उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों ही महागठबंधन के रास्ते पर आ गये हैं लेकिन अभी भी इस मामले में मंजिल को हासिल करना इतना आसान नहीं है। ईवीएम की जगह मतपत्रों से ही चुनाव कराने की पुरानी व्यवस्था की बहाली के लिए दोनों पार्टियां एक सुर में बोल रही हैं। महागठबंधन को लेकर समस्याएं मात्र इतने से हल नहीं हो सकतीं।
उत्तर प्रदेश में विपक्ष के लिए हतप्रभ करने वाले चुनाव परिणाम सामने आने के बाद राजद अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव ने सबसे पहले बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरोध में महागठबंधन का मुद्दा उछाला था। हालांकि चुनाव के काफी पहले जब सपा में अंदरूनी खींचतान चल रही थी उस समय मुलायम सिंह ने महागठबंधन बनाने के नाम पर ही अपनी पार्टी के सिल्वर जुबली शो में जनता दल परिवार को एक मंच पर इकट्ठा किया था, लेकिन मुलायम सिंह बसपा को महागठबंधन में लाने को तैयार नहीं थे और न ही मायावती इसके लिए राजी थीं। पर मुलायम सिंह ने तो समाजवादी पार्टी का सिल्वर जुबली अधिवेशन खत्म होने के बाद जनता दल यू, राजद, जनता दल (से.), हरियाणा विकास पार्टी, लोकदल आदि सभी को गच्चा दे दिया। बिहार विधानसभा चुनाव के समय इस मामले में उनकी विश्वसनीयता पर जिस तरह प्रश्नचिन्ह लगे थे उसमें एक और कड़ी जोड़कर उन्होंने इसमें और इजाफा कर लिया। मुलायम सिंह तो यूपी विधानसभा चुनाव की शुरुआत होने के पहले ही सियासत के मैदान से किनारे हो गये हैं और अब वे इस खेल में फिर से शामिल होंगे या हमेशा के लिए दूर ही बने रहने का निश्चय अपनाएंगे, अभी इस बारे में कुछ कह पाने में ऊहापोह की स्थिति है।
लेकिन यूपी के विधानसभा चुनाव के परिणाम ने भाजपा के सभी विरोधी दलों को करारा सबक दिया है इसलिए मायावती को अपना ईगो छोड़कर सपा के साथ गठबंधन के लिए तैयार होने की मंंशा जाहिर करनी पड़ी है। अखिलेश तो पहले ही कह चुके थे कि वे कांग्रेस के अलावा बसपा को भी अपने गठबंधन में साथ लाएंगे क्योंकि भाजपा की चुनौती का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक हो गया है। जनता दल यू का उत्तर प्रदेश में वजूद भले ही न हो लेकिन महागठबंधन में उसके शामिल होने से सामाजिक न्याय के नारे के प्रति अनुरक्त वोट बैंक को निश्चयात्मक रुख अपनाने में सहूलियत हो सकती है। जिसका मतलब होगा कि वे भाजपा के मोहपाश को झटक कर अपने घर में वापसी के लिए प्रेरित हों।
राजद तो रिश्तेदारी के नाते वैसे भी सपा के साथ है इसलिए अखिलेश जहां जाएंगे वहां लालू अपने आप चल पड़ेंगे। दूसरे लालू ने भाजपा के विरोध में कभी भी नरमी नहीं दिखाई। भाजपा के साथ राजनीतिक संदर्भों में उनका शाश्वत सत्यता का रिश्ता कायम हो चुका है। सो यह भी एक वजह है कि वे भाजपा की प्रचंड होती शक्ति को चूर करने के लिए वे ऐसे किसी भी गठबंधन के रचनाकार बनें जो वास्तव में भाजपा को आघात पहुंचा सकता हो। उन्होंने इस बीच कॉमन शत्रु को परास्त करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए जद यू के साथ बिगड़ते अपने रिश्तों को सुधारा है। उनका बेटा तो कुछ समय पहले पार्टी आयोजनों में कहने लगा था कि राजद बिहार विधानसभा का अगला चुनाव अकेले दम पर लड़ने की तैयारी करने में जुट गया है। लेकिन लालू ने इसमें सुधार किया। उन्होंने नीतीश का विश्वास जीतने के लिए दिल्ली के चुनाव में उनकी पार्टी के मुकाबले अपने कई प्रत्याशी वापस कर लिये। फिलहाल वे महागठबंधन के नेता के रूप में भी नीतीश को स्वीकार करने का इरादा जता रहे हैं। जाहिर है कि अगर बिहार में महागठबंधन बनाकर मोदी के जादू के तार-तार किया जा सकता है तो यूपी में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। लालू ने यह सोचा होगा।
