अखिलेश का गुरु कौन मुलायम या कोई और !

वंशवाद के नाम पर भाजपा का विरोध केवल नेहरू-गांधी खानदान तक सिमट जाता है और राहुल गांधी के अमेरिका में जाकर इस मुद्दे पर दिए गए गैर बनावटी भाषण के बाद तो भाजपा के इस विरोध की ग में और भी घी पड़ गया। लेकिन समाजवादी पार्टी में वंशवाद ही वह जरिया बना जिससे सोशलिस्ट आंदोलन का बेड़ा गर्क करने वाली मुलायम सिंह की नीतियों की चपेट खत्म करके देश के सबसे बड़े सूबे की यह प्रमुख पार्टी फिर सुचारु लोकतंत्र के लिए काम करने की ओर अग्रसर हुई है। अच्छी बात यह है कि पुत्रमोह में ही सही लेकिन मुलायम सिंह ने भी अपने को पीछे करके अखिलेश की राजनीति को आशीर्वाद देने की घोषणा कर दी है जिससे उनके भाई शिवपाल यादव के भी होश ठिकाने आ गए हैं। सैफई कुनबे की पारिवारिक एकता की बहाली में इसके चलते फिलहाल सभी गतिरोध समाप्त होने के कयास लगाए जाने लगे हैं।

उलटा नाम जपत जग जाना वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना यानी उलटवासियां केवल भारत में ही हो सकती हैं। तभी तो मुलायम सिंह लोहियावाद के सबसे बड़े चैंपियन कहे जा रहे हैं जबकि लोहिया के बुनियादी विचारों के एक-एक बिंदु की हत्या करने में उन्होंने अपनी करनी में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोहिया के समाजवाद की सबसे बड़ी पहचान थी वंशवाद की राजनीति के खिलाफ कठोर बगावत जबकि एक जमाने में पं. जवाहर लाल नेहरू ही लोहिया के हीरो हुआ करते थे और बाद में वंशवादी विरोधी उसूलों की वजह से लोहिया ही नेहरू के सबसे कट्टर आलोचक बन गये। पर मुलायम सिंह ने सबसे बड़े लोहियावादी के बतौर भी नाम कमाया और वंशवाद की राजनीति के सारे कीर्तिमान भी तोड़ डाले। मजे की बात यह है कि सोशलिस्ट अपनी भरपूर क्रांतिकारी ऊर्जा के बावजूद अन्य तमाम फासिस्ट कदमों के साथ-साथ वंशवाद के मामले में भी मुलायम सिंह की मनमानी पर कभी एतराज नहीं जता सके जबकि इसे पचाना उनके लिए अपनी धार्मिक आस्था से खिलवाड़ करने से कम गुनाह नहीं था।

और यह भी कि मुलायम सिंह उसी जेपी आंदोलन की भी उपज हैं जो कांग्रेस के सर्वसत्तावाद से कराह रहे लोकतंत्र की मुक्ति के लिए राजनीतिक सुधारों की प्रस्तावना के रूप में सामने आया था। लेकिन जेपी के आंदोलन के अपने समय के सारे युवा मसीहा काफिर साबित हुए तो फिर मुलायम सिंह कैसे अपवाद रह जाते। कांग्रेस में तो फिर भी लोक-लाज की हया-शर्म रहती थी लेकिन जेपी की पालकी ढोने वालों ने तो राजनीतिक कुरीतियों का खुला खेल फर्रुखाबादी खेला फिर भी उन्हें अपार स्वीकार्यता मिली। क्या कुदरत को विपरिहास का यह खेल पृथ्वी गोल है, इस सिद्धांत को साबित करने के लिए खेलना पड़ा।

