नगर निकाय चुनाव में क्या लोग सोचेंगे कि कैसा हो उम्मीदवार

स्थानीय निकाय चुनाव का बिगुल बजने ही वाला है। राज्य सरकार वैसे यह चुनाव टालने के मूड में थी, लेकिन हाईकोर्ट में दायर याचिका के चलते वह शपथपत्र देकर नवंबर तक सभी नगर निकाय चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में सौंपने के लिए बंध चुकी है। इस देश के हर कोने में हर समय कोई न कोई चुनाव होता रहता है। यह सरकार इसे भी एक समस्या बनाकर अपनी बाजीगरी की एक और परीक्षा देना चाहती है विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने के शिगूफे की आड़ में।

इन दिनों दिल्ली में बहुत चर्चा है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के 2018 में होने वाले चुनाव के साथ ही लोकसभा चुनाव भी एक साल पहले ही निपटा दिए जाएंगे क्योंकि केंद्र की सरकार के लिए राजनीतिक मौसम खराब होता जा रहा है। नोटबंदी के कदम की जिस तरह भद्द पिटी है उससे अभी तक सम्मोहित से चले आ रहे जनमानस में उसके राजनीतिक विवेक के प्रति अविश्वास पैदा हो गया है। जो दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा है इसलिए सरकार का एक वर्ग मानता है कि अगर लोकसभा के आगामी चुनाव के लिए निर्धारित अवधि की प्रतीक्षा की गई तो सरकार को बहुत ज्यादा जोखिम हो जाएगा।

हो सकता है कि समय बढ़ने के साथ लोग सरकार को गद्दी से बेदखल करने के लिए मुट्ठियां भींच लें। अभी तो गनीमत है, लोग केवल नाराज हैं लेकिन आसार यह हैं कि वोट कमल को ही जाएगा क्योंकि इस देश को जन्मजात उपनिवेशवादी चश्मे से देखने वाला वर्ग सारी समस्याओं का हल केवल दो लक्ष्य पूरे होने में देखता है। एक तो देश से आरक्षण खत्म हो जाए और दूसरा मुसलमानों को किसी जहाज में भरकर या तो हिंद महासागर में डुबो दिया जाए या पाकिस्तान भेज दिया जाए। लोगों को उम्मीद है कि चाहे मोदी सरकार उनकी जिंदगी को नरक बना दे लेकिन यह दोनों काम केवल वही कर सकती है। वह लोककथा याद आ जाती है जिसमें किसी ने अपने लिए एक चीज मिलने पर दोगुनी चीज पड़ोसी को मिलने के वरदान से क्षुब्ध होकर भगवान से मांग लिया था कि मेरी एक आंख फूट जाए। उसे काना होना मंजूर था बशर्ते पड़ोसी की दोनों आंखें फूट जाएं। विडम्बना यह है कि उपनिवेशवादी मानसिकता वाले वर्ग अल्पसंख्यक हैं, लेकिन पूरी जनता के सोचने-समझने का स्विच पुश्तैनी तौर पर उनके हाथ में है इसलिए ऐसी भावना के फलीभूत होने से जिनको नुकसान होने वाला है, वे भी तंद्रा में उन्हीं की तरह की आतुर कामना में जुटे हुए हैं।

बहरहाल बात स्थानीय निकाय के चुनाव की है। हाल के विधानसभा चुनाव में लोगों ने यह कहते हुए वोट दिया था कि उम्मीदवार को मत देखो पार्टी देखो। लेकिन पार्टी ने लोगों के साथ कैसा छल किया इसका अहसास लोग अब कर रहे हैं। उन्होंने लोगों के विश्वास को ध्यान में रखते हुए सक्षम और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने की बजाय चरित्र भ्रष्ट उम्मीदवार वफादारी के नाम पर बनाए, जो लोगों की कोई अपेक्षा पूरी नहीं कर पा रहे। लेकिन ऊपरी आमदनी बटोरने में जिन्होंने सभी के कान काट रखे हैं। इसलिए नगर निकाय के चुनावों में केवल पार्टी के भरोसे रहा जाए या लोग बेहतर और काम करने की क्षमता रखने वाले उम्मीदवार को चुनाव मैदान में लाने की पहल भी करें, यह सवाल लोगों को बहुत शिद्दत के साथ मथ रहा है।