लेकिन मुश्किल यह है कि मायावती के पास कोई राजनीतिक समझदारी नहीं है लेकिन अहंकार और हठधर्मिता चरमसीमा पर है। सपा के साथ गठबंधन करने का इरादा उन्होंने इसलिए जताया है कि वे अकेले दम पर राज्यसभा में एक सीट हासिल करने की स्थिति में भी नहीं रह गईं। इस कारण जल्द ही जब उनका राज्यसभा का वर्तमान कार्यकाल समाप्त हो जाएगा तो माननीय का कवच हट जाने से भाजपा उनका बड़ा अहित कर सकती है। माननीय का यह कवच बनाये रखने के लिए उनका सपा की ओर पींगें बढ़ाना स्वाभाविक है। मायावती जानती हैं कि भाजपा नेतृत्व प्रतीक्षा कर रहा है कब उनकी राज्यसभा की सदस्यता समाप्त हो और कब उनको जल्द से जल्द जेल के लिए बुक किया जाए। उनके भाई आनंद कुमार के खिलाफ भी पूरी घेरेबंदी हो चुकी है। इसी के बचाव के लिए उन्होंने आनंद कुमार को बसपा का उपाध्यक्ष बनाकर राजनीतिक दर्जा दिया है पर यह कितना कारगर होगा, यह अलग बात है।
लेकिन दो साल बाद ही जब लोकसभा के चुनाव होंगे तो तीसरे नंबर की पार्टी बन जाने के बावजूद वे सपा के लिए ज्यादा सीटें छोड़ने को तैयार हो सकेंगी इसमें पर्याप्त संदेह है। संदेह तो यहां तक है कि शायद वे एक भी सीट किसी सहयोगी को देने के लिए तैयार न हों क्योंकि जितनी ज्यादा जगह उनके उम्मीदवार लड़ेंगे उनके खजाने में उतना ही ज्यादा पैसा आएगा। अभी तक बसपा के टिकट के लिए बोली लगवाने की प्रथा ही चलती रही है और बहुत खराब परिणाम आने का बावजूद मायावती को शायद ही यह आशा हो कि अगले किसी चुनाव में कोई उनकी पार्टी से टिकट की बोली लगाकर चुनाव लड़ने नहीं आयेगा। यह तो जब वे अपनी पार्टी की दुर्दशा प्रत्यक्ष में देखेंगी तब उन्हें वास्तविकता का भान होगा। लेकिन शुरुआत में तो 2019 के लोकसभा चुनाव के समय सपा के साथ उनके गठबंधन का रायता फैलने के आसार ज्यादा हैं।
1993 में जब सपा-बसपा गठबंधन बना था तब दोनों की स्थितियां अलग-अलग थीं। 1991 के चुनाव ने मुलायम सिंह के राजनीतिक वजूद को हमेशा के लिए दफन करने का इंतजाम कर दिया था। उन्हें पुनर्जीवन की तलाश में बसपा ही एकमात्र सहारे के रूप में सूझ रही थी। इसलिए वे किसी भी शर्त पर बसपा से हाथ मिलाने को तैयार थे। कमोवेश यही हालत बसपा की थी। कांशीराम जनरल सीट से ही लोकसभा में पहुंचने का व्रत लिए बैठे थे लेकिन लगातार कई चुनाव हारकर वे तोड़ देने वाली हताशा से घिर चुके थे। मुलायम सिंह का सहारा मिलने के बाद अपनी इस हसरत को पूरा करने की रोशनी उन्हें दिखी जिससे वे भी उतावले हो गये कि किसी कीमत पर सपा के साथ अपने गठबंधन को कामयाब बनाएं। गठबंधन की कामयाबी की सबसे प्रमुख शर्त यह होती है कि इसमें शामिल होने वाली पार्टियों का बेस वोट किसी समान उद्देश्य के लिए जुनूनी हद तक तरंगित हो।
