शुक्रवार को खबर आई कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 30 बच्चों की आक्सीजन न मिल पाने से मौत हो गई। यह खबर हृदय विदारक तो है ही इस खबर ने अच्छे दिन लाने के केंद्र, राज्य सरकारों और भाजपा के दावों का खोखलापन भी साबित कर दिया है। अच्छे दिन जुबानी जमा खर्च से नहीं आते उनके लिए प्रयास और उद्यम होना चाहिए। काम करने वालों में रचनात्मक उमंग दिखनी चाहिए। यह सारे तत्व व्यवस्था के वर्तमान कर्ताधर्ताओं में नदारद हैं।
दो दिन पहले ही सीएम योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कालेज का निरीक्षण किया था। उनके निरीक्षण के मानक अद्भुत हैं, जिसकी बानगी वे पहले ही दिन दिखा चुके हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद कानून व्यवस्था के हालात टटोलने के लिए जब वे लखनऊ की हजरतगंज कोतवाली में पहुंचे थे तो उन्होंने ऐसे कोई सवाल नहीं किए कि पिछले 100 दिन में कितनी सनसनीखेज घटनाएं हुईं। उनमें से कितनों का खुलासा अभी बाकी है। बड़ी घटनाओं के कितने वांछित अभी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं और पुलिस उन्हें पकड़ने के लिए क्या प्रयास कर रही है। बजाय इसके उन्होंने कोतवाली का रंग-रोगन देखा, शौचालय देखा, फर्श पर धूल की हालत देखी और प्राथमिकता के आधार पर थाने की साफ-सफाई ढंग से करने का आदेश पुलिस के अधिकारियों को देकर रुखसत हो गए। जाहिर है कि उन्होंने गोरखपुर के मेडिकल कालेज में भी बजाय चिकित्सा सुविधाओं की हालत की जानकारी लेने और डाक्टरों व मरीजों से समस्याओं के बारे में पूछने के वहां के शौचालय निहारे होंगे और उसके बाद स्वच्छ भारत का गाना गाकर मरीजों और तीमारदारों को कृतार्थ करके चले आए होंगे।
बताया यह जा रहा है कि गोरखपुर में इंसीफ्लाइटिस का जबर्दस्त प्रकोप होने के कारण आईसीयू में भर्ती होने वाले बच्चों का तांता लगा रहता है। जिसकी वजह से आईसीयू में गुजरात की एक फर्म को द्रव्य अवस्था में पाइप लाइन के जरिये आक्सीजन सप्लाई का ठेका दिया गया है। जिसका 70 लाख रुपये बकाया हो गया था। फिर भी उसके भुगतान की कोई ठोस कवायद नहीं हो रही थी। इसलिए वह वार्निंग दे चुका था कि अब वह सप्लाई बंद कर देगा। सीएम को अस्पताल के अपने निरीक्षण के समय इस बात से अवगत हो जाना चाहिए था लेकिन प्रशासनिक गुण के अभाव में वे यह निर्णय नहीं ले पाते कि जहां का निरीक्षण या समीक्षा कर रहे हैं वह किस विषय से संबंधित है और उसकी प्राथमिकता क्या हैं। उन्हें 24 घंटे यह ख्याल रहता है कि अपने पद को दीर्घायु-चिरायु बनाने के लिए पीएम मोदी की कृपा का अजस्व स्रोत अपनी ओर बनाए रखें। इसलिए हर जगह उन्हें केवल स्वच्छ भारत का राग अलापकर प्रभु को प्रसन्न रखने की कला का ध्यान रखना पड़ता है।
वैसे भी योगी आदित्यनाथ चूंकि योगी हैं, ब्रह्मचारी हैं, वीतराग हैं, इसलिए उन्हें कोई भौतिक लालसा नहीं है। तो भौतिक चीजों का ज्ञान भी नहीं है। यह दूसरी बात है कि उन्हें मुख्यमंत्री पद की इतनी लालसा क्यों है। क्या यह लालसा भौतिकता की बजाय आध्यात्मिकता की श्रेणी में आती है। निश्चित रूप से मोदी के उदाहरण के बाद यह प्रश्न शोध का महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में अकादमिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा पीएचडी आध्यात्मिक सिद्धि के लिए मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री का पद विषय पर की जाएंगी। योगी आदित्यनाथ को इसके लिए बधाई…।
