यह चंबल है बगावत और बलिदान की धरती, चंबल की तस्वीर का यह एक पहलू है। दूसरा पहलू चंबल के बागियों को डकैत के रूप में दर्ज करने की अंग्रेजों की दस्तावेजी साजिश से जुड़ा है। इसके लिए 1857 की क्रांति विफल होने के बाद कंपनीराज के अधिकारियों ने बाकायदा आदेश जारी किया था, जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं। चंबल में बागी और डकैत के बीच बारीक रेखा को न समझ पाने की वजह से ही मानसिंह और निर्भय गूजर को एक तराजू पर तौल दिया जाता है। जिससे चंबल की कोख को बदनाम करने वालों को मौका मिलता रहा है।
चंबल के साथ यह विपरिहास उस समय भी थे जब विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण ने एक दशक के अंतराल में बागियों का हृदय परिवर्तन कराकर आत्मसमर्पण कराया था। भ्रम के चलते ही कई लोग इन सदाशयी प्रयासों के विरोधी हो गये थे और उन्होंने पुलिस का मनोबल गिराने वाली हरकत करार देकर डकैत गिरोहों के आत्मसमर्पण की भर्त्सना की थी। संत विनोबा भावे ने इस पर दुखी होकर कहा था कि अच्छे काम को भी कोसने में समाज का एक वर्ग नहीं चूकता। हालांकि उनके बाद इस तरह की आलोचनाओं से विचलित हुए बिना जेपी ने तत्कालीन दस्युओं के कारनामों को वाकपन ही माना था और कहा था कि हिंसक बगावत को सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या के बतौर देखकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। हिंसक बगावत की जड़ों में जाने की जरूरत होती है जिसमें होता है इतिहास, भूगोल और समाज व राजसत्ता की संरचना।
यह सही है कि इस समझदारी के बावजूद 1960 और 1972 के सामूहिक दस्यु आत्मसमर्पण के बाद भी चंबल में डाकू समस्या को विराम नहीं लग पाया। इसके चलते 1982 और 1983 में एक बार फिर डकैतों के भय से मुक्ति दिलाने के लिए सरकार ने उनके आत्मसमर्पण के उपाय का सहारा लिया। शायद इसकी वजह यह थी कि पिछले आत्मसमर्पणों के बाद वाकपन उर्फ डकैत समस्या के जिन कारणों की ओर विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण ने इशारा किया था उन्हें खत्म करने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई थी।
तो सबसे पहले चंबल के इतिहास पर एक नजर डाल ली जाए। डेढ़ हजार वर्ष पहले चंबल में उस समय बगावत का बीजारोपण हुआ जब यूनानी सम्राट सिकंदर की हुकूमत के खिलाफ इस इलाके के लोगों ने भरकों (बीहड़ों की खोह) को केंद्र बनाकर गुरिल्ला युद्ध छेड़ा था। पृथ्वीराज चौहान के समय इसमें फिर एक कड़ी जुड़ी तब तोमरों ने दिल्ली पर अपने आधिपत्य की वापसी के लिए उनके खिलाफ चंबल के बीहड़ों को ठिकाना बनाकर मोर्चा खोला। इसके बाद चंबल की संस्कृति में बगावत एक रवायत की तरह जुड़ गई। पहले स्वाधीनता संग्राम यानी 1857 की क्रांति में भी अंग्रेजों को सबसे बड़ी चुनौती चंबल के इलाकों में इसी रवायत के चलते मिली। इमरजेंसी भी चंबल की बगावत के आगे पानी मांग गई थी। 1977 में इमरजेंसी के हटने के बाद इलेस्टेटिक वीकली ने छापा था कि नसबंदी का लक्ष्य चंबल में केवल 5 प्रतिशत ही पूरा किया जा सका था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके सबसे अक्खड़ मुख्यमंत्री पीसी सेठी को चंबल में समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा था। व्यक्तिगत उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ भी बगावत की अभिव्यक्ति चंबल में जारी रही। बंदूक उठाकर बीहड़ कूदना सरकार, राजनीति और पुलिस के संरक्षण में पोसे जाने वाले जालिमों को मटियामेट करने के संकल्प को परिभाषित करने वाला मुहावरा बन गया।
