द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के बहाने

मोदी युग में राजनीतिक परिस्थितियों को अनुकूल करने के लिए हर चुनाव के पहले एक कौतुक होता है। कुछ समय पहले जब हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों सहित पांच बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव थे तो जगह-जगह साधू-संत सम्मेलन करके अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए धर्मादेश जारी कराया जाने लगा था। चुनाव होते ही यह नौटंकी खत्म हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया कि मंदिर के लिए कोई कानून नहीं बनाया जाएगा। अदालत जब फैसला देगी तभी मंदिर बनेगा। जबकि विधानसभा चुनाव के पहले मीडिया में प्रचारित कराया गया था कि 11 दिसंबर को राज्यों के चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री मंदिर मुद्दे पर विशेष कदम उठाएंगे। इसके पहले अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर के मुद्दे पर तूफान बरपा कर दिया गया था।

चुनाव हो गए उसके बाद चर्चा खत्म। कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे, हर शोशा पानी के बुलबुलों की तरह एक खास समय में उठता है और बिना किसी तार्किक परिणति पर पहुंचे अपनी मौत मर जाता है। अब लोकसभा चुनाव के पहले शिगूफों के तरकश से नये-नये तीर निकाले जा रहे हैं। द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म के रूप में लोकसभा चुनाव की पूर्व वेला में एक और सनसनी को सामने लाया गया है। भाजपा के आधिकारिक ट्विटर  हैंडल से इस फिल्म के टेलर को ट्यूट किया गया था। जिसके बाद फिल्म के प्रदर्शन के पीछे राजनीतिक मकसद होने को लेकर कोई संशय नहीं रह गया है।

यह फिल्म संजय बारू की इसी नाम से पहले आ चुकी किताब पर आधारित है जो डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2004 से 2018 तक प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और प्रवक्ता रह चुके हैं। जब उनकी किताब आई थी तो डा. मनमोहन सिंह परिवार तक ने नाराजगी प्रकट की थी। उनकी बेटी ने कहा था कि संजय बारू ने उनकी पीठ में छुरा घोंपने का काम किया है। लेकिन इससे संजय बारू को क्या। उन्होंने पेग्वुंइन से प्रकाशित इस पुस्तक के जरिए भारी शोहरत और दौलत दोनों बटोरीं।

इस पुस्तक में कुछ ऐसा नहीं है जिसे लोग पहले से न जानते हों और लीक से हटकर मनमोहन सिंह के मामले में जो कुछ हुआ उसमें देश की मंजूरी न हो। इस पुस्तक में डा. मनमोहन सिंह के स्वतंत्र वजूद को स्थापित करने की कोशिश की गई है जो राष्ट्र हित के मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करना चाहता जबकि सोनिया गांधी अपने स्वार्थ के लिए देश के साथ खिलवाड़ की हद तक मनमानी पर उतारू रही हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी युग में प्रतिपक्ष पर निशाना साधने के क्रम में देश के समूचे राजनीतिक तंत्र के प्रति  अविश्वास भरने का काम किया जा रहा है जबकि हकीकत यह है कि भाजपा हो, कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टियां, देश की राजनीतिक मुख्य धारा की किसी भी पार्टी की राष्ट्रीय निष्ठा पर संदेह नहीं किया जा सकता। जिस दिन मुख्य धारा में ऐसी पार्टी आ जाएगी जो दूसरे देश यहां तक कि शत्रु देश के लिए वफादार हो उस दिन इस देश को कोई बचा नहीं सकता। नीतिगत चूक होना एक अलग बात है और राष्ट्रद्रोह अलग। कांग्रेस से कई जगह नीतिगत चूक तो हुई लेकिन कांग्रेस राष्ट्रीय अस्मिता के मुद्दे पर कई बार दृढ़ फैसले किए और पाकिस्तान को दो टुकड़े करके सबक सिखाना इसकी एक मिसाल है। दुनिया की सबसे शातिर खुफिया एजेंसी की साजिश से कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की हत्या ही इसीलिए कराई गई क्योंकि उनके रहते हुए कठपुतली की तरह इस देश का इस्तेमाल बाहरी शक्तियां नहीं कर पा रही थीं। कांग्रेस के इसी ट्रैक रिकॉर्ड की वजह से अटल जी जैसे बेहतरीन प्रधानमंत्री को नकार कर 2004 में मतदाताओं ने एक  बार फिर कांग्रेस को देश की बागडोर सौंपी थी। उस समय डा. मनमोहन सिंह तो किसी दृश्य में थे ही नहीं। कांग्रेस की किसी और चेहरे की वजह से नहीं सिर्फ सोनिया गांधी के चेहरे को ध्यान में रखकर मतदाताओं ने बदलाव का जनादेश पारित किया था। इस देश के विवेकशील मतदाता किसी संदिग्ध निष्ठा वाले व्यक्ति के हाथों खेल सकते हैं, यह भ्रम फैलाना एक बड़े संकट को जन्म देने के बराबर है।

