भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर रावण को हिमाचल प्रदेश के डलहौजी में गिरफ्तार कर लिया गया है। उत्तर प्रदेश की एकता और अखंडता को महफूज रखने में राज्य की पुलिस ने जो मुस्तैदी दिखाई वह काबिल-ए-तारीफ है। बसपा सुप्रीमो मायावती तो भीम आर्मी को बीजेपी की बी टीम ठहराकर अकेला मरने के लिए छोड़ चुकी थीं लेकिन नाशपीटी कांग्रेस ने रावण को बड़ा नेता बताकर आखिर अपनी देशद्रोही नीयत उजागर कर ही दी। राष्ट्रभक्ति तो तभी है जब वर्ण व्यवस्था के तहत जिस जाति को जो औकात बताई गई है उस तक वह अपने आपको सीमित रखे। भले ही इस प्रयास में विदेशियों का शासन हो जाए, लेकिन अपने लोगों को चिरंतन दास बनाये रखने की हसरत नहीं टूटनी चाहिए।
भीम आर्मी के गठन को बहुत दिन नहीं हुए। अक्टूबर 2015 में दलितों के बीच शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए यह संगठन बनाया गया था। 2016 में सहारनपुर के इंटर कॉलेज में दलित छात्रों के साथ हुई मारपीट के बाद यह संगठन प्रदेश भर में सुर्खियों में छा गया। इसके बाद इस संगठन को उस समय और शोहरत मिली जब चंद्रशेखर रावण ने अपने गांव धड़कौली में एक बोर्ड लगवाया जिसमें लिखा था द ग्रेट चमार।
हिंदुस्तान जातियों का देश है। देश की सामाजिक इंजीनियरिंग के सबसे बड़े विशेषज्ञ पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने भारत को जातियों का परिसंघ बताया था इसलिए अगर चंद्रशेखर रावण ने गर्व से कहो हम चमार हैं जैसी किसी अनुभूति को उक्त बोर्ड में अभिव्यक्त किया तो इसमें गलत क्या है। 1978 में आगरा के पनयारा में जाट बनाम जाटव का संघर्ष हुआ। जाट तो शास्वत मार्शल कौम है लेकिन जाटव तो उस समय बहुत निरीह थे। साथ ही उस समय देश के पुलिस मिनिस्टर यानी गृहमंत्री जाटों के ही प्रतिनिधि चौ. चरण सिंह थे। इसके बावजूद जाटवों ने जिस आक्रामकता से जाटों का मुकाबला किया उससे सारा देश हिल गया था। कहने का मतलब यह है कि वर्ण व्यवस्था का तयशुदा चौखटा न हो तो जाटव कोई कम लड़ाका कौम नहीं है। जाटव भी मार्शल कौम है और चाहे जाट हों या ठाकुर मुकाबले की बात आ जाएगी तो जाटव बराबरी से जवाब देने में सक्षम हैं। यह बात दुर्भाग्य की नहीं बल्कि गर्व की है। जाट, ठाकुर, जाटव सभी एक देश के बाशिंदे होने के नाते सहोदर हैं। भाई-भाई आपस में लड़ते हैं तो लड़ेंगे भी, लेकिन कोई बाहरी चुनौती आएगी तो सारे भाई मिलकर मुकाबला करेंगे।
देश की सारी लड़ाकू कौम एक प्लेटफार्म पर आकर मुकाबला करेंगी तो किस विदेशी की हिम्मत है कि भारतमाता का बाल भी बांका कर पाये, लेकिन भीम आर्मी का जो लोग एकतरफा प्रस्तुतिकरण सत्ता में होने के बावजूद कर रहे हैं उऩके लिए यह किसी तरह नहीं कहा जा सकता कि वे भारतमाता के सच्चे सपूत हैं। यहां तक कि वे संघ के सच्चे स्वयंसेवक भी नहीं हैं। संघ ने पिछले कुछ दशकों में वृहत्तर हिंदू एकता के लिए दलितों को साथ जोड़ने के लिए कड़ी मेहनत की। स्वयं भीम आर्मी के कई प्रमुख कार्यकर्ताओं ने यह स्वीकार किया है कि उन्होंने हिंदुत्व को राष्ट्रीय अखंडता का पर्याय मानते हुए 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए वोट किया था। पर सहारनपुर में जिस तरह से एकतरफा कार्रवाई के जरिये योगी सरकार ने भाई और भाई के बीच फासला पैदा किया है, क्या यह माना जा सकता है कि वह कार्य संघ की मंशा के मुताबिक है।
सहारनपुर का जातीय दंगा तो बाद में हुआ लेकिन मध्य प्रदेश में जहां 3 बार से भाजपा की हुकूमत चल रही है, सामाजिक समरसता की हालत यह है कि वहां के आगर मालवा जिले के एक गांव में बैंड-बाजे के साथ दलितों की बारात तब आ पायी जब पुलिस का भारी-भरकम बंदोबस्त किया गया। प्रशासन के डर से उस दिन तो कोई गड़बड़ नहीं हुई लेकिन आगे गांव के उस तालाब में जहां से दलित पानी लेते थे, केरोसिन डाल दिया गया। कौन है इतने नराधम जो जातिगत अहंकार के कारण अपने ही लोगों के साथ अमानवीय बर्ताव करने से नहीं चूक रहे। अगर इसकी प्रतिक्रिया में आगर मालवा में भीम आर्मी जैसा संगठन खड़ा नहीं हुआ तो इसे दलितों की सहनशीलता या दीनता कहा जाएगा।
