बहुजन समाज पार्टी फर्श से अर्श पर पहुंची थी जिसके बारे में यह कल्पना नहीं की गई थी कि मायावती के रहते हुए इस पार्टी का ऐसा हश्र हो सकता है। जब यह न केवल फिर से अर्श से फर्श पर पहुंच जाए बल्कि जमींदोज होकर इसका नामोनिशान मिटने की नौबत आ जाएगी। लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी लेकिन फिर भी पार्टी के लोगों को ही नहीं बाहरी लोगों को भी उम्मीद बरकरार थी कि विधानसभा चुनाव में बसपा मय ब्याज के वापसी करेगी इसीलिए विधानसभा चुनाव के पार्टी के टिकट की परम्परागत बोली के समय लोग बढ़-चढ़कर आगे आये। यही नहीं जब नोटबंदी की वजह से पार्टी के हुए नुकसान की भरपाई के लिए मायावती ने तय हो चुके प्रत्याशियों से कई लाख रुपये का तकाजा और कर दिया तो भी ज्यादातर उम्मीदवार पीछे नहीं हटे।
लेकिन विधानसभा चुनाव के परिणामों ने बसपा को उस हालत में पहुंचा दिया है कि मायावती भौचक हैं। हालत यह है कि वे खुद तक न तो दिल्ली में न ही लखनऊ में अपनी दम पर किसी सदन में पहुंचने की स्थिति में रह गई हैं। हालातों ने उनकी अक्ल इतने जबर्दस्त तरीके से ठिकाने की है कि अब वे अपने अहंकार को तिलांजलि देकर भाजपा के मुकाबले के लिए किसी से भी हाथ मिलाने की कसमें खा रही हैं। लेकिन उनकी पार्टी का पुनर्जीवन किसी भी तिकड़म से अब सम्भव हो पाएगा, इसके आसार नजर नहीं आ रहे हैं। उनकी पार्टी की तरह की हालत दूसरी पार्टियों की भी है इसलिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, जद यू सहित सभी मायावती को शामिल कर महागठबंधन बनाने की सहमति प्रदान कर रहे हैं। पर स्थितियों में अंतर है।
दूसरी पार्टियों के लिए अभी सम्भावनाएं शेष बची हैं। 1984 के चुनाव में भाजपा को पूरे देश में केवल 2 सीटें मिली थीं लेकिन फिर भी भाजपा का वजूद बरकरार रहा और 5 साल बाद ही भाजपा मुख्य धारा की पार्टी बनने की ओर सफलतापूर्वक अग्रसर होने लगी। उत्तर प्रदेश की दूसरी पार्टियों का भी भविष्य तात्कालिक सत्यानाश के बावजूद ऐसा ही हो सकता है। खासतौर से समाजवादी पार्टी की स्वीकार्यता अभी निशेष नहीं हुई है और वह फीनिक्स पक्षी की तरह आगे चलकर भाजपा से लोगों का मोहभंग होने की स्थिति में अपनी राख से फिर जिंदा होकर खड़ी हो सकती है।
बसपा के लिए सम्भावनाओं के दरवाजे बंद क्यों हैं, इस प्रश्न की तह में जाएंगे तो बहुत सी बातें उजागर होंगी। बसपा की प्रासंगिकता तब तक थी जब तक मायावती ने भाजपा के सहयोग से सरकार बनाने के बावजूद पेरियार की प्रतिमा लखनऊ में स्थापित कराने के लिए मंगवा ली थी। वर्णाश्रम धर्म के अनुशासन को उत्तम मर्यादा के बतौर स्थापित करने के विरुद्ध यह एक ऐसा प्रतिरोधकारी कदम था जिससे तमाम जुमलों की वास्तविक स्थिति स्पष्ट हो सकती थी। लेकिन मायावती ने खुद इस द्वंद्वात्मकता को ठिकाने लगाकर सारी बातें खत्म कर दीं। उनकी ही करतूत का परिणाम है कि दलितों तक में मो सम दीन न…. की सुग्रीव भावना फिर से बलवती हो गई। उनकी मूल पूंजी तक इसके चलते भाजपा में शिफ्ट हो चुकी है तो गैरों में समर्थक वर्ग तैयार करने का रास्ता उऩके पास कहां से बचा रह गया है।
मायावती ने इस बार बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिए थे। हार-जीत लगी रहती है लेकिन मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के पीछे उनका कोई न कोई तार्किक वैचारिक आधार होगा इसकी उम्मीद उनसे की गई थी पर चुनावों में उन्हें जो झटका लगा उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान न बनने देने जैसे मंचों से ऐलान के जरिये प्रकारांतर से जिस तरह मुसलमानों को अपमानित किया है, उसके बाद मुस्लिम समाज उनका साथ देगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
