किसान ! जान देने के बाद जान लेने की बारी

अभी तक किसान जान दे रहे थे तो सत्ता के गलियारों में उनकी कीमत नहीं थी लेकिन पानी से सिर से ऊपर निकलने के बाद जब उन्होंने यह जता दिया है कि वे अपने हक को सत्ता प्रतिष्ठान से खूंखार मुठभेड़ करके लेने पर भी आमादा हो सकते हैं तो व्यवस्था के कर्णधार स्तब्ध हैं। मध्य प्रदेश के मंदसौर में गत 5 जून को पुलिस की फायरिंग में आधा दर्जन किसानों की मौत के बाद न केवल शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी के मजबूत पाये डगमगा उठे बल्कि इस भूचाल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आवाज ही चली गई।

यह दूसरी बात है कि सत्ता के खिलाड़ी इतने घाघ और वज्र होते हैं कि उन्हें समाज की आपात स्थितियों में भी दांव-पेंच अजमाने में गुरेज नहीं होता। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कभी खुद को भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार मानते थे। जब नरेंद्र मोदी को पार्टी ने प्रोजेक्ट कर दिया तब भी वे आसमान पर ही टंगे रहे और इस कारण लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में जो पोस्टर लगे उनमें नरेंद्र मोदी को भाव देने की जरूरत नहीं समझी गई। इसके बाद नरेंद्र मोदी किस तरह से अपने को विश्व पटल तक पर भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज कराने में सफल रहे हैं यह बात इतिहास बन गई है। इसके चलते शिवराज सिंह चौहान उनसे कई कोस पीछे छूट गये हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी को उनकी ऐंठ की टीस भूलती नहीं है। इसलिए जब भी शिवराज सिंह के संदर्भ में मौका आता है, मोदी उन्हें अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे की स्थितियों का आभास कराने में नहीं चूकते।

मध्य प्रदेश में मंदसौर कांड के बाद शायद मोदी की चुप्पी के पीछे ऐसा ही कोई पैंतरा था, लेकिन शिवराज नौटंकीबाजी में कहीं से कम नहीं हैं इसलिए उन्होंने अपनी ही दम पर काफी हद तक स्थिति को संभाल लिया है। अचानक उन्होंने किसानों के अपनी पुलिस के हाथों शहीद होने के भारी गम में प्रायश्चित के लिए अनिश्चितकालीन उपवास पर बैठने की घोषणा कर दी। गांधीगीरी राजनीतिज्ञों के लिए हथियार बन चुके हैं और हथियार का इस्तेमाल करने वालों को कुल मिलाकर अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता तो भी शिवराज सिंह गांधीगीरी तो कर सकते हैं लेकिन गांधीजी के दूसरे का हृदय परिवर्तन के लिए चरम तक आत्मउत्पीड़न पर उतारू होने के तरीके पर अमल का बूता अच्छे-अच्छों में नहीं हैं तो शिवराज सिंह में क्या होगा। सो अनशन के चंद घंटों में ही उनकी अंतड़ियां कुलबुला गईं। रात में दिवंगत किसानों के परिजन बुलवाये गये, जिन्होंने उनसे अनशन खत्म करने का आग्रह किया और शिवराज सिंह तपाक से मान भी गये।

शिवराज सिंह की इस नौटंकी का पटाक्षेप यूं तो विद्रूप प्रहसन की तरह हुआ, जिसका कहीं न कहीं अहसास उन्हें भी रहा इसलिए शिवराज सिंह को बात बनाने के लिए और ज्यादा कुछ करने की जरूरत महसूस हुई सो वे उड़नखटोले से पत्नी साधना को साथ लेकर मंदसौर में शहीद किसानों के परिजनों को सांत्वना के साथ एक करोड़ रुपये की चेक देने पहुंच गये। इस घटनाक्रम में उनकी नाटकीयता आरूढ़ में नहीं रह सकी लेकिन कुल मिलाकर यह साबित हो गया कि शिवराज सिंह बेजोड़ गफूगर हैं। उनके ड्रामे ने किसान आंदोलन की तपिश को राज्य में काफी हद तक ठंडा कर दिया। बावजूद इसके कि मंदसौर कांड के बाद शिवराज सिंह के ही गृह जिले सिहोर में एक किसान ने  बदहाली की वजह से खुदकुशी कर मौत को गले लगा लिया, जिससे साफ हो गया कि फिलहाल मंदसौर में आधा दर्जन किसानों की शहादत सत्ता सदन में कोई रंग नहीं ला पाई है।

