भाजपा में भी हू-आफ्टर मोदी का सवाल लगा घुमड़ने

पीएनबी घोटाले ने बैंकिंग सिस्टम में बड़े झोल को सामने ला दिया है। वैसे देश में कौन सा सिस्टम है जो दुरुस्त तरीके से काम कर रहा हो। हमारा उद्देश्य मौजूदा सरकार को इस बहाने कोसने का एक और मौका ढूंढने का नहीं है। सिस्टम पहले से ध्वस्त था लेकिन हुंकार भरने की जबर्दस्त अदाकारी के कारण नरेंद्र मोदी को जब लोगों ने देश की बागडोर सौंपी थी तो यह यकीन किया गया था कि उनके पास करिश्मा है जिससे वे रातोंरात बिगड़े सिस्टम को ठीक कर देंगे। पर जो साबित हो रहा है उसके मुताबिक यही कहना पड़ेगा कि मोदी बहुत मासूम हैं। कांग्रेस ने सिस्टम इतना बिगाड़ करके रखा कि बेचारे करें तो क्या करें। इस असहायता और कातरता के नाते उनके सारे खून माफ करने की वकालत की जाती है।

नोटबंदी के समय ही बैंकिंग सिस्टम में भारी भ्रष्टाचार की घुन बखूबी उजागर हो गई थी। ऐसा न होता तो सारा काला धन आसानी से सफेद होकर जहां का तहां कैसे पहुंच जाता। सभी जानते हैं कि नोट बदलने में बैंकिंग तंत्र ने बड़ी गड़बड़ी की। एक-एक बैंक मैनेजर ने इस दौरान करोड़ों रुपये का कमीशन कमाया। इसलिए काला धन के महासागर की किसी बड़ी मछली को सरकार का यह कदम विचलित नहीं कर सका। सरकार ने उस समय भ्रष्ट बैंक अधिकारियों के खिलाफ एक्शन का मंसूबा भी बनाया था लेकिन बैंकों की यूनियन के आगे उसके हौसले पस्त हो गए।

सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी सरकार में सिस्टम को सुधारने की कोई दिलचस्पी नहीं है। जैसे बाजार में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कोई शातिर कंपनी लगातार मार्केटिंग इवेंट करती रहती है ताकि ग्राहक उसके वशीभूत रह सकें। वैसी ही कुछ कार्यपद्धति इस सरकार ने अपना रखी है। यह सरकार किसी दूरगामी इरादे से नीतियां लागू करने के बजाय हर कदम इवेंट की तर्ज पर उठाती है। फिर नोटबंदी हो या चाहे जीएसटी को लागू करने का उपक्रम, बिना पूरी तैयारी के जीएसटी का इवेंट करके लोगों को चकाचौंध करने की मंशा का ही परिणाम है कि एक अच्छी और वक्त की जरूरत के मुताबिक व्यवस्था देश के लिए समस्या का कारण बन गई।

सबसे बड़ी विसंगति इस निजाम के साथ यह है कि इसका सारा दारोमदार किसी की व्यक्तिगत सत्ता को मजबूत करने के लिए समर्पित है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां अवतारवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हर जगह कितनी भी शक्तिशाली पार्टी व्यक्ति के आगे बौनी हो जाती है। जैसे इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस कितनी शक्तिशाली पार्टी होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन उसकी स्थिति व्यक्ति के आगे कुछ ही दिनों में कितनी दयनीय हो गई। जब कांग्रेस का अध्यक्ष कहने लगा कि इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा। कहने का मतलब है कि न केवल व्यक्ति ही पार्टी है बल्कि यह देश भी उस व्यक्ति की महिमा में सिमटा हुआ है। सर्वसत्तावाद के बावजूद इंदिरा गांधी के पास एक विजन था, जिसके चलते देश को आगे ले जाने की ललक के तहत वे प्रभावशाली ताकतों के साथ टक्कर लेती थीं। फिर चाहे यह चीज बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मामले में देखी जाए या राजाओं का प्रिविपर्स खत्म करने के मामले में।

