गरीबी और बेरोजगारी की समस्या उन्नत होती व्यवस्था और समाज के अस्तित्व के लिए चुनौती की तरह है इसलिए आजादी के बाद से हर चुनाव में, हर पार्टी इनके स्थायी निदान का भरोसा तो दिलाती है लेकिन बाद में वह इस मोर्चे पर लाचारी और उदासीनता ओढ़ लेती है। भारत के संदर्भ में यह व्यवस्था इसलिए भयानक खतरे को आमंत्रित करने की आहट है क्योंकि यह दुनिया का सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है, जिसमें इन समस्याओं का परिणाम युवा ऊर्जा में असंतोष के विस्फोट के रूप में सामने आ सकता है। नक्सली और पृथकतावादी आंदोलनों के पीछे यही दोनों समस्याएं कारक की भूमिका अदा कर रही हैं। इससे कई जगह भारतीय राज्य व्यवस्था की चूलें हिल चुकी हैं। फिर भी सत्ता सदन में बैठे लोग कपटाचार से बाज आकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
जब इन समस्याओं का आइना सरकारों को दिखाया जाता है तो वे जनसंख्या वृद्धि की आड़ लेकर भ्रमित करने की कोशिश करती हैं जबकि यह बात वैज्ञानिक रूप से गलत है। प्रकृति किसी जीव की संख्या इतनी नहीं बढ़ने देती कि उसके अस्तित्व के लिए जिन संसाधनों की व्यवस्था उसने रखी है उनका बोझ उससे ऊपर निकल जाए। न जनसंख्या ज्यादा है न संसाधन कम हैं। समस्या व्यवस्था में न्यायपूर्ण संतुलन के अभाव की है। समाज व्यवस्था जैसे-जैसे विस्तार लेती गई संसाधनों पर चंद सक्षम लोगों द्वारा एकाधिकार की प्रवृत्ति जोर पकड़ती गई और यह विभीषिकाओं के निर्माण का कारण बन गया। वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति से उम्मीद की गई थी कि इससे बुनियादी समस्याओं का अंत होगा लेकिन इनके वरदानों को सक्षम लोगों की विलासी इच्छाओं की पूर्ति तक सीमित कर दिया गया, जिससे सुनहरी उम्मीदें दुराशा में बदल गईं।
नैतिकता के पाखंड की भी इस दुष्चक्र में बड़ी भूमिका है। उदाहरण के तौर पर आज कुलीन वर्ग इस बात की बहुत दुहाई देता है कि आजादी के पहले का अतीत कितना अच्छा था। लोग कितने ईमानदार थे। आज भौतिकता बढ़ने से समाज में नैतिकता और चरित्र का हृास हो गया है, लेकिन उनका यह स्वर्ग कितना खोखला है यह उनके नैतिकता के संसार की भूल-भुलैया में समझदारी के साथ भटकने से मालूम होता है।
वह स्वर्ग ऐसा था जब 90 प्रतिशत आबादी भूखे ही सो जाने को मजबूर थी। उसके पास पहनने को सलीके के एक जोड़ी कपड़े नहीं होते थे। संपत्ति के नाम पर अभाव का निविड़ घना अंधेरा पसरा रहता था। यह दुर्दशा इसलिए नहीं थी कि समुचित वैज्ञानिक विकास न होने की वजह से उस समय संसाधनों की कमी थी। सत्य तो यह है कि चंद लोगों के पास संसाधनों का इस कदर एकत्रीकरण हो गया था कि हर तरह के ऐशोआराम की व्यवस्था करने के बाद भी उनके पास इतना सोना जमा बना रहता था कि वे और क्या ऐश्वर्य बढ़ाने में खर्च करें, यह उनको नहीं सूझ पाता था। आज से दो दशक पहले तक जहां देखो वहां खुदाई में सोने के कलशे मिलने की किंवदंतियां छाई रहती थीं और जो अधिकांश सत्य होती थीं। संपन्न लोगों में उद्यमिता की सोच तो थी नहीं, दुष्टता भी थी कि ज्यादा काम-धंधे करेंगे तो आम लोगों को भी इतनी आमदनी होने लगेगी कि बेगारी कराने के लिए उन्हें आदमी नहीं मिलेंगे। कंगाल रियासतों में भी राजाओं ने बड़े-बड़े किले बनवा रखे थे। जिसके पीछे था बर्बर और अमानवीय शोषण। बिना कुछ दिये प्रजा से हाड़तोड़ मेहनत कराने का राक्षसी अधिकार उन्होंने हुकूमत के जरिये हथिया रखा था।