किसानों के लिए मरो या मारो की यह स्थिति अकेले मध्य प्रदेश में नहीं उपजी। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र आदि राज्यों में किसानों के बीच असंतोष की चिंगारियां तो दिख रही थीं लेकिन मध्य प्रदेश के घटनाक्रम के बाद इन राज्यों में भी हिंसक आंदोलनों का दावानल फैलने के आसार पैदा हो गये। महाराष्ट्र सरकार ने क्राइसेस मैनेजमेंट के लिए घुटने टेककर उनकी कर्जमाफी की मांग को मंजूर कर लिया है, लेकिन अन्य राज्यों में स्थितियां अभी संवेदनशील बनी हुई हैं। किसानों की दोनों ही तरफ मौत है। अगर प्राकृतिक आपदा की वजह से कुछ पैदा न हो तो भी बर्बादी और ज्यादा पैदा हो जाए तो भी। मध्य प्रदेश में तो पिछले सालों से अच्छी उपज ही उनकी समस्या का सबब बनी जिससे उपज के मूल्य घटते चले गये। राजस्थान में भी इस बार तिलहन और दलहन की बंपर पैदावार किसानों के गले में हड्डी बनकर अटक गई है।

मनमोहन सिंह सरकार के समय गठित स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का चुनावी वायदा प्रधानमंत्री ने कई बार किया लेकिन जब बारी आयी तो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया कि यह किया जाना संभव नहीं है। स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की है कि किसानों को उसकी लागत के सापेक्ष उपज में डेढ़ गुना मूल्य दिलाने की गारंटी दी जाए। सरकार यह कैसे करे जब समर्थन मूल्य तक दिलाना उसके वश में नहीं है। मंदसौर में किसानों की बलि चढ़ने के बाद जब शिवराज सिंह ने फरमान जारी किया कि मंडियों में किसानों को समर्थन मूल्य से कम कीमत में उपज बेचने के लिए मजबूर करने वाले व्यापारियों को जेल जाना होगा तो व्यापारी भड़क गये और उन्होंने भी हड़ताल कर दी।

इसके बावजूद किसानों की कर्जमाफी के मामले में अनुदार रवैया अपनाया जा रहा है। रिजर्व बैंक और वित्त विशेषज्ञों का रुख इस मामले में हरदम अड़ियल रहा है। 1977 में पहली बार जब कांग्रेस केंद्र में अदृश्य हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी तो किसानों के 10 हजार रुपये तक के कर्जे माफ करने का फैसला लिया गया। इससे वित्त विशेषज्ञों की प्याली में तूफान आ गया। हाहाकार की मुद्रा में ये तथाकथित विशेषज्ञ कहने लगे कि जनता पार्टी सरकार के फैसले से देश का दीवाला निकाल दिए जाने की भूमिका तैयार कर दी गई है। रिजर्व बैंक और वित्त विशेषज्ञ अभी भी किसानों के कर्जमाफी के मुद्दे पर रूढ़िवादिता की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पाये हैं इसीलिए केंद्र ने किसानों के कर्जमाफी के प्रस्ताव पर प्रतिकूल राय जाहिर करने में देरी नहीं की। आर्थिक लाल बुझक्कड़ों के प्रभाव का ही परिणाम केंद्र सरकार की इस दोटूक घोषणा में झलका कि केंद्र सरकार कर्जमाफी को अपने मत्थे नहीं लेगी। राज्य सरकार अपने संसाधनों से किसानों की मदद करना चाहें तो खूब करें। इसमें कोई दोराय नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम में डा. मनमोहन सिंह से बड़ा कोई अर्थशास्त्री तो है नहीं। मनमोहन सिंह ने किसानों की आम कर्जमाफी का फैसला लिया तो उनका इरादा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठाने का रहा होगा, यह तो कोई नहीं कह सकता।