जेपी से वीपी तक राजनीतिक सुधारों के लिए जनमानस में रचनात्मक तड़प का एक चक्र देखा जा सकता है। वीपी के जनता दल में जब मुलायम सिंह भी शामिल थे तब पार्टी के राजनीतिक एजेंडे में बात होती थी एक व्यक्ति एक पद की। सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के लिए शुचिता के नाते अपनी आय और परिसंपत्तियों की वार्षिक उद्घोषणा को अनिवार्य करने की। पुत्र-पुत्रियों और भाई-भतीजावाद से दूरी रखने की। राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की और चुनाव लड़ने के लिए सरकारी कोष बनाने की व पार्टी के अंदर आंतरिक लोकतंत्र की। जनता दल ने जब पहली बार चुनाव लड़ा तो सभी इस एजेंडे की कसमें बढ़-चढ़कर खाते रहे क्योंकि इसमें भोली-भाली जनता को अपने ऊपर न्योछावर बनाने का पूरा मसाला था। लेकिन चुनाव बाद जब सत्ता मिल गई तो इस पर अमल की बात कहने की वजह से वीपी सिंह सबसे बड़े खलनायक बन गये और इसके बरअख्स मधु लिमये जैसे लोगों ने मुलायम सिंह को महानायक के रूप में तराशने के लिए अपनी सारी ऊर्जा और प्रतिभा होम कर दी। जब बाढ़ ही फसल को खाने लगे तो फसल की रखवाली कैसे हो सकती है।

ऐसा घटाटोप था जब अखिलेश यादव ने पारिवारिक संपत्ति की तरह उत्तराधिकार में अपने पिता से यूपी के मुख्यमंत्री का पद हासिल कर लिया था। तब शोभा और शगल के लिए भी राजनीतिक सुधारों की चर्चा करना बंद हो गया था। अखिलेश ने साढ़े तीन साल झेले अपनी स्वतंत्र पहचान को लोगों के बीच स्थापित करने के लिए और इसके बाद जब फॉर्म पर आये तो उनके सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी जिससे वे वैकल्पिक राजनीति की दिशा में कदम बढ़ाते। लेकिन उनका स्वतःस्फूर्त रुझान राजनीतिक सुधारों के लिए था। कहते हैं कि कीचड़ में ही कमल खिलता है। अखिलेश अपने पिता को अपना गुरु भी कहते हैं पर सही बात यह है कि ऐसा वे सिर्फ राजनीतिक सुविधा के लिए करते हैं। अगर यह सच होता तो वे पार्टी में उन विचारों को लागू नहीं करते जो मुलायम सिंह द्वारा पैदा की गई राजनीतिक सड़ांध को मिटाने के प्रयोजन से प्रेरित समझे जा सकते हैं।

उन्होंने समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद अपने परिवार या यादव बिरादरी में से किसी नेता को बनाने की नहीं सोची। इसकी बजाय वे नरेश उत्तम को आगे लाये। समाजवादी पार्टी के संदर्भ में यह उनकी पार्टी के लिए अयाचित राजनीतिक सुधारों की पहली सौगात थी जब अपने पिता की छत्रछाया में उन्होंने डीपी यादव के सपा में प्रवेश का विरोध किया था। तो इसे इमेज बिल्डिंग का प्रयास भर माना गया था जिसकी वजह से बाहुबलियों के मुरीद माने जाने वाले मुलायम सिंह ने भी इस कदर उनका साथ दे दिया था कि मोहन सिंह तक पर गाज गिरा दी थी। लेकिन अखिलेश ने जब यह साबित करना शुरू किया कि उन्हें राजनीति के अपराधीकरण से सचमुच परहेज है तो मुलायम सिंह गुस्से से भर उठे पर अखिलेश ने अपने पिता के सामने भी झुकने से इंकार कर दिया और अखिलेश मुख्तार, अतीक और राजा भइया जैसे लोगों को किनारे करके ही माने।

शिवपाल और उनके बीच मुख्य द्वंद्व यही था। शिवपाल को मुलायम सिंह इसलिए पसंद करते थे कि उन्हें वीरभोग्या वसुंधरा के सिद्धांत पर विश्वास है और शिवपाल इस कसौटी पर 24 कैरट के खरे थे। लेकिन जब भाई और पुत्र के बीच में से एक को चुनने की बारी आयी तो मुलायम सिंह को पहले दिन से ही पुत्र को चुनना था। भले ही लोग गफलत में रहे हों। चूंकि मुलायम सिंह शुरू में भ्रातृ प्रेम का राग अलापते रहे ताकि अखिलेश का दम-खम सामने आ सके। उन्हें फिक्र थी कि उनका बेटा अभी इतना मजबूत हो पाया है कि नहीं कि अपने घाघ चाचा को दो-दो हाथ की नौबत आऩे पर भी निपटा सके और जब अखिलेश ने यह प्रूव कर दिया तो मुलायम सिंह लोहिया ट्रस्ट में अपनी निर्णायक पत्रकार वार्ता में अखिलेश की पक्षधरता के लिए पूरी तरह खुल गये।  पत्रकार वार्ता बुलाई गई थी समाजवादी पार्टी से नाता तोड़कर नये मोर्चे के ऐलान के लिए पर मुलायम सिंह ने इस बाबत उनके सामने रखे गये कागज को बाद में देखेंगे कहकर एक किनारे कर दिया और कह दिया कि वे न अखिलेश के साथ हैं न शिवपाल के वे तो समाजवादी पार्टी के साथ हैं। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि अखिलेश उनका बेटा है तो उनका आशीर्वाद तो अखिलेश के साथ रहेगा ही। इसके बाद शिवपाल का खेमा छलावे की पीड़ा से बिफर उठा। शिवपाल के नजदीकी शारदा प्रसाद शुक्ला तो खुलकर अपने नेता के खिलाफ मैदान में आ गये।