आजादी के बाद यह संभव नहीं रह गया। जमीनों की सीलिंग से लेकर निचले स्तर तक स्वशासन आधारित प्रणाली ने संसाधनों का इतना विकेंद्रीकरण किया कि समाज के बहुत बड़े हिस्से में अभाव छू-मंतर हो गया। यह बताना लोगों को आसानी से पच नहीं सकता कि इस विकेंद्रीकरण में भ्रष्टाचार की बहुत बड़ी भूमिका रही, जिस पर परंपरागत मानकों के तहत नाक-भौं सिकोड़ी जा सकती है लेकिन कुछ लोग बेशुमार धन-दौलत को जमीन में दफन करके रखें और पूरा समाज भुखमरी से सिसकता रहे, इस यथास्थिति के कवच के बतौर ईमानदारी का गुणगान करना सद्चरित्रता की बानगी मानी जानी चाहिए या धूर्तता की। भारत में कोई साम्यवादी क्रांति संसाधनों के वितरण के लिए नहीं हुई। यहां तथाकथित नैतिक विकृत्ति की वजह से ही बड़ी संख्या में लोगों के पास पैसा आया, जिसने उद्यमशीलता और बाजार को बढ़ाने में योगदान दिया।
लेकिन यह व्यवस्था अब ठहराव का शिकार हो रही है और एकाधिकारवादी रवैया पुनः हावी होने लगा है। खुदरा व्यापार तक के क्षेत्र को कारपोरेट के हवाले किया जा रहा है। नोटबंदी के हालिया फैसले ने कई फैक्ट्रियां बंद करा दी हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में खनन की नीति न बन पाने से निर्माण सेक्टर पर पाला पड़ गया है। जिससे फिर मजदूर की ऐंठ निकल पड़ी है और वह बेगारी के युग में वापस लौटने लगा है। उधर, आम लोगों की आय सीमित रह जाने से बाजार की ग्रोथ पर भी असर पड़ा है क्योंकि जब तक ग्राहकों की संख्या ज्यादा नहीं होगी बाजार फल-फूल नहीं सकता। इसी के समानुपात में व्यापारिक प्रतिष्ठान न बढ़ना लाजिमी है। जिसकी निष्पत्ति रोजगार के अवसर बढ़ने के दरवाजे फिर बंद होने के रूप में दिखाई देने लगी है।
विडम्बना यह है कि कारपोरेट सेक्टर बढ़ने के बावजूद भारत में पूंजीवाद की काया में भी सामंतवादी आत्मा ज्यों की त्यों बसी है। अन्य विकसित देशों की तरह यहां कामगारों को पर्याप्त वेतन-भत्ते की गारंटी सरकार नहीं दे पा रही। दूसरी ओर स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली आदि सेक्टर भी निजी क्षेत्रों के हवाले कर दिये गये हैं, जिससे मूलभूत जरूरतों तक के लिए आम आदमी तरस उठा है। इसलिए रोजगारशुदा लोगों का आंकड़ा भी छद्म बनकर रह गया है।
देश अब निहित स्वार्थों की पोषक व्यवस्था के कारण थोथी नैतिकता के खिलाफ हुई क्रांति की उलटी गिनती की ओर चल पड़ा है। यह स्थिति कैसे खत्म हो, ये एक चुनौती है। लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे में महंगे वितंडावाद की सफलता में मुख्य भूमिका बन चुकी है। जिससे लोकतंत्र चरमरा उठा है। वितंडावाद के मायावी घटाटोप में लोग अपने हित-अनहित को पहचानना भूल जाते हैं और वर्ग शत्रुओं को ही अपना कंठहार बना लेते हैं। इसलिए सर्वाइबल ऑफ हिटेस्ट की जंगली व्यवस्था की ओर जाते समय के रथ को थामना जरूरी हो गया है। सीलिंग, खुदरा सेक्टरों को कारपोरेट के लिए निषिद्ध करने, कामगारों के वेतन व सुविधाओं के मानकों का मजबूती से संरक्षण और जीवन की मूल आवश्यकताओं के कामों का सार्वजनिक सेक्टर में संचालन ऐसे मॉडल के बारे में एक बार फिर से सोचने की जरूरत है।
जो देश इस विरासत को जीवित रखे हुए हैं वहां आज भी गरीबी और बेरोजगारी का संकट भारत जैसे विकराल रूप में नहीं है। एक विसंगति यह भी है कि आधारभूत ढांचे को कायम करने में जितना काम होना चाहिए था उतना प्रयास पहले न करने की भीषण चूक की गई है। हालांकि अब इस काम में तेजी आयी है। लेकिन और तेजी लाने की जरूरत है। इस संदर्भ में यह एहतियात भी बरतना होगा कि ऐश्वर्य की चोटियों पर विराजमान यक्ष किन्नरों के स्टेटस सिंबल के लिए बुलेट ट्रेन चलाने जैसे प्रयासों में संसाधन झोंककर आम आधारभूत ढांचे के विस्तार के प्रयासों में कटौती न होने दी जाये। सार्वजनिक व्यवस्थाओं को सुचारु बनाने को प्राथमिकता देनी होगी। बेरोजगारी और गरीबी के संकट से उबरने के लिए यही सर्वोत्तम उपाय हैं। लेकिन क्या सरकारों का नियमन जो वर्ग सत्ताएं कर रही हैं उनके दबाव से परे होकर कुछ करने का साहस मौजूदा नेतृत्व दिखा सकता है।







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