं। वजह साफ है कि लालू ने वर्ण व्यवस्था को बेलाग होकर जिस तरह चुनाव अभियान में ललकारा उससे भाजपा पिछड़ों को अपने झांसे में नहीं ले सकी।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में सेकुलर दल इस मामले में मुंह चुराकर चमत्कारी तरीकों से जीत का रास्ता तलाशते रहे। नतीजतन भाजपा ने उनसे उनकी जमीन छीन ली। यहां कांग्रेस की जो गति हुई वह तो हुई ही सपा और बसपा को भी शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। लालू ने सपा और बसपा के बीच गठबंधन की बात कहकर हार के कारणों की असली नब्ज पकड़ी है। लेकिन अभी भी सवाल यह है कि बसपा इस प्रस्ताव को कितना भाव देगी।

सामाजिक न्याय की राजनीति भाजपा से मुकाबले में सर्वाधिक कारगर मंत्र सिद्ध हो सकती है लेकिन इस राजनीति की अपनी कुछ अपरिहार्य वांछनीयताएं हैं। वर्ण व्यवस्था में अमानवीय दमन के बीज थे। जिसमें तमाम तरह की अनैतिकताओं को पल्लिवत और पोषित किया गया था। इसलिए बेहद जरूरी था कि सामाजिक न्याय की राजनीति को यह ध्यान रखते हुए आगे बढ़ाया जाए कि भेदभाव से मुक्त सामाजिक व्यवस्था होने पर सामाजिक पर्यावरण सारी अनैतकिताओ से किस तरह मुक्त होगा। पर हुआ इसका उल्टा। व्यक्तिगत सत्तावाद ने सामाजिक न्याय की राजनीति को हाईजैक कर लिया। जिससे चाहे मुलायम सिंह हों चाहे मायावती और लालू, इन लोगों ने जिस तरह मनमानी और भ्रष्टाचार को प्रश्रय दिया उससे तो यह लगा कि चीजें वर्ण व्यवस्था के कारण सधी हुई थीं और उसे छेड़ने की वजह से व्यवस्था मिट गई अव्यवस्था और अराजकता के विस्फोट ने पूरे तंत्र की नींव हिला दी। इसके चलते जो वितृष्णा लोगों मेें पैदा हुई वही भाजपा की अपार स्वीकार्यता का कारण बनी।

इसलिए सशक्त विकल्प का निर्माण करना है तो तीसरे ध्रुव के नेताओं को अपने तौर-तरीके बदलने होंगे। जब तक इस खेमे के नेता नैतिकता के स्तर पर अपने आपको भाजपा के नेताओं से बहुत ऊपर साबित नहीं करते तब तक स्थितियां बदलने वाली नहीं हैं। भले ही यह सही हो कि सकारात्मक परिवर्तन के लिए वर्ण व्यवस्था जैसी सामाजिक स्थितियों को हर सूरत में समाप्त होना चाहिए जो कि आधुनिक विश्व में बढ़त बनाने में भारत के सामने सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है।

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