संसद और राज्यों के विधानमंडल न हों गोया कोई रहस्यलोक है जहां घुसते ही वरदानियों को कुबेर के तहखाने की सुरंग दिखा दी जाती है जहां वे छककर माल बटोरें लेकिन उन्हें वरदान देने वाले देवता यानी मतदाता शापित रहते हैं। जिन्हें उनकी कृपापात्र ही अभावों में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। भारतीय लोकतंत्र की पंचकथा जितनी दिलचस्प है उतनी ही अजीब और अजूब, जिससे कई चकराने वाले पहलू जुड़े हुए हैं।
खुद देश की सबसे बड़ी अदालत भी समय-समय पर भारतीय लोकतंत्र की हरि कथा से चकराए बिना नहीं रह पाती। सुप्रीम कोर्ट इन दिनों एडीआर की रिपोर्ट पर सुनवाई कर रही है जिसमें माननीयों की आमदनी में उछाल के ऐसे आंकड़े पेश किए गए कि जजों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर होना पड़ा। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक माननीयों के बारे में उनके चुनावी हलफनामों से उजागर हुआ है कि कुछ ही वर्षों में एक सांसद की संपत्ति 2100 फीसदी तक बढ़ी। चार माननीयों की संपत्ति में 1200 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ। 22 और माननीयों के बारे में एडीआर ने अदालत को सूचना दी कि उनकी हैसियत में 500 फीसदी तक बढ़ोत्तरी हुई। सुप्रीम कोर्ट ने एडीआर की इस रिपोर्ट को गंभीरता से संज्ञान में लेकर सरकार से जवाब-तलब किया, जिसके बाद केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड की ओर से एक सीलबंद लिफाफा देश की सबसे बड़ी अदालत में पेश किया गया है। जिसमें माना गया है कि 7 सांसदों और 98 विधायकों ने चुनावी हलफनामे में जो जानकारी दी है वह इनकम टैक्स रिटर्न में दी गई जानकारी से अलग है।
इस गुनाह के बावजूद सरकार के अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अदालत से प्रार्थना की कि इन पुण्यात्माओं के नाम उजागर न किए जाएं। शायद इसलिए कि माननीयों की शराफत का नकाब नुचने पर देश के जनतंत्र के दिखावे पर लोगों की आस्था का शेषनाग डगमगा गया तो जनतंत्र की दुनिया में प्रलय आ जाएगा। लेकिन क्या ऐसी किसी दुनिया को बचाने की जरूरत होनी चाहिए।
सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने माननीयों की आमदनी की बढ़ोत्तरी को लेकर उतनी ही निश्छल जिज्ञासाएं वेणुगोपाल से कीं जितनी अबोध आम आदमी के मन को कुरेद सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि सांसद-विधायक लोगों की समस्याएं निपटाने में 24 घंटे व्यस्त रहते हैं क्या उन्हें इस आपाधापी में कारोबारी कौशल दिखाने की कोई गुंजाइश बचती है। पता नहीं वेणुगोपाल साहब अदालत के इस सवाल पर खुद को जमीन में शर्म से गड़ा महसूस कर रहे थे या नहीं।
शायद नहीं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के यह कहने पर कि सांसदों और विधायकों की संपत्ति में बेहिसाब उछाल की अलग से जांच कराना चाहिए, वेणुगोपाल बिफर गये। उन्होंने कहा कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड इस मामले में आलरेडी संतोषजनक काम कर रहा है जिससे माननीयों की अकल्पनीय संपत्ति में बढ़ोत्तरी की जांच के लिए अलग से कोई व्यवस्था बनाने की जरूरत नहीं है। वेणुगोपाल ने नेताओं की आय से अधिक संपत्ति के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन के सुप्रीम कोर्ट के मशवरे का भी प्रतिवाद किया।
भाजपा पार्टी विद ए डिफरेंस का गर्वीला मेकअप करके खुद को दूसरी पार्टियों से बहुत ज्यादा खूबसूरत दिखाती रही है लेकिन उसने साबित कर दिया है कि राजनीतिक बिरादरी में चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत सबसे ज्यादा सटीक है। जब लालू जैसा बेबाक विरोधी सामने हो तभी भाजपा द्वारा यह उसूल तोड़ा जाता है। सभी जानते हैं कि यूपी में अपनी सरकार के समय जमीनों पर कब्जा करने वाले सपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई के मामले में बीजेपी के नेता इसी सूत्र के तहत थूक कर चाटते नजर आ रहे हैं। अन्यथा भाजपा को विधानसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े सूबे में जो छप्पर फाड़ समर्थन मिला था उसके पीछे उसकी इस घोषणा का सबसे अहम योगदान था कि वह अवैध कब्जे करने वाले सपा नेताओं को जेल भेजकर उनके कब्जे खाली कराएगी।
कहा जाता है कि बीजेपी के एक प्रदेशीय नेता सपा के समय के सबसे बड़े भू-माफियाओं से भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को पार्टी चंदा के बहाने दलाली दिलाकर उनका मामला सेट करा चुके हैं। इसीलिए यूपी बीजेपी में वे लोग हावी हैं जिनका कोई जनाधार नहीं है, लेकिन दलाली में वे पूरी निपुणता प्राप्त हैं। सीएम योगी भी इसी के चलते भू-माफियाओं के मामले में लाचार होकर रहकर गये हैं।