अगर आर्मी बनाना ही देशद्रोह है तो बिहार में बहुत पहले रणवीर सेना बनी थी जो कि भाजपा एंड कंपनी के तमाम लोगों के लिए आज भी श्रद्धेय दर्जा रखती है। इसलिए सेना के नाम का मामला बहुत संवेदनशील होता है। इसे लेकर अतिवादी और हठधर्मी रुख नहीं अपनाया जाना चाहिए। अपनी आहत भावनाओं की प्रतिक्रिया संगठन को सेना का नाम देकर व्यक्त करना फैशन बन गया है।
उत्तर प्रदेश पुलिस इतनी कहानीकार है कि शेखचिल्ली भी उसके सामने शर्मा जाते हैं। अपने दो जांबाज अधिकारियों की शहादत अपनी कायरता से दिलवाने के बाद इस पुलिस ने रामवृक्ष का संबंध भी नक्सलियों से जोड़ दिया था। लेकिन अगर वास्तव में वह नक्सलियों का मोहरा था तो नक्सली प्रदेश में और भी मोहरा बनाये होंगे। रामवृक्ष के बारे में तात्कालिक बयान देने के बाद उसके नक्सली कनेक्शन के बारे में एक्शन में कोई फालोअप अब क्यों नहीं दिखाई जा रहा। चंद्रशेखर रावण के बारे में भी इसी तरह जमीन-आसमान के कुलाबे जोड़कर उसका नक्सली कनेक्शन साबित किया जा रहा है। लेकिन जहां तक वैधानिक कसौटी की बात है पहले तो उत्तर प्रदेश पुलिस के लाल बुझक्कड़ सर्वोच्च अधिकारी यह बताएं कि आईपीसी या किस आपराधिक कानून में नक्सली लिखना गैर कानूनी करार दिया गया है।
गैर कानूनी यह है कि कोई यह घोषित करे कि वर्तमान भारतीय राज्य दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और मुसलमानों के लिए दमनकारी है। इस शोषणकारी सत्ता को उखाड़ने के लिए सशस्त्र संघर्ष अनिवार्य है। लेकिन चंद्रशेखर रावण ने हमेशा यह कहा कि वे भारतीय संविधान के तहत अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ेंगे। उन्होंने भारतीय राजसत्ता के खिलाफ सशस्त्र बगावत की बात कभी नहीं कही। उनके समर्थकों के पास आतंकवाद की बुनियादी शर्त माने जाने वाले एके 47 और हैंडग्रेनेड जैसे हथियारों की बरामदगी कभी नहीं हुई। फिर भी अकेले उन्हें टार्गेट पर रखा गया। जबकि आरोप यह है कि सांसद फूलन देवी की हत्या का आरोपी शेरसिंह राणा अनुचित क्षत्रिय अहंकार को भड़काने के लिए सहारनपुर दंगे के सूत्रधार की भूमिका में रहा था।
योगी सरकार के मीडिया मैनेजमेंट की वजह से शेरसिंह राणा के रोल के बारे में मुख्य धारा की मीडिया में बहुत खबरें प्रकाशित नहीं हुईं, लेकिन वेब मीडिया में इस तरह की कई खबरें आयीं। योगी सरकार को या तो इन खबरों का खंडन करना चाहिए या प्रदेश की सामाजिक समरसता में विष घोलने वाले शेरसिंह राणा जैसे सिरफिरे के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए न कि चंद्रशेखर रावण के खिलाफ।
राष्ट्रहित का कोई प्रयोजन न तो दलित समाज को नीचा दिखाने से पूरा हो सकता है और न ही क्षत्रिय समाज को। दोनों ही समाज के उन दानिशमंदों को इन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में तमाम जोखिम उठाकर आगे आना होगा। जिनके सामने सबसे बड़ा लक्ष्य राष्ट्रीय भावना के नाते देश की सामाजिक वहबूदी को मजबूत करना है। अगर इस रिपोर्टिंग को क्षत्रिय समाज अपने को कठघरे में खड़ा करने की साजिश के रूप में संज्ञान लेकर इसे नकारता है तो यह भी अनर्थ होगा। दोनों ही समुदाय के उन लोगों को आगे आकर भूमिका निभानी होगी जो कि हिंदुस्तानी के नाते दोनों में एक नस्ल और एक खून को मानकर भाई के बीच भाई में कोई फसाद न होने देने की उत्कटता दर्शाते हैं।







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