अराजकता के सबसे बड़े स्रोत के रूप में धर्म के उभरने का परिणाम है गुरमीत राम-रहीम

गुरमीत राम-रहीम के मामले में हिंसा के तांडव के बाद भारत के अराजक राष्ट्रीय मानस पर चर्चा होना लाजिमी बन गया है। इस सामूहिक विकार को बहुधा एक धर्म विशेष के सिद्धांतों से जोड़कर अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन यह शुतुरमुर्गी रवैया है। दरअसल मसला किसी भी धर्म का हो, जिस तरह की हठवादिता पर लोग उतर आते हैं वह हमारे सामूहिक विवेक को प्रश्नचिन्हित कर देता है। इस मानसिकता के निवारण के बिना देश में आधुनिक व्यवस्था को लागू करने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए जो असल मर्ज है उसके बारे में धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह का चश्मा हटाकर सभी को अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है।

मसला इस बात से जुड़ा हुआ है कि यह देश किसी संविधान और विधान के मुताबिक चलने में यकीन नहीं करता। यहां तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी इस प्रवृत्ति को हावी देखा जा सकता है। अगर धर्म की कुछ बुनियादी किताबें और स्थापनाएं बना दी जाएं तो बहुत हद तक मनमानी का अंत हो सकता है। 1936 में जिस हिंदू सम्मेलन को बाबा साहब अंबेडकर की अध्यक्षता के कारण कट्टरपंथियों के विरोध स्वरूप रद्द कर दिया गया था उसके बाबत उन्होंने एक भाषण तैयार किया था। जब वह कार्यक्रम नहीं हुआ तो उन्होंने उस भाषण को छपवा कर बंटवाया। बाबा साहब का वह भाषण बेहद महत्वपूर्ण है। जिसमें उन्होंने सुझाव दिया कि अगर धर्म को बचाना है तो उसकी कुछ बुनियादी किताबें तय कर दी जाएं जिसके विधान के मुताबिक कार्य हों और उनकी योग्यता के अनुरूप धार्मिक पद दिए जाएं।

बाबा साहब के इस सुझाव में कोई दुराग्रह नहीं था। लेकिन अराजकतावादी मानस को यह चीज कैसे सुहा सकती थी। आशाराम हों, रामपाल हों या गुरमीत राम-रहीम यह लोग ईश्वर के अवतार के रूप में कैसे स्वीकार किए जाने लगे जबकि ये सारी विभूतियां भी हिंदू धर्म से जुड़ी हुई हैं। जिसमें ईश्वर का केवल 24 बार अवतार लेना बताया गया है, जिनमें 23 अवतार हो चुके हैं। चौबीसवां कल्कि अवतार कैसा होगा, कहां होगा, इसका संकेत भी श्रीमद्भागवत आदि में है और उक्त स्वयंभू अवतारों से इन संकेतों का कोई मेल नहीं है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हिंदू धर्म बहुत गूढ़ता में प्रवेश करने पर यह घोषित करता दिखता है कि अवतारी कथाओं में उसका कोई बहुत विश्वास नहीं है। मूल रूप से हिंदू धर्म भी निर्गुण उपासक है, लेकिन निर्गुण अध्यात्म के लिए साधना के ऊंचे स्तर की जरूरत होती है, जिसकी ओर पहले दिन से अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। इसलिए अवतारों की मिथकीय कथाएं गढ़ी गईं ताकि साधारण लोगों को रहस्य-रोमांच की ओर उनके स्वाभाविक झुकाव के नाते धर्म के क्षेत्र की ओर आकर्षित किया जा सके। लेकिन अंततोगत्वा जब वह सिद्धि के स्तर पर पहुंच जाए तो उससे इन कथाओं की केंचुल उतारने की अपेक्षा हिंदू धार्मिक दर्शन में की गई है।

