वीवीआईपी कल्चर की विदाई की मुहिम से भाजपा को मिल रही बढ़त की काट के लिए क्या करना चाहिए प्रतिपक्षी दलों को

भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने हाल में दो महत्वपूर्ण फैसले लागू किए हैं पहला फैसला है भारत सरकार का जिसमें एक मई से वीवीआईपी हैसियत का प्रतीक बनी लाल, नीली, पीली बत्तियां गायब की जानी हैं। हालांकि तमाम राज्यों ने इस फैसले को तत्काल अमल में ला दिया है। दूसरा फैसला उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार का है जिसने थोक के भाव नेताओं को बांटी गई असाधारण सुरक्षा व्यवस्था में कटौती कर दी है। लगभग सौ वीवीआईपी इससे प्रभावित हुए हैं, जिनमें सर्वाधिक संख्या समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की है। आजम खां साहब इस फैसले से बेहद नाराज हैं। उन्होंने सुरक्षा में कटौती के कारण अपनी हत्या तक की आशंका जाहिर कर दी है जबकि उनकी सुरक्षा पूरी तरह समाप्त नहीं की गई है। सुरक्षा का स्तर जेड श्रेणी से वाई श्रेणी का कर दिया गया है लेकिन वाई श्रेणी की भी सुरक्षा कम नहीं होती।

इस मामले में कुछ लोगों पर की गई मेहरबानी भी चर्चा का विषय है। जैसे कि समाजवादी पार्टी के सभी नेताओं के सुरक्षा चक्र में कमी लाई गई है लेकिन अमर सिंह के साथ-साथ नरेश अग्रवाल को भी इसमें प्रभावित नहीं होने दिया गया है। अमर सिंह तो बराये नाम समाजवादी पार्टी में रह गये हैं। लेकिन वे समाजवादी पार्टी के राज परिवार के बारे में लगातार ऐसा विषवमन कर रहे हैं कि एक दुश्मन भी उनके सामने हारी मान जाये। लेकिन नरेश अग्रवाल पर मेहरबानी क्यों। गिरगिट को पछाड़ने वाला यह नेता भी क्या जल्द ही रंग बदलने वाला है। योगी सरकार की मेहरबानी से नरेश अग्रवाल के संदर्भ में यह प्रश्न पूरी तरह मौजूं माना जा रहा है।

किसी शख्सियत की सामाजिक इज्जत और गरिमा का सम्बंध उसके सरकारी भोकाल से होता है, यह बात पहले मान्य नहीं थी। गांधी जी की हत्या इसीलिए हुई क्योंकि उन्हें अपने साथ सुरक्षा का बहुत भोकाल पसंद नहीं था। ऐसा इसलिए भी था कि गांधी जी और उस समय के बड़े कद के नेताओं में कहीं न कहीं यह बात बसी हुई थी कि ज्यादा सरकारी तामझाम उऩके स्वाभाविक सम्मान और जनमानस के बीच स्वीकृति में कमी करेगा लेकिन बीच में ऐसा जमाना चला कि सरकारी भोकाल के बिना नेता तो क्या तथाकथित साधू-संत तक अपने को अधूरा मानने लगे। समाजवादी पार्टी ने तो इस मामले में इंतहा ही कर दी। सपा हाईकमान के कद्रदानी के पैमाने अलग ही थे। जिस पर जितने मुकदमे भारी उसका उतना ज्यादा रुतबा तारी, इस उसूल के कायल समाजवादी पार्टी के हाईकमान ने हर छुटभैया बदमाश को, जिसे उसकी इज्जत का ख्याल रखते हुए आदरपूर्वक बाहुबली कहना ज्यादा ठीक होगा, विशिष्ट सुरक्षा उपलब्ध करायी। आम सुरक्षा संसाधनों के अभाव में सपा की सरकार में चीं  बोलती रही और तमाम दागदार चेहरों का सुरक्षा के तामझाम से महिमामंडन होता रहा।

ऐसा नहीं है कि नेताओं के सुरक्षा तामझाम को घटाने की पहल पहली दफा सोची गई हो। कांग्रेस की सरकार ने भी कई बार इसके लिए प्रस्ताव तैयार किए लेकिन ऐसी हाय-तौबा मची कि कांग्रेस सरकार को हमेशा डर जाना पड़ा। गठबंधन की सरकार बैसाखी की सरकार होती है इसलिए उसके मनोबल की एक सीमा है। कांग्रेस की सरकार भी इस सीमा से बंधी हुई थी सो वह सुरक्षा को सीमित करने के इरादे को लागू कराने में सफल नहीं हो पाई। यह बात भी सही है कि सुरक्षा से लेकर गाड़ियों तक के वैभव को देखकर ही आम जनता भी किसी के प्रति नतमस्तक होने के आधार का मूल्यांकन करने लगी थी। लेकिन लोगों में पनपी यह कमजोरी उनकी सोच का ऊपरी प्रदर्शन भर ही था। अचेतन में जनता इस तरह के आचरण को लेकर वितृष्णा की गहराई में जा रही थी इसलिए जब भाजपा ने नैतिक पुनरोत्थान का अभियान शुरू किया तो उसकी पार्टी के लोग ही नहीं उसके विरोधी भी इसके स्वागत को उत्सुक नजर आ रहे हैं।