अर्थव्यवस्था की धमनियों में बाजार का खून दौड़ता रहे, जिसके लिए जरूरी है कि ग्राहक यानी उपभोक्ता परिवार ज्यादा से ज्यादा फले-फूले। यह तब होगा जब अधिक से अधिक तादाद में लोगों के पास न्यूनतम जरूरतों को पूरी करने लायक आमदनी के अलावा कुछ अतिरिक्त आय भी हो। किसान की ऋणमाफी हुई तो स्थगित हुए शादी-विवाह के कार्यक्रम बहाल हो गये, इस तरह किसान बाजार में जो खर्च करता था उसमें कोई कमी नहीं आयी। वैश्विक मंदी के दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था खड़ी रह सकी। बाजार जब गुलजार रहेगा तो सरकार के पास आने वाले रेवेन्यू में कमी नहीं आएगी। इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से किसानों की कर्जमाफी के फैसले का नतीजा यह था कि अर्थव्यवस्था का दीवाला नहीं निकला बल्कि इस कदम ने अर्थव्यवस्था को सलामत रखने में मदद की।

दूसरी ओर चंद उद्योगपतियों को भारी कर्जमाफी का लाभ दिया जाता है तो लकीर के फकीर अर्थशास्त्री भले ही इसके औचित्य के लिए पांडित्यपूर्ण दलीलें दें लेकिन पहले से ही हर तरह से संतृप्त ये उद्योगपति बाजार में कोई बहुत योगदान करने में सहायक नहीं बनते। बजाय इसके इनकी पूंजी या तो डंप हो जाती है या भारत की आमदनी का खर्चा विदेशों में होता है जो पूंजी पलायन का कारण बनता है। लेकिन मोदी सरकार के पास कोई मौलिक दृष्टि नहीं है। जिससे यह सरकार इतनी दूर तक सोचने का माद्दा नहीं रखती।

इस सारे प्रकरण में गौरतलब बात यह भी है कि चाहे मध्य प्रदेश हो या राजस्थान, संघ के लोग ही किसान आंदोलन के सूत्रधार बन रहे हैं। संघ के लोगों का यह भस्मासुरी आचरण अबूझ पहेली बन गया है जबकि संघ प्रमुख मोहन भागवत मोदी की सफलता से बैठै-बैठाये इतिहास में आधुनिक चाणक्य के दर्जे का गौरव पाने से निहाल हैं। फिर संघ और भाजपा में यह कौन सा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चल रहा है।

इस सिलसिले में एक  बात ध्यान आती है। कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी जसोदाबेन उत्तर प्रदेश में सजातीय सम्मेलनों में भाग लेने आयीं। इस दौरान प्रधानमंत्री की इच्छा पर जिलों के प्रशासन ने अपने-अपने यहां मीडिया को जसोदाबेन के कवरेज से रोकने की कोशिश की। जब मीडिया कर्मियों ने उनकी असुविधा का कारण जानना चाहा तो पता चला कि सरकार में बैठे लोग यह नहीं चाहते कि लोगों में यह धारणा बने कि प्रधानमंत्री भी अपने जातीय गौरव को बढ़ाने में रुचि लेने लगे हैं।

प्रधानमंत्री की इस चिंता के कारण को समझने के लिए गहराई में जाने की जरूरत है। नरेंद्र मोदी ने खुद चुनावी सभाओं में तुरुप का इक्का समझकर यह चर्चाएं छेड़ीं कि वे समाज के हाशिये से यानी ओबीसी से हैं। मकसद साफ था कि वे बहुजन के साथ आत्मीय रिश्ता जोड़ने के लिए अपने वर्ण का जिक्र करना जरूरी समझ रहे थे जबकि मायावती उन्हें अपरकास्ट बताकर इस दावे को खारिज करने की कोशिश कर रही थीं। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री अपने को ओबीसी चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने को राजनीतिक फायदे की चीज मानते हैं लेकिन जसोदाबेन के इस लाइन को आगे बढ़ाने से वे परेशान क्यों हो गये। कहीं इसके पीछे यह तो नहीं है कि एक कट्टर तबका शूद्रों को नीचा साबित करने वाली किंवदंतियों में विश्वास रखता है, जिसके मुताबिक प्रधानमंत्री की जाति के बारे में वह सदियों से कहता आया है कि उनको सवेरे-सवेरे नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उनको देखना अपशकुन होता है। इस विकृत सोच की गिरफ्त में होने से संघ के एक तबके का दुराग्रह तो उनको लेकर नहीं जाग गया। बहरहाल जो भी हो भारतीय समाज की जटिलताएं भूलभुलैया की तरह हैं, जिसको देखते हुए वर्ण व्यवस्था से जब तक मोह बना रहेगा, कुछ न कुछ अटपटा होता रहेगा।

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