सड़क पर बिछा-बिछाकर पीटी जा रही खाकी

कानपुर के एक निजी नर्सिंग होम में भर्ती किशोरी के साथ कथित रेप को लेकर भड़का उपद्रव कश्मीर घाटी में कानून व्यवस्था की बेकाबू हालत की झांकी दिखा गया। डीआईजी सोनिया सिंह जब डीएम सुरेंद्र सिंह के साथ मौके पर पहुंचीं तो हताशा में उनका गुस्सा एसपी साउथ पर फूट पड़ा। उन्होंने कहा कि आपसे जरा से भीड़ नहीं संभलती।

वे दिन बीत चुके हैं जब एक सिपाही सामने आ जाता था तो भीड़ के हौसले पस्त हो जाते थे। लेकिन आज खाकी का रुआब कोई नहीं मानता। यह अकेले कानपुर की बात नहीं है। सिर्फ कानपुर के एसपी साउथ की बात नहीं है। हर जगह का आलम है। खाकी का खौफ न हो लेकिन अदब होना ही चाहिए। वर्दी से पहनने से कोई फैंटम नहीं हो जाता, लेकिन वर्दी का एक मनोवैज्ञानिक दबदबा रहा है जिससे चंद पुलिस फोर्स हजारों की भीड़ को कंट्रोल कर लेती थी। यह दबदबा जब तक बहाल नहीं होगा तार-तार होती जा रही कानून व्यवस्था की हालत शायद ही दुरुस्त हो पाये।

कानपुर के बर्रा इलाके में स्थित न्यू जागृति नर्सिंग होम में 16 जून को 17 वर्षीय एक लड़की को विवाह समारोह में डांस करते समय बेहोश होकर गिर जाने के बाद भर्ती कराया गया था। रात में लड़की को आईसीयू में रखा गया। सुबह जब परिवार के लोग उसके पास पहुंचे तो उनके मुताबिक लड़की ने फफक-फफक कर रोते हुए बताया कि उसे नशीला इंजेक्शन देकर वार्डब्वाय ने उसके साथ गलत काम किया था। इसे लेकर नर्सिंग होम में हंगामा हो गया। लोगों ने नर्सिंग होम में तोड़फोड़ कर डाली और अस्पताल के स्टाफ को भी पीटा। पुलिस ने वार्डब्वाय यूसुफ को जेल भेजकर जैसे-तैसे मामला संभाला।

अगले दिन अखबारों में अस्पताल के प्रबंधक का यह बयान छप गया कि लड़की के साथ कोई गलत हरकत नहीं हुई है। फीस जमा करने से बचने के लिए उसके परिवार के लोगों ने बतंगड़ बताकर हंगामा काटा था। उधर पुलिस की भी हमदर्दी अस्पताल प्रबंधन के प्रति झलकी। उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई और न ही अस्पताल को सील किया गया। इससे लड़की के परिजनों का पुलिस पर से विश्वास उठ गया और वे इस बहकावे में आ गये कि उनके मामले में लीपापोती की जा रही है। इस बीच एक एनजीओ से उऩका संपर्क हुआ। उसने उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष की कमान संभाल ली।

इसके बाद अगले दिन भीड़ फिर सड़कों पर आ गई। नेशनल हाईवे को जाम कर दिया गया। नवज्योति अस्पताल पर भारी पथराव हुआ और पुलिस आयी तो भीड़ ने रक्षात्मक रुख अपनाने की बजाय उस पर भी हमला बोल दिया। फजलगंज थाने के बुजुर्ग उप निरीक्षक लाखन सिंह इस दौरान अकेले भीड़ के हत्थे चढ़ गये। उनकी वहशियाना अंदाज में पिटाई की गई। सड़क पर गिराकर उन्हें लात-घूसों, लाठी-डंडों से मारा गया। इतना ही नहीं गुम्मों और पत्थरों से उन्हें कुचलने की बर्बरता तक दिखाई गई। फजलगंज कोतवाली के प्रभारी निरीक्षक सुनील कुमार सिंह को उन्हें बचाने के लिए अपनी सर्विस रिवाल्वर से फायरिंग करते हुए भीड़ को खेदड़ना पड़ा। बाद में डीएम, डीआईजी भारी फोर्स लेकर मौके पर पहुंचे, तब कहीं स्थिति नियंत्रित हो पायी। 29 लोगों को नामजद करते हुए 200 अज्ञात लोगों के खिलाफ इस मामले में मुकदमा दर्ज किया गया है। उपद्रव भड़काने में आरोपित एनजीओ संचालिका के खिलाफ भी मुकदमा लिख लिया गया है।

उपद्रव की वीडियो फुटेज के आधार पर दरोगा पर हमला करने वाले आशीष साहू सहित एक दर्जन लोग आनन-फानन पकड़ लिए गए। दरोगा लाखन सिंह अमानुषिक पिटाई से पुलिस की घनघोर आलोचक मानी जाने वाली सिविल सोसाइटी भी विचलित हुए बिना नहीं रही। फेसबुक पर लोगों ने लिखा कि अगर पुलिस किसी को गाली देती है और डंडे से पीटती है तो उस पर धड़ाधड़ कमेंट आने लगते हैं लेकिन एक बुजुर्ग दरोगा की अमानवीय पिटाई करने वाली भीड़ पर वैसे लानत क्यों नहीं भेजी जा रही।

