पुरुषोत्तमदास रिछारिया

कोंच-उरई । कोंच का ऐतिहासिक गणेश महोत्सव बाजीराव और मस्तानी के बीच के प्रेम का प्रतीक है। यह परंपरा यहां की ऐसी समृद्घ सांस्कृतिक विरासत है जिसे लेकर यहां के नागरिक गर्वानुभूति करते हैं। 18वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्घ में बाजीराव पेशवा प्रथम ने कोंच में गणेश महोत्सव की शुरुआत की थी। वस्तुत: अपनी प्रियतमा मस्तानी से अपने प्रेम को लम्बे समय तक जीवंत बनाये रखने के लिये पेशवा ने इस परंपरा को शुरू किया था। इस नाते यह महोत्सव प्रेम और सद्भाव के प्रतीक के रूप में लोगों के दिलों में बसा है। यह आमजन का आयोजन बन सके इसके लिये उन्होंने इस महोत्सव में गणिकाओं (नृत्यांगनाओं) के नृत्य की परंपरा को भी जोड़ा था जो लगभग तीन दशक पूर्व तक अनवरत जारी रही लेकिन कालांतर में अराजकता और सामाजिक वर्जनाओं के चलते उक्त परंपरा समाप्त हो गई, अलबत्ता अन्य धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन जोड़ कर गणपति उत्सव की परंपरा को जीवंत रखने के प्रयास किये जा रहे हैं।

ब्रिटिश हुकूमत के दौरान आजादी के संघर्ष में आम जन की सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से महाराष्टï्र में स्वाधीनता आंदोलन के महानायक बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव की परंपरा डाली थी। इस नाते इस उत्सव पर मराठा प्रभाव की झलक साफ परिलक्षित होती है। महाराष्टï्र का प्रमुख पर्व आज भी गणेशोत्सव ही है और कोंच के गणपति भी मराठा संस्कृति के इस क्षेत्र पर रहे प्रभाव के प्रतीक हैं। दरअसल, बर्ष 1727 में तत्कालीन महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा प्रथम को उनका जो हिस्सा उन्हें हस्तांतरित किया गया उसमें कोंच भी शामिल था। इतिहास के जानकारों की अगर मानें तो बाजीराव पेशवा अपनी प्रियतमा मस्तानी से अगाध स्नेह करते थे और सन् 1730 में बाजीराव पेशवा प्रथम ने अपनी प्रेयसी मस्तानी के साथ अपने प्रेम को जीवंत बनाये रखने के लिये गणेश महोत्सव की परंपरा शुरू की थी। यह आयोजन आमजन का भी आयोजन बन सके इसके लिये पेशवा ने गणिकाओं के नृत्य की परम्परा भी डाली थी जो बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक तक जारी रही और यहां कमोवेश दो सैकड़ा से भी अधिक गणिकायें (नृत्यांगनायें) अपनी नृत्यकला का उत्कृष्टï प्रदर्शन कर पारितोषिक पाती रही हैं, लेकिन कालांतर में अराजकता और सामाजिक वर्जनाओं के चलते उक्त परंपरा दम तोड़ गई। पिछले तीन दशक इस ऐतिहासिक परंपरा के लिये संक्रमण का दौर माना जा सकता है लेकिन अब उत्साही नौजवानों ने इस गणपति महोत्सव को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है और इसमें कतिपय धार्मिक और सांस्कृतिक आयाम जोड़ कर इसे प्रभावशाली बनाने के प्रयास किये हैं।

भाद्रपद कृष्ण पक्ष के आखिरी दिनों में ही आयोजन को लेकर सभी तैयारियां कर ली जाती हैं और भादों की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को यहां के सनातनी घरों और पंडालों में धूमधाम से गणपति का प्राकट्य होता है। एक सप्ताह तक धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों का सिलसिला चलता रहता है। कुछ गणेश तो यहां काफी नामी रहे हैं, मसलन लवली चौराहा, पसरट बाजार, रामगंज, नईबस्ती, तिवारी के गणेश, बुलबुल के गणेश, महादेव चौधरी के गणेश, गल्ला मंडी के गणेश आदि मेले के मुख्य आकर्षण रहा करते थे। नगर के बड़े बूढे बताते हैं कि जब गणेशोत्सव चरमोत्कर्ष पर था तब कमोवेश सैकड़ा भर स्थानों पर एकदंत की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना होती रही है, व्यापारी और दुकानदार वर्ग के अलावा नगर के प्रतिष्ठित लोगों में इस महोत्सव को लेकर खासी रूचि रही है। यहां तहसील मुख्यालय के निकट प्राचीन गढी पर स्थित गणेश मंदिर में नृत्यरत बाल गणेश की विलक्षण प्रतिमा अपने गर्त में एक पूरा ऐतिहासिक कालखंड संजोये है तो वहीं बड़ी माता मंदिर तथा लक्ष्मीनारायण मंदिर (बड़ा मंदिर) में स्थापित गणेश प्रतिमायें कोंच नगर के गणेशोत्सव और भगवान गणेश से जुड़ी दंतकथाओं के बिशेष संबंध उजागर करने में स्वयं ही सक्षम हैं।

 

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