
तथागत बुद्ध ने मूर्ति पूजा सहित धर्म में सभी आडंबरों का निषेध किया था। लेकिन विडंबना देखिये कि दुनियां में सबसे ज्यादा मूर्तियां बुद्ध की ही उनके अनुयायियों ने ही बनवाईं। यह विरोधाभाष न तो अकेले बौद्ध सम्प्रदाय में है न यह विसंगति केवल धर्म क्षेत्र की है। कुदरत की यह अजब फितरत है कि जिन संयमों के लिए किसी सिंद्धांत का प्रतिपादन होता है आगे चलकर उन सिद्धांतों को वे ही पाबंदियां आच्छादित कर लेती हैं।

बात हो रही है जोशी मठ की ज्योतिष वद्रिका पीठ के शंकराचार्य के चयन को लेकन मची उठा-पटक की। एक समय था जब सिर्फ ब्राहमण होना इतना कठिन व्रत होता था कि सियाचिन की सैनिक डयूटी भी शायद उसके सामने मात रहती होगी। इसलिए हर कोई ब्राहमण बनने के लिए रजामंदी देने का साहस नही कर पाता था। उपनिषद की कथाएं बताती हैं कि कई ब्रह्म संतानों ने त्याग और अपरिग्रह की चरम स्थिति की शर्तों से घबराकर अपने पिता का वर्ण त्यागने में खैरियत समझी और दूसरे वर्णो में पलायन कर गये। हालांकि बाद में ब्राहमण की पदवी जाति और वंशों के लिए रूढ़ हो गई।
शंकराचार्य अपने आप में एक पदवी से ज्यादा कठिन प्रतिज्ञा और दायित्व का सूचक हैं। धर्म के सुप्रीम कोर्ट के रूप में इस पदवी की कल्पना की गई थी। इसलिए यह पदवी धारण करने वाले को त्याग, संयम और तपस्या की इस्पात भटटी में हर क्षण तपाये रखने के विधान बनाये गये हैं। शंकराचार्य आदर्श रूप में निरासक्त या वीतराग स्थिति का शिखर होना चाहिए। न उन्हें किसी से आसक्ति हो न भय और न प्रीति उनके नियम बंधन स्थिल कर सके। धर्म के लिए निर्भय और अडिग सत्ता का नाम है शंकराचार्य का पद।
ल्ेकिन अगर शंकराचार्यों का यह स्वरूप बरकरार रहता तो क्या ज्योतिष पीठ के पीठाधीश्वर की नियुक्ति में ऐसी उठा-पटक मच सकती थी जैसी आज दिखाई दे रही है। 93 वर्ष की आयु में स्वरूपानंद सरस्वती को शंकराचार्य बनने की लालसा इतनी असहज और विचित्र है कि गृहस्थ भी उनकी इस तृष्णा से अपने को शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। सवाल यह नही है कि स्वामी ब्रहमानंद के 39 शिष्यों में से एक मात्र जीवित शिष्य होने के कारण वे ही ज्योतिष पीठ का शंकराचार्य बनने की अर्हता रखते हैं। लेकिन उनके नाम पर भारत धर्म महामंडल में, जिस संस्था को शंकराचार्य का चयन करना है किसी को आपत्ति है तो उन्हें इस पद को स्वयं ही छोड़ देने की घोषणा क्यों नही कर देनी चाहिए। स्वरूपानंद सरस्वती की एक महान और विद्वान संत के रूप में अपने आप में बड़ी गरिमा है जो किसी मठ के पीठाधीश्वर बनने की मोहताज नही है। बल्कि विवादित स्थितियों में शंकराचार्य बनने से उनकी गरिमा का अवमूल्यन हो रहा है।
इसी वर्ष 23 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में निचली अदालत के वासुदेवानंद सरस्वती को शंकराचार्य न मानने के फैसले का अनुमोदन तो कर दिया था लेकिन द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य का भी पद हस्तगत करने को तकनीकी आधार पर वैध नही माना था। उच्च न्यायालय ने आॅब्जर्ब किया कि नये शंकराचार्य की नियुक्ति तभी संभव है जब यह पद रिक्त हो जाये और जब स्वरूपानंद सरस्वती को ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य के रूप में अभिषिक्त किया गया उस समय तत्कालीन पीठाधीश्वर द्वारा पद त्याग न करने के कारण शंकराचार्य की रिक्ति नही थी। इस आधार पर उन्हें तीन महीने तदर्थ शंकराचार्य के रूप में कार्य करने की अनुमति इस शर्त के साथ दी गई कि इस अवधि में नियमानुसार शंकराचार्य का चयन कर लिया जायेगा। नियमित शंकराचार्य की नियुक्ति के लिए जो निर्वाचक मंडल हाईकोर्ट ने तय किया उसमें भारत धर्म महामंडल, काशी विद्वैत परिषद, श्रंृगेरी, पुरी और द्वारिका पीठ के शंकराचार्यों को भी शामिल किया।
तीन महीने की यह समयावधि अब निकट आने वाली है इसलिए एकदम इस पद पर जोड़-तोड़ की सरगर्मियां तेज हो गईं। भारत धर्म महामंडल के जनरल सेक्रेट्री शंभू उपाध्याय ने 7 दिसम्बर को निर्वाचक मंडल की बैठक तय की। जिसमें किन मानकों के तहत नये शंकराचार्य का चयन किया जाये इस पर विचार होना है। लेकिन इसके पहले ही भारत धर्म महामंडल के डिपार्टमेंटल सेक्रेट्री शंभूनाथ चतुर्वेदी जिन्हें स्वरूपानंद के गुट का माना जाता है ने 24 सितम्बर को ही बैठक बुला ली। जिसमें उनके मुताबिक निर्वाचक मंडल के 39 में से 15 सदस्य मौजूद थे 5 सदस्यों ने लिखित सहमति भेज दी थी। उनके मुताबिक पुरी और श्रृगेरी के शंकराचार्यों के पास भी दूत भेजकर उनकी भी सहमति भी मंगा ली गई थी। इस तरह सभी पंचों की राय से 24 सितम्बर की बैठक में उन्होंने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को ही शंकराचार्य के रूप में स्थाई करने का एलान कर दिया। शंभूनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि अब बैठक केवल इस बात की होनी है कि उनका अभिषेक किस तिथि को और किस प्रकार से किया जाये।
भारत धर्म महामंडल का दूसरा धड़ा शंभूनाथ चतुर्वेदी की यह इकतरफा घोषणा किसी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नही है। शंभू उपाध्याय का कहना है कि शंभूनाथ चतुर्वेदी को बैठक बुलाने का अधिकार ही नही है। महामंडल की बैठक केवल जनरल सेक्रेट्री ही आहूत कर सकता है। उन्होंने तैश में यह भी कह दिया कि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को धन बल की दम पर ज्योतिष पीठ पर कब्जा नही करने दिया जायेगा। शंकराचार्य जैसे धर्म क्षेत्र की शक्तिशाली संस्था में यह सब होना बेहद अशोभन है और इससे इस संस्था की प्रतिष्ठा, गरिमा व शक्ति कमजोर हो रही है।