इसी कड़ी में लोगों को याद दिलाना है सपा के संरक्षक मुलायम सिंह यादव के हिस्से में पुश्तैनी जायदाद के तौर पर सपा की 13 बीघा साल्टी जमीन मात्र थी, जिसमें कुछ पैदा नहीं होता था। उधर वे केवल 25 साल की उम्र में ही विधायक बन गये थे। इसलिए उनका कोई धंधा भी नहीं रहा। आमदनी के नाम पर केवल इंटर कालेज की पीटी शिक्षक की तनख्वाह भर थी। लेकिन उनकी हैसियत देश के शीर्षतम उद्योगपतियों से कम नहीं है और यह चमत्कार उन्होंने राजनीति के बूते पर किया है। राजनीति में भ्रष्टाचार के सफाये के लिए लड़ने की डींग हांकने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुलायम सिंह के अतीत का ज्ञान न हो, यह तो हो नहीं सकता, लेकिन न केवल उन्होंने मुलायम सिंह को पहले दिन से ही अभयदान दे रखा है बल्कि वे उनसे कान में गुरुमंत्र लेते हैं। राजनाथ सिंह की तो बात छोड़िए, शायद संघ प्रमुख मोहन भागवत तक से वे इतनी घनिष्टता से संवाद नहीं करते होंगे। बात अकेले मुलायम सिंह की नहीं है। लालू को छोड़कर किसी विरोधी नेता तक की दिन की रोशनी की तरह साफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में वे अपने 40 महीने के कार्यकाल में कोई ठोस कार्रवाई करते नहीं दिखे हैं।
राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार के पाखंड की सच्चाई इस वर्ष के शुरुआत में ही एक प्रसंग से सामने आ गयी थी जब नये-नये लांच हुए एक टीवी न्यूज चैनल ने रहस्योद्घाटन किया कि कई लोग कई हजार करोड़ की कृषि आमदनी को अपने इनकम टैक्स रिटर्न में दर्शाकर बल्क में काले धन को सफेद बना रहे हैं। जिनमें 90 प्रतिशत राजनीतिज्ञ हैं। टीवी चैनल ने इसे लेकर कई दिन यह सवाल पूछा कि वे कौन से किसान हैं जो दिन भर राजनीति में मसरूफ रहकर भी ऐसा करिश्मा कर लेते हैं कि जहां आम किसान खेती में लगातार हो रहे घाटे की वजह से सारे देश में आत्महत्या करता नजर आता है वहीं इनको हजारों करोड़ की आमदनी हो जाती है। सरकार की बोलती इन सवालों पर बंद रही। बाद में टीवी चैनल मैनेज हो गया। आखिर सरकार ने कृषि आमदनी के नाम पर समानांतर अर्थव्यवस्था के इस महाघोटाले की जांच क्यों नहीं कराई।
यह संयोग नहीं है, इसके बाद ही सरकार ने नोटबंदी के कदम की घोषणा की, जिसे लेकर पहले वह कई कारणों और उद्देश्यों के नाम पर जनमानस को भरमाती रही। लेकिन अब अंतिम निचोड़ यह निकलकर सामने आया है कि इस कदम की बदौलत देश का लगभग सारा काला धन बिना कोई टैक्स चुकाए सफेद करा लिया गया है। हालांकि यह सवाल विचारणीय है कि नोटबंदी बदलने में हजारों करोड़ की जो कमीशनबाजी हुई वह किस-किसकी जेब में गया।
यहां यह भी याद दिलाना होगा कि वृंदावन में संघ की अखिल भारतीय समन्वय समिति की बैठक में भाजपा के सांसदों और विधायकों द्वारा निर्लज्ज होकर माल काटने का मुद्दा उठा था और सरकार के प्रतिनिधि व पार्टी के कर्ता-धर्ता इसे नकार नहीं पाये थे। उन्हें संघ को आश्वासन देना पड़ा था कि पार्टी के माननीयों की लगाम कसी जाएगी लेकिन चूंकि सरकार में राजनीतिक भ्रष्टाचार को खत्म करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है इसलिए संघ कार्यक्रम समाप्त होते ही बीत गई सो बात गई की तर्ज पर इसको अनदेखा कर दिया गया।
अफसोस यह है कि भाजपा सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहाली के लिए आशा की अंतिम किरण की तरह थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अटार्नी जनरल के स्टैंड से जाहिर हो चुका है कि यह आशा पूरी तरह छलावा है। अब कोर्ट क्या फैसला देती है इसका इंतजार लोगों को है। आखिर जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों में नामांकन पत्र के साथ उम्मीदवार के लिए अपनी आर्थिक व अपराधिक स्थिति के बारे में हलफनामा संलग्न करने की अनिवार्यता का फैसला लिया था उस समय भी राजनीतिक बिरादरी बहुत तमतमाई थी। भद्रलोक के चहेते चेहरों में से एक चंद्रशेखर सबसे ज्यादा आक्रामक हो गये थे और वे सुप्रीम कोर्ट पर कानून बनाने की हिमाकत करने का आरोप लगाते हुए उससे स्पष्टीकरण की मांग सदन में कर बैठे थे, लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने बहुत विनम्रता से स्पष्ट कर दिया था कि उसका यह कदम अनाधिकार चेष्टा नहीं है। इस संबंध में उसका फैसला सूचना के अधिकार की संवैधानिक व्यवस्था का ही एक्सटेंशन है और तब राजनीतिक बिरादरी चुप हो गयी थी।
सुप्रीम कोर्ट से फिर एक बार अनूठी पहल की उम्मीद जनमानस संजोये हुए है। दरअसल राजनीतिक भ्रष्टाचार पर जब तक लगाम नहीं लगती तब तक प्रशासन में भी कोई सुधार नहीं आ सकता। प्रशासन में भ्रष्टाचार के रहते हुए सुशासन का कोई भी दावा धोखा होगा। जिससे लोकतंत्र भी छद्म साबित हो रहा है क्योंकि प्रशासनिक भ्रष्टाचार लोगों को उनके अधिकार दिलाने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को राजनीतिक भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार के लिए अनिवार्य रूप से आगे आना चाहिए।







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