मायावती के मन में कहीं न कहीं यह डर बैठ गया है कि उनका वोटर तक हिंदुत्व के रंग में रंग चुका है। ऐसे में उनको मुसलमानों से दूरी बनानी होगी ताकि वे अपना वजूद बचा सकें। इसलिए न केवल उन्होंने उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान न बनने देने जैसी बेतुकी प्रतिज्ञा मंचों से गुंजाई बल्कि पार्टी में जिन नसीमुद्दीन को वे दो नंबर का दर्जा दे चुकी थीं उन्हें मुख्य कोआर्डिनेटर की जिम्मेदारी से मुक्त करने के साथ-साथ उत्तर प्रदेश बदर कर मध्य प्रदेश का जिम्मा सौंप दिया है। अब देखना यह है कि मायावती को मुसलमानों से अपना दामन झटकने का कितना सुफल हिंदुत्ववादी धारा से मिलता है।
मायावती ने नगर निकायों और अन्य छोटे चुनावों को पार्टी सिंबल पर लड़ने का ऐलान किया है। यह ठीक भी है लेकिन इसके पहले तो उन्होंने विधानसभा उप चुनाव तक न लड़ने का व्रत घोषित किया था। जो उनके बेस-वोट के आवारा हो जाने की मुख्य वजह बना। 1988 में उत्तर प्रदेश में जब 14 साल बाद नगर निकायों के चुनाव हुए थे उस समय कांशीराम ने बहुतायत में मुसलमानों को टिकट देकर जो प्रयोग किया था उसी का नतीजा था कि कांग्रेस की चूलें हिल गई थीं और बसपा को पैर जमाने का मौका मिला था। मायावती ने एक बार फिर नगर निकाय के चुनाव पार्टी सिंबल पर लड़ाने का ऐलान किया है। लेकिन इतिहास अपने को दोहराता है, उक्त प्रसंग में यह उदाहरण कतई प्रयोजनीय नहीं है। नगर निकाय के चुनाव में सर्वजन हिताय के ढोंग के तहत मायावती मर्यादाओं (वर्णाश्रम में) के पुजारियों को अधिक महत्व देने के लिए मजबूर रहेंगी जिससे अभी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी पार्टी नगर निकाय के चुनावों में कहां खड़ी नजर आएगी।
ऐसा नहीं है कि मायावती को अपनी पार्टी की प्रासंगिकता चुक जाने का अहसास न हो। उन्हें पूरा अहसास है और इस छटपटाहट में वे कैसा भी समझौता करने को तैयार हैं। महागठबंधन के प्रति उनके सकारात्मक रुख का यही मुख्य कारण है, लेकिन महागठबंधन में शामिल होकर वे भाजपा को कमजोर करने में क्या योगदान दे सकती हैं, इसलिए सवालिया निशान हैं क्योंकि उनकी क्षमताएं अब बुरी तरह संदिग्ध हो चुकी हैं।
भाजपा मायावती के खोखलेपन को पहचानने की वजह से ही उनसे क्रूर बदला लेने की तैयारी अंदरखाने में कर रही है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना प्राधिकरण के 2007 से 2012 तक ओएसडी रहे यशपाल त्यागी के प्रतिष्ठानों पर की गई छापेमारी के पीछे कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना वाली बात है। यशपाल त्यागी के पास 2000 करोड़ रुपये की बेनामी सम्पत्ति का खुलासा हो चुका है। इतनी बड़ी रकम वे अकेले नहीं हड़प सकते थे। तत्कालीन सरकार उनकी मुरीद थी इसीलिए उनको इन मलाईदार परियोजनाओं में ओएसडी बनाया गया था। खबर है कि यशपाल त्यागी के घर से आयकर अधिकारियों को कुछ डायरियां भी मिली हैं। इन डायरियों में कई नामी-गिरामी नेताओं के नाम हैं। यह नामी-गिरामी नेता कौन हैं, इसको उजागर नहीं किया गया है लेकिन यशपाल त्यागी के कानूनी एजेंसियों के हत्थे चढ़ जाने से मायावती कहीं न कहीं बुरी तरह बेचैन हैं। प्रारंभिक तौर से यादव सिंह से लेकर यशपाल त्यागी तक के यहां मिले दस्तावेज मायावती के भाई आनंद कुमार की सहभागिता की गवाही सिर चढ़कर दे रहे हैं। घबड़ाई मायावती ने इसी कारण आनंद कुमार को बसपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर मान्यवर कांशीराम की अपनी पार्टी में भाई-भतीजावाद न पनपने देने की आन को पैरों तले कुचल डालने में चूक नहीं की।
मायावती भाजपा की पैंतरेबाजी की सभी सम्भावनाओं को तौल रही हैं। वे और आनंद दोनों कानूनी झमेले में फंस गये तो बहुजन समाज पार्टी का क्या होगा, इसका ख्याल उन्हें बहुत सता रहा है। इसीलिए उन्होंने आनंद कुमार के बेटे और अपने भतीजे आशीष को भी विदेश से बुलवा लिया है। जो कि लंदन से एमबीए कर चुका है। उन्होंने नोएडा में आयोजित पार्टी की बैठक में आशीष का परिचय पार्टी के लोगों से कराया। मिशन चाहे भाड़ में चला जाये लेकिन मायावती चाहती हैं कि उनके नाम का दीपक जलता रहना चाहिए और इसके लिए वे परिवार के लोगों का भरोसा न करें तो किसका करें।







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