इस तारतम्य में एक समय वासुदेवानंद सरस्वती को शंकराचार्य के रूप में मान्य किये जाने की विडंबना पर भी चर्चा आवश्यक है। शंकराचार्य की अर्हता के लिए आवश्यक है कि वह संत बचपन से ही ब्रहमचारी सन्यासी हो। इस विधान के बावजूद लोगों ने यह दुस्साहस कैसे कर लिया कि लंबे समय तक सरकारी नौकरी करने वाले वासुदेवानंद को शंकराचार्य के रूप में पदासीन करने का उपक्रम कर डाला। क्षेत्र चाहे धर्म का हो, राजनीति का हो या समाज का यह इस देश की कमजोरी है कि शुरू से यहां किसी संवैधानिक व्यवस्था का पालन नही होता और जिसकी लाठी, उसकी भैंस का कानून चलता है। 1936 में लाहौर में जो जाति तोड़क सम्मेलन बाबा साहब अंबेडकर को सभापतित्व सौंपे जाने की वजह से आयोजित नही होने दिया गया था उसके लिए बाबा साहब ने एक भाषण तैयार किया था जिसे बाद में उन्होंने अपने खर्चे पर प्रकाशित कराकर दो-दो पैसे मूल्य पर वितरित कराया था। इसमें उनकी मुख्य मांग यह थी कि हिंदू धर्म को बचाना है तो इसकी सभी व्यवस्थाओं को वैधानिक स्वरूप प्रदान करना होगा। इसमें पुजारी की योग्यता निर्धारित करने, धार्मिक शंकाओं को तय करने के लिए प्रमाणिक पुस्तकों का निर्धारण आदि-आदि शामिल था। यह सुझाव सहर्ष स्वीकार किये जाने थे लेकिन अराजकता की मानसिकता का अभ्यस्त होने की वजह से हिंदू समाज इसमें कोई रुचि नही दिखा सका जबकि इसी अराजकतावाद की वजह से इस समाज ने गुलामी का लंबा दौर झेला है और इसके बावजूद भी कोई सबक नही लिया है।

धर्म क्षेत्र में अराजकता का और नया प्रचंड युग विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थाओं के अवतार के बाद शरू हुआ। वासुदेवानंद सरस्वती सहित फर्जी शंकराचार्यों को मान्यता दिलाने के लिए यह संगठन मुख्य रूप से जिम्मेदार था। इस संगठन ने साक्षी महाराज जैसे लोगों को महामंडलेश्वर की उपाधि प्रदान करा दी। जिन पर बलात्कार तक का आरोप लग चुका है। साधुओं के भेष में शैतानों का बोल-बाला इसी अराजकतावाद की वजह से शुरू हुआ। धर्म सत्ता की अवधारणा को बल देकर विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थाओं ने साधुओं और सन्यासियों को वर्चस्व और वैभव के उस दुनियांवी दलदल में धकेल दिया जिससे ऊपर उठकर ही वे महिमामंडित होते थे। शंकराचार्यों को भी सत्ता और वर्चस्व का स्वाद ऐसा भा गया कि जिन लंपटों के खिलाफ उन्हें वहिष्कृत करने का धर्मादेश जारी करना चाहिए था। संख्या बल बढ़ाने के लिए वे उन्हें मान्यता देते रहे। हिंदू धर्म के विधान में पुजारी और पीठाधीश्वर जैसे पदों के लिए वर्ण शुद्धता का विधान है। लेकिन विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन के दौर में यह व्यवस्था तोड़ दी गई और गैर ब्राहमण पीठाधीश्वर बनकर सांसद, विधायक और मंत्री के रूप में राजनैतिक हैसियत बनाने में भी सफल हुए। हिंदू धर्म में साध्वी का कंसेप्ट कैसे आ गया यह बात विश्व हिंदू परिषद के लोग ही बता सकते हैं। लेकिन अब इंतहा हो चुकी है धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में स्थायित्व लाना है तो लोगों में संवैधानिक विवेक जागृत करना होगा। फिलहाल तो बात ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य की है। ईश्वर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को सदबुद्धि दे तांकि वे संतों की प्रतिष्ठा बहाल रखने के लिए खुद ही ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य की दौड़ से अपने को अलग करने की घोषणा कर दें।






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