बेशक पुलिस अपनी इस दुर्दशा के लिए खुद भी कम जिम्मेदार नहीं है। किसी के प्रियजन की हत्या हो जाए, उसके साथ भी पुलिस क्रूर बर्ताव करने से नहीं हिचकती। हत्यारों से अपनी जेब गरम करने में पुलिस को उसका जमीर नहीं कचोटता। थाने आने वाले फरियादियों से अच्छा बर्ताव करने की चाहे जितनी नसीहत दी जाए लेकिन बात वही ढाक के तीन पात की रहती है। पीड़ित आगंतुक के साथ प्रायः थानों में अभद्र व्यवहार भी होता है जबकि सटोरिये, दलाल आदि खास मेहमान की तरह नवाजे जाते हैं क्योंकि वे पुलिस की दुधारू गाय हैं, इसलिए पुलिस के प्रति लोगों में आदर और सहानुभूति उपजे तो उपजे कैसे। उस पर तुर्रा यह है कि समाजवादी पार्टी जैसे दलों को इस बीच उत्तर प्रदेश में जब लंबे समय तक सरकार में रहने का मौका मिला तो सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं का गलत काम न करने पर पुलिस वाले थाने के अंदर ही जूतों तक से पीटे गये। ऐसी जुर्रत करने वालों पर कड़ा एक्शन तो दूर रहा उनके जुल्म के शिकार पुलिस अफसर का ही किसी कालापानी में ट्रांसफर कर दिया गया। पुलिस का भोकाल-भभका इसके चलते खत्म होता चला गया।

लेकिन ऐसा नहीं है कि पुलिस में अब कोई ऊर्जा बची ही न हो। उत्तर प्रदेश के नौजवान आईपीएस अफसरों में बबलू कुमार इस अंधेरे समुद्र में लाइटपोस्ट की तरह अलग चमकने में कामयाब हुए हैं तो इसलिए चाहे मथुरा में बनी संवेदनशील स्थिति हो या सहारनपुर का चुनौतीपूर्ण मोर्चा, उनके पहुंचते ही उपद्रव फैलाने वाले उन्मादी बिलों में घुस जाने को मजबूर हो गये। बहुत लोगों का मानना है कि सुलखान सिंह ईमानदार भले ही हों लेकिन उनमें विभाग को साहस का संचार करने वाली लीडरशिप देने के गुण का अभाव है वरना अकेले किसी एक जिले में नहीं पूरे प्रदेश में पुलिस बबलू कुमार की तरह के ऊंचे मनोबल के साथ अभी भी काम कर सकती है। अगर सीएम योगी सबसे वरिष्ठ आईपीएस को डीजीपी बनाने की जड़ सिद्धांतवादिता के फेर में न पड़े होते और सूर्यकुमार शुक्ला का चयन डीजीपी के लिए कर लिया होता तो प्रदेश में शांति व्यवस्था का इस कदर भट्टा न बैठता।

लोकतंत्र में भारतीय समाज में कुछ ज्यादा ही खुलापन ला दिया जो उच्छृंलता के दीदार के रूप में दिखाई दे रहा है। लोगों में सर्वत्र अराजक शैतान जाग उठा है। हर कहीं बात-बात में लोग पुलिस से भिड़ने को तैयार रहते हैं। सचमुच यह एक गंभीर समस्या है। अनुशासित समाज के निर्माण के प्रयास गंभीरता से करने की जरूरत है वरना इससे पुलिस की ही नहीं पूरी व्यवस्था की और देश की मान-मर्यादा धूमिल होकर खत्म हो जाएगी। जीरो टॉलरेंस की नीति धरातल पर दिखनी चाहिए, तभी अनुशासन साकार हो सकता है। छोटी से छोटी चूक को पकड़ा जाये और कार्रवाई करने में चेहरे का कोई ख्याल न किया जाए। इतनी कार्रवाइयां हों कि हाहाकार मच जाये। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि अनुशासन के स्तर पर भी चरम शक्ति दिखाई जाना लाजिमी है।

हाल के समय में प्रशासन को मैनेज करने की कला सिखाने का फैशन चल पड़ा है। जो लोग न्यूसेंस करते हैं उन्हें सबक सिखाने की बजाय उनको मैनेज करना अधिकारियों के खून में समाता जा रहा है। जिससे अवांछनीय हरकतों को बढ़ावा मिलता जा रहा है। सतारूढ़ फ्रंट के कार्यकर्ता हों, अधिवक्ता हों या पत्रकार, वे कितने भी उद्दंडता करें पुलिस आंख में आंख मिलाकर उन पर कार्रवाई करने की बजाय शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन धंसाकर उन्हें बरकाने की कोशिश करती है। इसलिए राजनीति, पत्रकारिता और वकालत अराजक तत्वों के अड्डे बनते जा रहे हैं। जबकि होना यह चाहिए कि अगर ऐसे लोग कानून के साथ खिलवाड़ करें तो उन पर ज्यादा बड़ी कार्रवाई हो। कानून के रखवाले सड़कों पर बिछा-बिछाकर पीटे जाएं, किसी देश के लिए इससे शर्मनाक बात कोई और नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी सरकार ऐसे हर प्रसंग को स्थानीय गड़बड़ी करार देकर समग्रता में चुनौती से निपटने का साहस नहीं दिखा पा रही, इसे बेशर्मी की इंतजा न कहा जाए तो क्या कहा जाए।

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