वह परिवेश जनता दल ने मंडल बनाम कमंडल की जद्दोजहद के बीच जबर्दस्त तरीके से तैयार कर दिया था। जिसमें बहुजन वोट सामाजिक सत्ता में निर्णायक बदलाव के जोश से आप्लावित था। उस वोट बैंक को इस मामले में सपा और बसपा में गठबंधन होने के बाद यह प्लेटफार्म ज्यादा मजबूत लगा। इसलिए सपा-बसपा गठबंधन को भारी बहुमत से जीत हासिल करने का रास्ता मिल गया। लेकिन दोनों ही पार्टियों के नेतृत्व ने बाद में साबित किया कि उनका कोई सैद्धांतिक लक्ष्य नहीं है। बदलाव के लिए व्याकुल बहुजन वोट बैंक को उन्होंने अपनी निजी सत्ता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जिसमें जनता दल बड़ी बाधा साबित हो रहा था, जो इस गठबंधन की कामयाबी के साथ ही निपट गया। इसके बाद इन दोनों पार्टियों ने ही उन सामाजिक शक्तियों से हाथ मिलाने का समीकरण बनाया जिनको शिकस्त देने की मंशा से बहुजन वोट बैंक उनके साथ हुआ था।
इस दिशाहीनता से सामाजिक न्याय की चेतना का पूरा शिराजा बिखर गया। हालांकि इस बीच किसी भी पार्टी के अपनी दम के नेता को आयात करके अपना उम्मीदवार बना लेने, थैलीशाहों व बाहुबलियों पर दांव लगाने इत्यादि तरह के हथकंडों से ये दल तात्कालिक रूप से आगे बढ़ते गये। लेकिन वैचारिक रूप से खोखले होते चले गये।
बिहार में महागठबंधन इसलिए कामयाब हुआ कि वह विचारधारा के मामले में बहुत साफ था। दूसरी ओर यूपी में हालत यह है कि महागठबंधन का जो टारगेट ग्रुप है उसे दोनों ही पार्टियां नहीं पहचानतीं। समाज के सफेदपोश वर्ग के आशीर्वाद की लालची रहने की वजह से उन्होंने वे काम किये जिससे उनका टारगेट ग्रुप छिटक कर दूसरों के पाले में चला जाए। अखिलेश यादव ने इसी मंशा के तहत मुख्यमंत्री बनने के बाद पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को वापस कराने में भूमिका निभाई। इसके बदले सफेदपोश तो उनके हो न सके लेकिन दलितों के मानस में अपने लिए उन्होंने जो शुबहा पैदा किया वह फिर से बसपा के साथ गठबंधन की चर्चाएं तेज होने के बावजूद खत्म नहीं हो पा रहा है।
दूसरी ओर बसपा की राजनीतिक समझदारी का आलम यह है कि उसका नेतृत्व टिकट देने में वरीयता तो उन्हें दे रहा था जो मन से आरक्षण समाप्ति की मांग के साथ है लेकिन इसके बावजूद मायावती चुनाव अभियान में उनकी सभाओं में यह कहकर लोगों को अपने साथ खड़ा होने के लिए ललकारती थीं कि अगर वे सत्ता में न आ पाईं तो भाजपा आरक्षण को खत्म कर देगी। इस बेवकूफी की वजह से उनके ही प्रत्याशियों का वोट सारे भ्रम तोड़कर भाजपा के साथ लामबंद होने के लिए तत्पर हुआ। इसी तरह मायावती ने विधानसभा चुनाव की हर सभा में मुसलमानों को दिए गए टिकटों की संख्या चिल्ला-चिल्ला कर बावजूद इसके बताई कि अंधा भी देख रहा था कि यूपी में इस समय हिंदुत्व की लहर जबर्दस्त उछाल मार रही है। जाहिर है कि इस वजह से मुसलमानों को सौ से ज्यादा टिकट देने की उनकी दुहाई हिंदुत्व के ज्वार को और वेग प्रदान करने में सहायक साबित हुई।
अभी भी मायावती राजनीतिक समझदारी का परिचय नहीं दे पा रहीं। पहले तो वे मुसलमानों की इतनी बड़ी हिमायती होने का दम भर रही थीं और अब कह रही हैं कि वे उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान नहीं बनने देंगी। मुसलमान उनकी इस बोली में खुद को जलील करने की भावना देख रहे हैं। भाजपा विरोधी गठबंधन में मुसलमानों का समर्थन सबसे पहले लाजिमी है। क्या बहिनजी के इस तरह के बयानों के बाद उनके शामिल रहते महागठबंधन मुसलमानों से कोई बहुत ज्यादा उम्मीद कर सकता है इसलिए महागठबंधन फिलहाल यूपी में सपा और बसपा को मनोवैज्ञानिक संबल तो दे सकता है लेकिन असलियत में इसे मूर्त रूप दिए जाने का मौका आने के बाद यह कितना कारगर रह पाएगा, इस मामले में शंकाएं ही शंकाएं हैं।







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