संयुक्त मोर्चा सरकार के समय भी आतंकवाद की चुनौती चरमोत्कर्ष पर थी लेकिन भारत सरकार में गृहमंत्री होते हुए भी का. इंद्रजीत गुप्ता ने कोई अतिरिक्त सुरक्षा लेना कुबूल नहीं किया। यही नहीं वे बंगले में रहने की बजाय सांसद के जमाने की तरह एक फ्लैट में ही रहते रहे। फिर भी कभी उन पर हमले की कोई नौबत नहीं आयी। अगर आजम खां को सुरक्षा कम होने से हमले का भय सता रहा है तो यह गैर वाजिब भी नहीं है। उन्होंने जैसे बीज बोये हैं वैसी फसल उनके लिए तैयार हुई है। रामपुर में उन्होंने लोगों का जीना हराम कर दिया था। हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान उनकी नफरत की भेंट चढ़कर बर्बाद हुए इसलिए बिना सुरक्षा तामझाम के किसी दिन उनके पिटने की नौबत आ सकती है तो वे भयभीत क्यों न हो। लेकिन वाई श्रेणी की सुरक्षा भी इतनी होती है कि मन में उनके प्रति कितना भी गुस्सा रखते हुए लोग उन पर शायद हो हमलावर हो पाएं। इसलिए आजम खां साहब को बेचैन होने की जरूरत नहीं है। वे चैन से रहें और केवल वक्फ बोर्ड की सम्पत्तियों को हथियाने के अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच की काट की फिक्र करें क्योंकि इस मामले में उनके खिलाफ इतने पक्के सबूत हैं कि अगर  उऩ्होंने सही ढंग से मोर्चा न संभाला तो वे ही नहीं उनकी पत्नी और शायद उनका बेटा भी जेल पहुंच जाये तो आश्चर्य न होगा।

देश में वीवीआईपी कल्चर की विदाई वक्त का तकाजा है। जिसकी पहल करके भाजपा ने एक तरह से पूरा मंच लूट लिया है। एक जमाना कि जब सारी दुनिया में वैभव और ऐश्वर्य की पूजा हो रही थी। इस्लाम उस समय नवजात था लेकिन इस्लाम मजबूत इसलिए हुआ कि इसके शुरुआती खलीफाओं ने सादगी के व्रत का हठयोग के स्तर पर निर्वाह किया। हजरत उमर के समय तक दुनिया के एक बहुत बड़े भूभाग पर इस्लाम का कब्जा हो चुका था और वे इस्लामिक विश्व के खलीफा होने के नाते सरताज थे। उस समय लिखा गया है कि इतनी बड़ी शख्सियत होे के बावजूद हजरत उमर की सारी गृहस्थी मात्र एक ऊंट पर ढोयी जाती थी क्योंकि अपने लिए वे किसी तामझाम की व्यवस्था नहीं रखथे थे। इस्लाम इतना फैला तो वीवीआईपी कल्चर से परहेज के कारण। सादगी, अपरिग्रह आदि मूल्यों की वकालत इस्लाम में ही नहीं हिंदू धर्म में भी बहुत है इसलिए इस ओर पहल करके धर्मों के बीच की मौलिक एकता को भी जाने-अनजाने में जो बल मिल रहा है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

सार्वजनिक जीवन में मूल्य पक्षधरता पर आधारित इस खुशनुमा बयार को हमारे द्वारा खुशामदीद कहे जाने का कहीं मतलब भाजपा की नीतियों का समग्र अनुमोदन नहीं है। निश्चित रूप से भाजपा की नीतियों में विभेदकारी तत्वों का समावेश है जो दूरगामी दृष्टि से देश और समाज के लिए हितकर नहीं कही जा सकती, लेकिन अब इतना सबको सोच लेना चाहिए कि भाजपा के विरोध के नाम पर लम्पट राजनीति को प्रोत्साहन स्वीकार्य नहीं होगा। भाजपा से अगर बढ़त लेनी है तो उसके विरोधी दलों को व्यक्तिगत आचरण में त्याग और शुचिता की ऊंचाइयों को छूकर दिखाना होगा। अगर वे ऐसा कर सकें तो भाजपा आज भी नीतियों के मामले में उनसे मात खा सकती है। लेकिन क्या वे अपनी स्वार्थपरता का संवरण करने को तैयार हैं।

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