तो चूंकि योगी आदित्यनाथ ब्रह्मसत्य को जानते हैं इसलिए जिसकी आ गई है उसे तो जाना ही पड़ेगा और जिसकी नहीं आई है उसका खुदा है यारो का रहस्य जानते हैं। इसलिए अस्पताल जाकर भी चिकित्सा के अभाव में बेमौत मरने वाले लोगों की पीड़ा जैसे मुद्दे उनको विचलित नहीं कर पाते। शायद उन्हें यह विश्वास है कि चिकित्सा और उपचार से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि लोग किस तरह भगवत भक्ति की ओर प्रवर्त हों। तंत्र-मंत्र और जाप करें, जो उनकी सारी भव बाधाएं दूर देंगी। लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी ज्ञानी हैं जिनका मानना है कि यह सोच धर्म विरोधियों का है। जो लोग परम सत्ता में विश्वास रखते हैं उन्हें यह विश्वास है कि उस सत्ता ने इंसान को विलक्षण दिमाग, दो हाथ, दो पांव और अन्य इंद्रियां इसलिए दी हैं कि वह उसके सामने जब चुनौतियां पेश करने का खेल खेले तो वे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करते हुए उनके निवारण के लिए इंद्रियों का उपयोग कर उसके खेल को प्रभावोत्पादक बनाएं। जिन्हें मालूम है कि परम सत्ता निर्विकार है वे उसकी स्तुतिगान इसलिए नहीं करते कि स्वयं पुरुषार्थ करने की बजाय उस सत्ता के अलौकिक प्रभाव से उनका संकट दूर होगा। उन्हें मालूम है कि इसके लिए तो उनको खुद उद्योग करना पड़ेगा। वे अगर परम सत्ता का स्मरण करते भी हैं तो एक अनिवार्य कर्तव्य के बतौर, जिसका निजी हानि-लाभ से कोई लेना-देना नहीं होता।
लेकिन चूंकि योगी की अध्यात्मिकता की डिग्री क्या है, यह इसी बात से जाहिर हो सकता है कि उन्होंने इस बात में अपना विश्वास नहीं बनाए रखा कि संसार के सभी पदों, महत्वाकांक्षाओं और प्रलोभनों से परे होने पर जो आनंद मिलता है वह अनिर्वचनीय है। जिसके बाद संसार के सारे सुख कीचड़ नजर आने लगते हैं। इसलिए उनकी ओर मुंह करने की भी इच्छा नहीं की जा सकती। लेकिन योगी तो पावनता की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचने के बाद राजनीतिक पदों की ओर आकर्षित होकर सांसारिक पंक के महासागर में गोते लगाने की इच्छा कर बैठे हैं।
उनकी करनी से अध्यात्म का जो अनर्थ हुआ वह तो अपूर्णनीय है ही लेकिन उनका मर्ज यानी माइंडसेट सांसारिक न होने से उनकी प्रशासनिक जिज्ञासाओं में जो अधूरापन है उससे शासन व्यवस्था की चूलें हिल उठी हैं। इस आलेख के जारी होते-होते तक उत्तर प्रदेश सरकार का प्रेसनोट आ गया है जिसमें गोरखपुर मेडिकल कालेज में 48 घंटे के अंदर 30 बच्चों की मौत के पीछे आक्सीजन की कमी के कारण को नकार दिया गया है। इसके पहले जब उन्हीं के सांसद कमलेश पासवान ने इसकी पुष्टि की थी और पूर्वांचल के दिल कहे जाने वाले गोऱखपुर में उनके द्वारा नियुक्त खांटी पहाड़ी डीएम राजीव रौतेला ने भी बड़े अफसोस के साथ इस जानकारी को दोहराया था। तो उसके कुछ देर बाद जो प्रतिक्रिया हुई उससे इंद्रासन डोलने की अनुभूति परम श्रद्धेय योगीजी महाराज को जब हुई तो पैंतरेबाजी शुरू हो जाना लाजिमी था। इसलिए बच्चों की ही इतनी मौतों का दूसरा अदृश्य अलक्ष्य कारण बताकर जो डैमेज कंट्रोल किया जा रहा है वह हास्यास्पद है।