वैसे तो नगर निकाय और पंचायत के चुनाव दलीय आधार पर होना ही नहीं चाहिए। एक सुझाव तो यह तक सामने आ रहा है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी दलीय आधार पर कराने की व्यवस्था समाप्त की जाए क्योंकि दलीय लोकतंत्र से सारी व्यवस्था चंडाल-चौकड़ी किस्म के छोटे सत्तावादी गिरोहों की बंधक होकर रह गई है। लेकिन दूर तक सोचने पर लगता है कि दलीय व्यवस्था को खराब तजुर्बे की वजह से नकारा नहीं जा सकता लेकिन लोकतंत्र का कुछ स्वरूप दल आधारित हो और कुछ दल निरपेक्ष तो दोनों मॉडल के तजुर्बे लोगों को मिलते रहेंगे और दोनों मॉडल एक-दूसरे की तुलना होने से अपने में सुधार करने के लिए मजबूर होते रहेंगे। वरना अभी तो दलीय सिस्टम निरंकुश हो चुका है।

बसपा ने इसकी इंतहा की थी। जिन कार्यकर्ताओं ने कांशीराम और मायावती को नेता बनाने के लिए अपना जीवन होम किया उन्हें प्रदेश में मजबूत पकड़ बनते ही बसपा द्वारा दरकिनार किया जाने लगा। बसपा ने बोली लगवाकर टिकट देने की परम्परा के तहत ऐसे लोगों को विधायी संस्थाओं में प्रवेश कराया जिनकी कोई राजनीतिक सोच नहीं थी और न ही जिन्हें लोगों के सरोकारों से कोई लेनादेना था। बसपा जिस मिशन के लिए बनी थी वह भी भाड़ में चला जाए, पैसे के लिए पार्टी के नेतृत्व ने इसकी भी परवाह नहीं की और मिशनरियों की इस पार्टी में नेता की इस निरंकुशता पर कोई लगाम लगाने वाला नहीं निकला। अन्य पार्टियों की स्थिति भी कमोवेश यही होती जा रही है। उम्मीदवार बनाने से लेकर मुख्यमंत्री और मंत्री बनाने तक में पार्टी के कैडर की इच्छा क्या है, यह जानने की जरूरत नहीं समझी जाती।

भाजपा में इस बार के विधानसभा चुनाव में तो हद ही हो गई इसलिए पार्टी के विधायकों के मगरूर रवैये की शिकायत वृंदावन (मथुरा) में हुए संघ के अखिल भारतीय समन्वय सम्मेलन में तेजी से गूंजी। जो माननीय कल तक चप्पल चटकाते थे और किसी की नमस्कार पाने को तरसते थे, आज उन्हें इतना बड़ा सम्मान मिल गया। आज उनसे यह भी नहीं हुआ कि वे खुद नवरात्र और दशहरे की शुभकामनाओं के लिए समाज के भद्रजनों से संपर्क करने की जहमत उठाएं। हर विधायक अपने क्षेत्र के किसी भी पार्टी के अच्छे लोग हों 3-4 हजार आदमियों को वाट्सएप से ही शुभकामना के मैसेज भेज देता तो लगता कि जनतंत्र कहीं जिंदा बचा है। लेकिन दशहरे पर लोग दरबार में जाकर कॉर्निश बजाते हुए राजा को सलाम करते हैं न कि राजा उन्हें सलाम करने जाता है। इसी तर्ज पर माननीयों ने भी यही अपेक्षा रखी कि लोग उनके दरवाजे पर शुभकामना देने के लिए पैकेट के साथ आएं। वे अगर किसी के दरवाजे पर गये तो उसके जो बालू, सट्टा या अवैध शराब में उनको पैसा कमवा सकें।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि अगर लोगों ने नगर निकाय चुनाव में भी उम्मीदवारी के मामले में पार्टी पर अंधविश्वास किया तो मौजूदा समय में शासन की सबसे अच्छी व्यवस्था माना जाने वाला लोकतंत्र ऐसे कगार पर पहुंच जाएगा कि लोग सैनिक शासन की मांग जैसी नादानियां करने लगेंगे।