बगावत के पीछे मुख्य कारक होता है किसी समाज की खुद्दारी और खुद्दारी उसमें होती है जो ऊंचे और मजबूत किरदार का धनी हो इसलिए चंबल के डाकू कहकर बदनाम किए गए बागियों का किरदार मानसिंह से पानसिंह और मलखान सिंह तक नायाब रहा। महिलाओं को लूटना तो दूर उनके जेवर तक छूना बागी गुनाह मानते थे। बच्चों की पकड़ करने की वे सोच भी नहीं सकते थे। दुश्मन के भी घर की बहू-बेटी गैल चलते गैंग को मिल जाए तो पैर छूकर उसे नेग देना नहीं भूलते थे। इसलिए संत विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे तपेतपाये सर्वोदयी गांधीवादी शिखर पुरुषों ने डकैतों का प्रायश्चित का मौका दिलाने के लिए अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाई थी।
लेकिन 1982 और 1983 के आत्मसमर्पण के पीछे के आशय इतने निष्पाप नहीं थे। इसके सूत्रधार विनोबा और जेपी की तरह चमकदार न होकर संदिग्ध चरित्र वाले लोग थे। जो व्यवसायिक, राजनीतिक लाभों के लिए दस्यु समर्पण के नाम पर बेतुके प्रहसन में जुट गए थे। इसलिए 1983 के आत्मसमर्पण ने पहली बार चंबल के लोगों ने गुस्से में पागल होकर डकैतों के मंच को निशाना बनाकर पत्थर चलाये। महत्वाकांक्षी अपराधियों के लिए डकैत गिरोह बनाकर माल और दबदबा बनाने के बाद समर्पण करके हीरो बन जाने और राजनीति में मुकाम बनाने की प्रेरणा इस दौर के दस्यु समर्पण से फली-फूली। चंबल को 1983 के बाद के डकैत गिरोहों ने बहुत बदनाम किया। अंग्रेजों की चंबल के इतिहास को स्याह करने की साजिश को इस दौर में सबसे ज्यादा कामयाबी मिली।
यहां तक कि बिहार के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंबल की इस पहचान के चलते ऐसा बयान अपने भाषण में दे दिया जिससे चंबल के लोगों का खून खौल गया। जाने-माने पत्रकार डा. राकेश पाठक को भी मोदी के खिलाफ कलम उठानी पड़ी और उन्हें ध्यान दिलाना पड़ा कि चंबल चरित्रहीन अपराधियों की बस्ती नहीं है बल्कि चंबल वह इलाका है जहां के लोग देश के लिए बलिदान हो जाने के जुनून के चलते सबसे ज्यादा संख्या में सेना और अन्य बलों में शामिल होते हैं। इस इलाके में शांति के दिनों में भी किसी न किसी गांव में सरहद पर तैनात किसी जवान को तिरंगे में लपेटकर लाया जाता है। देश के दूसरे हिस्सों में लोगों को सुनने में यह अटपटा सा लग सकता है कि विधवाओं के भी गांव होते हैं लेकिन भिंड में एक ऐसा गांव मौजूद है क्योंकि उस गांव के सारे जवान सीमाओं की रक्षा करते हुए शहीद हो चुके हैं। भाई राकेश पाठक का दर्द अन्यथा नहीं है।