अब एक और मसला है, गोरखपुर मेडिकल कालेज के पास बजट की कमी हो गई है और यही आक्सीजन के ठेकेदार पेमेंट न होने का कारण बना। इससे इस बात पर ध्यान जाता है कि अखिलेश सरकार के हटने के बाद से उत्तर प्रदेश में हर जगह सरकार के पास बजट का भारी टोंटा पड़ गया है और सारे काम ठप हो गये हैं। भाजपा दावा तो यह कर रही है कि केंद्र व प्रदेश में उसकी सरकार आ जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो गया है जिससे सरकारी धन की लूट रुक जाने के कारण शासन के खजाने की सेहत दुरुस्त हो जानी चाहिए। उस पर करारोपण और शुल्क वृद्धि की आंधी केंद्र और प्रदेश सरकार ने चला रखी है। टैक्स चोरी खत्म कर दिए जाने का भी दावा है। काला धन का आकार भी सिकुड़ता जा रहा है। फिर ऐसा क्या है कि सरकारी बजट को क्षय रोग लगा नजर आ रहा है। यह स्थिति एक पहेली बनी हुई है। इसकी कीमत उस गरीब जनता को सबसे ज्यादा उठानी पड़ रही है जिसकी दुहाई हर मंच पर भाजपा एंड कंपनी के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर नरेंद्र मोदी देते रहते हैं।
पता नहीं भाजपा गरीबी हटाओ का उपक्रम कर रही है या गरीब हटाओ का। योगी जी को यह अहसास नहीं है कि ईमानदारी और नैतिकता यह मूल्य सापेक्षिक हैं। ईमानदारी के नाम पर उन्होंने मौरंग खनन तो बंद करा दिया लेकिन ईमानदारी से मौरंग खनन कैसे जारी रखा जाए, इसकी तरकीब सोचने की उन्हें कोई जल्दी नहीं है। इसलिए निजी से लेकर सरकारी तक सारे निर्माण उत्तर प्रदेश में ठप पड़ गए हैं। इसकी कीमत कौन चुका रहा है। क्या बड़े आदमी या वह गरीब जो रोज कमाता रोज खाता था और जिसको नोटबंदी के बाद से काम के लाले पड़ गये हैं। निर्माण बंद हो जाने के बाद से वह मुंहमांगी मजदूरी मांगने की बजाय केवल पेट भर खाने के लिए बेगारी करने की हामी भर रहा है फिर भी उसे काम नहीं मिल रहा।
भूखे को किसी भी तरह रोटी मिले, यह बड़ी ईमानदारी है या मोहताज आदमी भूखा मर जाए पर हम ईमानदारी के जाप की बगुला भक्ति से पीछे नहीं हटेंगे। यह हठधर्मिता ईमानदारी है। प्रदेश की दुर्दशा के संदर्भ में यह पहलू भी बहुत विचारणीय है। भाजपा ने कई नई बहसों को जन्म दे डाला है जिसमें खासतौर से योगी के सत्तारोहण के बाद जबर्दस्त उत्प्रेरण हुआ है। जैसे ईमानदारी के नाम पर गरीबों का दमन अपने ही द्वारा प्रतिपादित आपात धर्म के सूत्रवाक्य को भूलकर किया जाना। इसके अलावा दूसरी विसंगति प्रशासनिक जिम्मेदारियां सौंपने में वर्ण व्यवस्थावादी माइंडसेट का प्रयोग। हर विदेशी आक्रमण और चुनौती के समय संसाधन व जनबल की भरपूरता के बावजूद इस व्यवस्था की वजह से पराजय का दंश झेलना भारत की नियति रही है। फिर भी योग्यता और पराक्रम ईश्वर ने केवल कुछ जातियों के लिए आरक्षित हैं, इसलिए कलिकाल की छाया हटाते हुए इन्ही जातियों को सारे पद तेरा तुझको अर्पण की तर्ज पर सौंपने का प्रयोग भी योगी सरकार को बहुत भारी पड़ रहा है। पुलिस में कुछ यादव सपा शासन में ज्यादा पक्षपाती हो गये थे लेकिन इस सच को नहीं भूला जाना चाहिए कि पुलिस के काम को करने की यादवों में कई कारणों से प्राकृतिक रुचि है, जिसकी वजह से पुलिसिंग में निपुणता के मामले में भी वे सबसे आगे हैं। सत्ता बदल के बाद एक लाइन से पुलिस में महत्वपूर्ण पदों से यादवों को हटाना भी कानून व्यवस्था के अस्त-व्यस्त हो जाने में प्रमुख कारक सिद्ध हो रहा है।
दूसरी ओर अन्य महत्वपूर्ण पदों में पुरानी इजारेदारी के सोच की वापसी ने प्रतिनिधित्वपूर्ण और सर्व समावेशी प्रशासन के स्वरूप को मिटा डाला है जिससे व्यवस्था के डांवाडोल होने की आशंका पहले से ही अनुमानित हो जानी चाहिए थी। बहरहाल हर सरकार अपनी कुर्सी बचाने के लिए झूठ बोलने और तमाम पाखंड करने को मजबूर रहती है तो गोरखपुर में बच्चों की मौत पर लीपापोती करने का गुनाह अकेले भाजपा नहीं कर रही, इसलिए मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा विफलताओं से सबक लेने का है। बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेह।







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