इसके अलावा और भी बातें हैं। संत और सिद्धि के लिए बहुत कठिन व्रत की बातें हिंदू धर्म में बताई गई हैं। इस पैमाने पर पहले ही दिन धर्म का चोला ओढ़ने वाले असंतों को पहचाना जाना संभव है। लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता, क्योंकि फिर कहना पड़ेगा कि भारतीय समाज लीगल सेंस यानी विधिक विवेक से वंचित है इसलिए उसे यह ध्यान करने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि किस जीवन के लिए कौन सी शर्तें अपरिहार्य हैं। राम-रहीम की जो जीवन स्टाइल थी अगर धर्म के क्षेत्र का विधिक विवेक होता तो पहले ही दिन से लोग स्वीकार नहीं कर सकते थे कि यह आदमी संत है। अवतार तो बहुत दूर की बात है और मौजूदा सत्ता से जुड़े एक वर्ग सहित घृणा से भरे कितने ही समूह आलाप-विलाप करें पर जिनके अंदर धर्म का लीगल सेंस है उन्होंने यह पहचाना और यह पहचानते भी रहेंगे कि गांधी जी किसी राजनीतिक पदवी के नहीं धार्मिक संबोधन के ही हकदार थे, इसीलिए लोगों के मुंह से उनके लिए महात्मा का स्वतःस्फूर्त संबोधन निकला और वह मान्य हो गया।

जहां सभी भौतिक सत्ताओं का अंत हो जाता है वहां से अध्यात्म की शुरुआत होती है। यह बात कोई दूसरा धर्म नहीं कहता बल्कि इस बात को सबसे जोरदार तरीके से हिंदू धर्म में कहा गया है। लेकिन आश्चर्य यह है कि धार्मिक बाढ़ की नई बयार में धर्म सत्ता की संस्था का परिचय करा दिया गया। जो लोग धर्म के सबसे ऊपर सोपान पर पहुंचने के बाद मंत्री और मुख्यमंत्री का पद ग्रहण कर रहे हैं वे लोग धर्म सत्ता जैसे मिथ्याचार की वजह से ही अधोगति की ओर अग्रसर हैं। धर्म समाज के नैतिक और बौद्धिक विकास में योगदान करता है। लेकिन अगर गुरमीत राम-रहीम, आशाराम बापू, रामपाल, नारायण साईं आदि धर्म के चेहरे के रूप में स्थापित किए जाएंगे तो इस उद्दात क्षेत्र से अपना उद्देश्य पूरा करने की अपेक्षा कैसे की जा सकेगी।

25 अगस्त को पंचकुला की सीबीआइ अदालत में जब दो साध्वियों के यौन शोषण मामले में गुरमीत राम-रहीम का फैसला सुनाया जाना था उस समय सभी को पता था कि अगर अदालत ने गुरमीत को दोषी करार दिया तो उसके गुंडे कहर ढा देंगे। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने इसी अभिज्ञान की वजह से आगाह किया था कि अगर गुरमीत को संभावित प्रतिकूल फैसले के बाद एक भी हत्या होती है तो हरियाणा के डीजीपी को बर्खास्त करने की कार्रवाई राज्य सरकार को करनी चाहिए। इसलिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं पर व्यवस्था में जो लोग वर्तमान में कर्णधार का रोल अदा कर रहे हैं उनकी दृष्टि बेहद संकुचित है। वे ऐसे मामले में तभी कटिबद्ध होते हैं जब दूसरा पक्ष मुसलमान जैसे गैर संप्रदाय का हो। जबकि अराजकता भारतीय स्वभाव का पर्याय बन गया है, जिसका परिचय क्या हिंदू क्या मुसलमान सभी वक्त पर देने में बाज नहीं आते। बहरहाल कहने को तो पंचकुला में धारा 144 लागू करा दी गई थी लेकिन पहली बार यह किया गया था कि धारा 144 का जो मूल तत्व है कि किसी स्थान पर 5 या 5 से अधिक व्यक्तियों का जमाव न होने दिया जाए, उस निषेध को इसके आदेश में विलोपित ही कर दिया गया था इसलिए गुरमीत के लाखों समर्थकों का जमावड़ा पंचकुला में होने दिया गया। इसी तरह राज्य सरकार ने पुलिस के साथ-साथ सेना तक को बुला लिया था लेकिन यह भी एक दिखावा था। सेना केवल शोपीस के लिए रही। बाकी पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को हिंसा की शुरुआत के बाद भी असमंजस में रखा गया इसलिए वे उपद्रवियों को शुरू में सख्ती से नहीं रोक सके।