इन पंक्तियों के लेखक को ध्यान है कि जब तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शासन था कांग्रेस पार्टी अपने नेताओं के अलावा एलआईयू से भी रिपोर्ट मंगाती थी कि अमुक क्षेत्र में कौन लोग हैं जिनकी छवि इतनी मजबूत है कि अगर पार्टी उन्हें अपनाकर उम्मीदवार बना दे तो चुनाव में उसकी पौ-बारह हो जाएगी। उस समय के मेरे एक मित्र एलआईयू के जिला प्रभारी अपने अनुकूल रिपोर्ट मंगवाने के लिए हर रात खुश करने की व्यवस्था रखते थे। हालांकि इसके बावजूद एलआईयू के प्रभारी ने मौका आने पर उनके बहुत माफिक रिपोर्ट नहीं भेजी थी। राजनीतिक मामलों में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा अपनी जरूरत के लिए एलआईयू का इस्तेमाल दुरुपयोग की कोटि  में आता है लेकिन जब तक एलआईयू की वकत थी तब तक कानून व्यवस्था भी अच्छी रहती थी और सरकार भी अच्छे तरीके से चलती थी। इसमें कोई शक नहीं है। अगर आज के शासन ने इस सिस्टम से मुंह मोड़ लिया है तो उसके खराब नतीजे सामने आ रहे हैं। फिर भी शासन को स्थापित सिद्धांतों के मुताबिक चलाने की भावना उनमें नहीं आ रही तो वजह यह है कि लोग मुख्यमंत्री और मंत्री बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के कारण बने हैं जनस्वीकृति के कारण नहीं इसलिए उन्हें शासन चलाने के टिप्स मालूम न होना भी स्वाभाविक है।

1989 के विधानसभा चुनाव के बारे में इन पंक्तियों के लेखक को याद है कि उसके द्वारा इस जिले में आज तक सबसे प्रमाणिकता के साथ प्रकाशित माने गये दैनिक लोकसारथी अखबार का संपादन किया जा रहा था, जिसमें उसने नामांकन के पहले लगभग एक महीने तक उक्त अखबार में चुनाव में उम्मीदवार कैसे हों, इस पर परिचर्चा चलवायी थी। लगभग 300 लोगों ने इस परिचर्चा के लिए अपने विचार भेजे, जो उस जमाने के मुताबिक बहुत व्यापक रिस्पॉंस था। बाद में भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष बने बृजभूषण सिंह मुन्नू ने भी इस परिचर्चा के लिए अपना लेख भेजा था और भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता होने के बावजूद उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को ही उम्मीदवार के रूप में प्रस्तावित कर दिया था। इन पंक्तियों का लेखक ही नहीं उस समय कई ऐसे अधिवक्ताओं, डिग्री कॉलेज के शिक्षकों के नाम लोगों ने आगामी विधायक के रूप में देखने की इच्छा जताते हुए प्रस्तावित किए थे। जो कि किसी पार्टी से नहीं जुड़े थे और न ही राजनीति की मुख्य धारा में थे। पार्टी तंत्र को समाज के श्रेष्ठीजनों को राजनीतिक जिम्मेदारियों के लिए आगे लाने का प्रयास करना चाहिए और पहले यह होता था। अगर बसपा सिर्फ गांठ के पूरे लोगों की तलाश में पार्टी के बाहर के लोगों को थोपने के लिए बदनाम है तो भाजपा पार्टी के सड़े हुए तालाब तक अपनी खोज सीमित रखने के लिए।

यह सिस्टम अपने आप नहीं बदलेगा, इसको बदलने के लिए लोगों को खड़ा होना पड़ेगा। उन्हें पुराने दौर की तरह ही चुनाव के लिए सजग होकर उऩ चेहरों पर दृष्टिपात करना चाहिए जो किसी कारण से राजनीतिक रुझान से अनभिज्ञ हैं, लेकिन अगर जिन्हें मौका मिले तो वे बेहतर व्यवस्था के विकल्प के रूप में सामने आ सकते हैं। पहले भी ऐसा होता रहा है और अब भी ऐसा होना चाहिए कि अगर ऐसे लोग किसी नगर क्षेत्र में हैं तो अपनी-अपनी पार्टी के शुभचिंतक कार्यकर्ता उनके दरवाजे पर जाएं और उन्हें चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करें न कि उनके आवेदन की प्रतीक्षा करते रहें। कमोवेश इस पर वर्तमान में सर्वसम्मति है कि राजनीति का मौजूदा ढांचा विफल हो चुका है इसलिए ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है और परिवर्तन का एक तरीका यह भी हो सकता है।

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