पर आज व्यक्तिवादी सत्ता के पास परिवर्तन का विजन नहीं है इसलिए उसका दृष्टिकोण यथास्थितिवादी है। जिसके नाते यह सत्ता समाज और देश की प्रगति में बाधक बनी प्रभावशाली शक्तियों को नियंत्रित करने का साहस दिखाने के बजाय उनका समर्थन हासिल करने में जुट गई है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने थे जिन्हें समाजवादी आदर्शों और प्रतिबद्धता के नाते उद्योगों की सीलिंग करनी चाहिए थी, लेकिन वे उन्हीं की इजारीदारी को बढ़ावा देने में लग गए। मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उनसे उम्मीद थी कि षड्यंत्रकारी सामाजिक व्यवस्था के तहत संसाधनों से वंचित किए गए तबकों को सही भूमि सुधार व अन्य कदमों से उनका अधिकार सुनिश्चित कराएंगी। पर उन्होंने सड़ी-गली समाज व्यवस्था में अपने अस्तित्व की मजबूती को तलाशना शुरू कर दिया। यह इस देश की व्यक्तिवादी सत्ता का चरित्र हो गया है जिसमें किसी पार्टी विशेष या किसी नेता विशेष की बात नहीं है।

कांग्रेस ने भी अपने समय बिड़ला जैसे पूंजीपतियों को बढ़ावा दिया। लेकिन टाटा-बिड़ला उन उद्योगपति पूंजीपतियों में से जो कि महात्मा गांधी के इस कथन के अनुरूप हैं कि व्यापार में भी नैतिकता होनी चाहिए। लेकिन अंबानी-अडानी उसूलों वाले पूंजीपति या उद्योगपति नहीं हैं। ये जालसाजी और हेराफेरी के उन उस्तादों में हैं जिन्होंने आर्थिक उदारीकरण को इस क्षेत्र में जंगलराज का पर्याय बना दिया है। नीरव मोदी और मेहुल चौकसी इसी जमात के लोग हैं। जिनके बीच रहने से वर्तमान प्रधानमंत्री अपने को धन्य महसूस करते हैं। इसके तमाम सबूत सामने आ चुके हैं। रचनात्मक उद्योगवाद और पूंजीवाद को बढ़ावा मिलना चाहिए क्योंकि इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा और गरीबी दूर होगी। लेकिन यहां तो ईस्ट इंडिया कंपनी से ज्यादा बड़े स्वदेशी लुटेरों को पनपाया जा रहा है।

यह बात नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सामाजिक और राजनीतिक विज्ञानियों द्वारा कही जा रही है कि इस देश में स्वतंत्रता कुछ ज्यादा ही हो गई है और इसमें कुछ अन्यथा भी नहीं है। ऐसी स्वतंत्रता का अधिकार तब दिया जाता है जब एक अनुशासित समाज को गढ़ने का होमवर्क हो चुका हो। लेकिन अव्यवस्था से घिरे समाज में तैयार करने के पहले ही इतनी चरम स्वतंत्रता का प्रयोग कर दिया जाए तो फिर माहौल जिसकी लाठी उसकी भैंस का हो जाएगा। यह बात आर्थिक उदारीकरण के संदर्भ में भी सच है और अन्य व्यापक संदर्भों में भी।