अदालत ने भले ही गुरमीत को बलात्कार जैसे महापाप के अपराध का दोषी सिद्ध किया हो लेकिन खट्टर सरकार के लिए इसका कोई मूल्य नहीं था। वे तो उसे पवित्र आत्मा मान रहे थे और आज भी मानते हैं। इसलिए उसे 700 गाड़ियों के काफिले के साथ पंचकुला पहुंचने से नहीं रोका गया। सजा के बाद भी उसके प्रति श्रद्धा प्रदर्शन में कमी नहीं आने दी गई। इसे लेकर हरियाणा के डिप्टी एडवोकेट जनरल को बर्खास्त कर दिया गया है। लेकिन यह अकेले उनकी स्थिति नहीं थी। परिवेश ही ऐसा था कि सारी सत्ता सजायाफ्ता हो जाने के बावजूद गुरमीत को किसी तरह का कष्ट पहुंचने देने के पाप में भागीदार न होने के लिए सतर्कता बरत रही थी। अगर मीडिया ने न दिखाया होता तो संभव था कि अदालत की सजा एक तरफ गुरमीत को रोहतक के फाइव स्टार होटल में बदल दिए गए गेस्ट हाउस में ही रहने दिया गया होता। जेल न पहुंचाया गया होता। लेकिन जेल में भी गुरमीत के ठाठ ही रहे। उनके लिए जेल में एक स्पेशल बैरक तैयार की गई थी जो सभी सुविधाएं से सुसज्जित है और उसमें कैदी की तरह नहीं उसे अत्यंत सम्मानित मेहमान की तरह रखा जा रहा है।

गुरमीत के प्रति खट्टर का सॉफ्टकॉर्नर उनकी धर्मभीरुता का नमूना माना जा सकता है लेकिन जाटों के आरक्षण के आंदोलन में भी गुंडे महिलाओं से बलात्कार तक करते रहे पर वे कुछ न कर सके। तभी साबित हो गया था कि उनमें क्षमताओं की कमी है। इसलिए गुरमीत को सजा के बाद हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, यूपी सहित कई राज्यों में जिस तरह से उपद्रव हुए और जिसमें उनकी सरकार की ढिलाई पूरी तरह उजागर होकर सामने आयी उसके बाद तो यह मान लिया गया था कि भाजपा खट्टर से नमस्ते कर ही लेगी लेकिन जैसे लड़की छेड़ने के मामले में हरियाणा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को बहाल रखना जनाब लौहपुरुष ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। जैसे रेलवे में हादसे दर हादसे के बावजूद सुरेश प्रभु का इस्तीफा मंजूर न करने हेकड़ी दिखाई जा रही है वैसे ही अहंकार की पराकाष्ठा की वजह से ही इतने बड़े घटनाक्रम में भी मोदी किसी की जवाबदेही तय करने को तैयार नहीं हैं। यह हद है।

बहरहाल धर्म भारतीय राष्ट्र राज्य के अस्तित्व के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका है। कभी इस्लाम कभी खालिस्तान तो कभी स्वयंभू हिंदू अवतारों के कारण धर्म के माध्यम से भारतीय राज्य व्यवस्था की चूलें हिलाने की कोशिश की जाती हैं। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सबसे ज्यादा गंभीर चुनौती धार्मिक दुराग्रहों की वजह से ही पैदा हो रही है। उत्तर प्रदेश के लोगों ने कुछ समय पहले मथुरा में रामवृक्ष नाम के एक पागल का तांडव देखा था जिसके उपद्रव की पृष्ठभूमि में उसके प्रति लोगों के धार्मिक लगाव का पागलपन मुख्य रूप से काम कर रहा था। यही कुछ गुरमीत के मामले में हुआ है इसलिए अब चीजों से सबक लेकर नया धार्मिक प्रबंधन करने की जरूरत है जो अध्यात्म की तात्विक मान्यताओं के अनुरूप हो और धार्मिक व्यवस्थाएं किसी विधान-संविधान के तहत चलें।

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