लेकिन ठीक ही रहा कि शिवपाल ने जल्द ही अपनी हैसियत समझ ली और सरेंडर की मुद्रा में आ गये। आगरा अधिवेशन जिसमें मुलायम और शिवपाल पहुंचे तो नहीं लेकिन दोनों ने अपना आशीर्वाद अखिलेश को दे दिया और अखिलेश भी उसके बाद शिवपाल को अपने साथ एडजस्ट करने के लिए सहमत हो गये। सैफई कुनबे में इस समय अंत भला सो सब भला का माहौल है पर वंशवाद और परिवारवाद की संकीर्णता से लोकतांत्रिक राजनीति को उबारेंगे अखिलेश के अंदर यह संकल्प कहीं न कहीं घर किये हुए है। इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी डिंपल को राजनीतिक मैदान से हटाने का ऐलान पहले ही कर दिया है और रामगोपाल व शिवपाल के पदाधिकारी होते हुए भी समाजवादी पार्टी की संरचना आने वाले समय में व्यापक फलक को दर्शायेगी, यह अनुमान लगाया जा रहा है।

राहुल के वंशवाद को भारतीय राजनीति की सच्चाई बता देने से भाजपा ने ऐसा स्यापा किया जैसे आसमान फट पड़ा हो जबकि उसका यह व्यवहार पूरी तरह पाखंडपूर्ण ही कहा जाएगा। लोकतांत्रिक राजनीति को अपने विस्तार में वंशवाद से मुक्त होना चाहिए, यह एक आदर्श है, लेकिन हर समाज की अपनी विशिष्ट परंपराएं और मान्यताएं होती हैं इसलिए भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति अभी वंशवाद से मोह नहीं छुड़ा पा रही है, यह एक वास्तविकता है। कांशीराम ने जो कि बसपा के संस्थापक थे, वंशवाद और परिवारवाद की परछाईं भी अपनी पार्टी पर नहीं पड़ने दी थी और इसीलिए उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के बतौर मायावती को पसंद किया था। जिनसे उनको पूरी उम्मीद थी कि वे भी उनके उसूल को आगे बढ़ाएंगी पर आज मायावती ने क्या किया।

बसपा के आगामी प्रमुख सितारों के रूप में अपने भाई आनंद और उनके बेटे को पेश कर दिया है और भाजपा कौन सी इस मामले में दूध की धुली है। पंकज सिंह, दुष्यंत सिंह, आशुतोष टंडन और यहां तक कि सिद्धार्थनाथ सिंह भी भाजपा की राजनीति में प्रमुखता पर क्यों हैं, क्योंकि भाजपा भी वंशवाद और परिवारवाद से परे नहीं है। भाजपा के चिरकुंवारे नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे-भांजी भी उन्हीं की बदौलत राजनीति में प्रमुखता से नवाजे गये। वंशवाद और परिवारवाद से राजनीति को आगे ले जाना होगा, अगर बुलंदियां छूनी हैं लेकिन वंशवाद जब तक चल रहा है एक सच्चाई है। पर कोई बहुत बड़ा पाप नहीं है और अगर पाप है तो भाजपा कौन सी पतित पावन है जो इस पाप के छींटे उसके दामन पर दिखाई दें फिर भी लोग आंख मूंदकर उसे वंशवाद से परे होने का सर्टिफिकेट दे दें, यह बात भाजपा नेतृत्व को समझनी होगी।

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