इसीलिए लोगों की सबसे पहले अपेक्षा यह थी कि मोदी सरकार देश में विलुप्त प्राय  होती जा रही गवर्नेंस की बहाली के लिए दृढ़ता दिखाएगी लेकिन जब इस सरकार को इवेंट करना है शासन नहीं तो यह कैसे हो। शासन का कोई अस्तित्व न होने की वजह से बैंक हों या कोई सेक्टर हो, हर जगह भ्रष्टाचार का नंगनाच मचा है। भ्रष्टाचार की धारणा वाले देशों में भारत को 81 वें स्थान पर रखा गया है। बताया गया है कि पिछले वर्ष से यह इस दर्जे से दो अंक और नीचे खिसक गया है। वैसे तो इस सूची में चीन की हालत भी बहुत अच्छी नहीं दिखती लेकिन चीन और भारत में अंतर इतना है कि वहां भ्रष्टाचार शीर्ष कम्युनिस्ट नौकरशाही में है जो बड़े सौदों के कमीशन के रूप में होता है। पर जो कामकाज है उसमें घूस के कारण लोगों को उत्पीड़ित और परेशान नहीं होना पड़ता। जबकि भारत में तो मृत्यु प्रमाणपत्र और दिव्यांग प्रमाणपत्र तक बिना घूस दिए नहीं बन सकता। हत्या तक की रिपोर्ट लिखाने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। दूसरी ओर गलत काम करने वाले लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा सत्ता के गलियारों में बांटकर बच जाते हैं। यादव सिंह के मामले में क्या हुआ, जिन राजनीतिज्ञों पर उसकी जांच की आंच पहुंच रही थी उन्हें पार्टी के लिए चंदा लेकर बचा दिया गया जिससे केस कमजोर हो गया है। यादव सिंह के केस की अंतिम परिणति क्या होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

पीएनबी घोटाले के बाद नीरव मोदी की हजारों करोड़ की संपत्तियां जब्त की गई हैं। लेकिन यह जब्ती क्या आखिरी तक बनी रहेगी। सरकार अगर नोटबंदी के पीछे यह इरादा रखती थी कि खजाना भरने के लिए कराधान के अलावा काले धन की जब्ती का भी एक अनुपात वह सुनिश्चित करेगी तो उसे सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस की तरह हजारों करोड़ के काले धन के लिए संदिग्ध लोगों को चिन्हित करके उनके यहां जब्ती का अभियान चलाना चाहिए था। तब नीरव मोदी और मेहुल चौकसी पहले ही कार्रवाई के लपेटे में आ गए होते। गो कि उनके खिलाफ काफी समय पहले से शिकायतें तो प्राप्त हो ही रही थीं पर विडंबना है कि सरकार ने इसके लिए कोई अभियान नहीं चलाया। ये मामला तो पीएनबी के एक अधिकारी के रिटायर हो जाने और उसकी कुर्सी पर नये आदमी के आ जाने की वजह से से अचानक पकड़ में आ गया।

बात वही है कि आपको सिस्टम नहीं सुधारना, निजी वर्चस्व को सर्वोपरि बनाने का उन्माद आप पर सवार है और केवल उसी उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं। इसमें पार्टी भी तहस-नहस हो गई है। सारे वरिष्ठों को किनारे लगाकर अमित शाह जैसे जेबी लोगों के जरिए पार्टी को अपने हाथ में केंद्रित किए जाने का ही परिणाम है कि आज भाजपा के सामने संकट की स्थिति है। गुजरात सहित हर राज्य में मोदी को निकलना पड़ता है तभी पार्टी की साख बच पाती है। यह साबित किया जा रहा है कि पार्टी कुछ नहीं है मोदी का जादू है जिससे पार्टी को सत्ता की रोटी खाने का मौका मिल रहा है। इस नाते भाजपा में भी यह प्रश्न पैदा हो गया है कि हू-आफ्टर मोदी, जो कि किसी समय कांग्रेस में हू-आफ्टर नेहरू के रूप में था। पार्टी को नेताविहीन कर दिया गया है। यह काम इसलिए हो रहा है क्योंकि व्यवस्था बदलने की कोई तड़प नहीं है। व्यवस्था बदलने का काम तो लंबा है, जिसके लिए पार्टी को मजबूत होना चाहिए ताकि व्यक्ति न भी रह जाए तो कारवां रुके नहीं। परिवर्तन का झंडा थामने वाला कोई दूसरा तत्काल उसकी जगह लेने के लिए तैयार हो।

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