चंबल के इलाके में जन्म लेना या पलना और बढ़ना कलंक नहीं गौरव का विषय है। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के रहने वाले नौजवान और जामिया मिलिया नई दिल्ली के स्कॉलर शाह आलम ने चंबल की इसी गौरवशाली आभा से आकर्षित होकर इस इलाके में पदार्पण किया चंबल की गली-गली को साइकिल चलाकर छानने के अनोखे व्रत के साथ। दरअसल उनकी यात्रा थी 1909 में पं. गेंदालाल दीक्षित द्वारा मातृवेदी के नाम से बनाये गये पहले क्रांतिकारी संगठन के पराक्रम को सहेजने की, जिसके 35 रणबांकुरों को अंग्रेजों ने साजिश कर जहर खिलाने के बाद गोलियों से भून दिया था। इसी दौरान उन्हें 1857 की लड़ाई में कंपनीराज को उखाड़ने के लिए युद्ध करने वाले गुमनाम शहीदों की अछूती दास्तानों का पता चला जिससे उनका मकसद और बड़ा हो गया। उनके इन प्रयासों के नतीजे सामने आ चुके हैं। काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल के मुरैना जिले के गांव में शाह आलम की वजह से ही उनके स्मारक के बतौर एक पुस्तकालय स्थापित हुआ जिसमें आजादी की लड़ाई का दुर्लभ संग्रह संजोया गया है। शाह आलम ने बनारसीदास चतुर्वेदी के काम की याद दिला दी। उन्होंने चंबल का प्रेरित करने वाला चेहरा लोगों के सामने रखकर राष्ट्रवाद के इस दौर में बहुत ही प्रासंगिक उपक्रम किया है।
लेकिन चंबल में बगावत की जड़ों के पीछे जो कारक जयप्रकाश नारायण ने बताये थे उनके निवारण के प्रयास आज भी कमोवेश नदारद हैं। चंबल में विकास के प्रति शासन-प्रशासन की उदासीनता की ही वजह से बीहड़ों में जिंदगी आज भी बदस्तूर अभिशप्त है। कई गांवों में बिजली नहीं पहुंची, पानी तक मयस्सर नहीं है। विकास की इस दशा के कारण रोजगार के अवसर भी नहीं पनप रहे हैं। चंबल की नौजवानी की ऊर्जा और आवेश को रचनात्मक धरातल प्रदान नहीं किया जाएगा तो उसकी विध्वंसक अभिव्यक्तियां जारी ही रहेंगी। जरूरी है कि नर्सरी आफ सोल्जर्स कहे जाने वाले इस इलाके के लोगों के लिए नौकरियों में अलग कोटा आरक्षित करने की सोची जाये। 1983 के समर्पण के समय केंद्र से अनुदानित दस्यु प्रभावित क्षेत्र विकास योजना चंबल के इलाके के लिए घोषित की गई थी लेकिन पर्याप्त बजट आवंटित करने में दिखाई गई कंजूसी की वजह से इसकी कोई सार्थकता नहीं रही। चंबल का अगर उद्धार करना है तो इस इलाके को विकास के लिए विशेष पैकेज देना होगा।
चंबल के इलाके में सरकार के स्तर से रामप्रसाद बिस्मिल के नाम पर बने पुस्तकालय की तर्ज पर जगह-जगह हुतात्माओं के स्मारक स्थापित किए जाएं ताकि चंबल की सही तस्वीर देश के सामने नुमाया हो सके। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रणबांकुरों के इतिहास में पर्याप्त महत्व देने की जरूरत है। चंबल पुरातात्विक सभ्यता की भी खान है। कहा जाता है कि बटेश्वर के पास निताउली में महादेव का मंदिर है जिसमें 7100 मंदिर 64 स्तम्भों पर टिके हैं। 64 कक्ष और हरेक में शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि भारत की लोकसभा लुटियंस ने इसी मंदिर से प्रेरित होकर डिजाइन की थी। चंबल के कोने-कोने में सैकड़ों साल के इतिहास की स्मृतियों को सीने में दबाये मंदिरों को भग्नावशेष बिखरे हैं। चंबल के गौरव के वाहक इन मंदिरों को राष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र से जोड़ने की पहल क्यों नहीं सोची जा रही। शाह आलम के प्रयासों के प्रति जो उत्साह और समर्थन यहां दिखाया गया है उससे लगता है कि सुबह का कोई भूला शाम को घर वापस लौट रहा है। चंबल में लगता है कि नई पौ फट रही है जिसकी उजास सारे देश को कुछ नया देगी।







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