बहरहाल सोनिया गांधी ने खुद उस समय प्रधानमंत्री का पद लेने से इंकार कर दिया था। देश को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में मजबूती से स्थापित करने के लिए एक शानदार अर्थशास्त्री के नेतृत्व की जरूरत थी। इसे पूरा करने के लिए सोनिया गांधी ने पार्टी की राजनीतिक जमात को दरकिनार कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया। मनमोहन सिंह मूल रूप से एक नौकरशाह रहे हैं। जिनके खून में राजनीतिक आका के इशारे के मुताबिक ढलकर काम करने की खूबी शामिल थी। जाहिर है कि उनसे किसी बड़े मुद्दे को छोड़कर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से असहमत होने का अंदाजा आसानी से नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री के रूप में उनसे जिस भूमिका की अपेक्षा थी उसमें वे आजाद थे क्योंकि सोनिया गांधी आर्थिक मामलों में उनके सामने अपनी बिसात जानती थीं। तो दूसरी ओर अन्य मामलों में मनमोहन सिंह की खुद ही दिलचस्पी नहीं थी। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अंततोगत्वा जनता के प्रति जवाबदेही सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी की ही थी डा. मनमोहन सिंह की नहीं। ऐसी हालत में जनता का भरोसा कायम बना रहने की फिक्र सोनिया गांधी को ही करनी पड़ रही होगी। मनमोहन सिंह ने तो अपनी संसद की सदस्यता के लिए भी जनता को फेस करना गवारा नहीं किया था। उस हालत में तो सोनिया गांधी लोगों के बीच सरकार की छवि के लिए और ज्यादा सतर्क रही होंगी जब उनकी तैयारी मनमोहन सिंह के बाद अपने पुत्र राहुल गांधी का पदारोहण कराने की थी।

जहां तक मनमोहन सिंह को बीच में हटाकर राहुल को प्रधानमंत्री बनाने के लिए साजिश का प्रश्न है तो सोनिया गांधी को इसकी जरूरत क्या थी। वे खुद नहीं बनी थीं तो शुरू में ही राहुल गांधी को बड़े आराम से आगे कर सकती थीं। खासतौर से भारत जैसे देश में जहां नेता इतने बेशर्म हैं कि उनका वश चले तो अपनी दुधमुंही संतान को भी मंत्री और मुख्यमंत्री बना दें। फिर सोनिया गांधी अधीर होतीं तो दूसरी बार पार्टी की सरकार बनने पर राहुल को आगे कर देतीं। लेकिन उन्होंने दूसरी बार भी मनमोहन सिंह का चुनाव कराया। 2009 से 2014 तक के कार्यकाल में कई बार राहुल के लिए मनमोहन सिंह ने कुर्सी छोड़ने की कोशिश की पर राहुल ही तैयार नहीं हुए। कुल मिलाकर द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ऐसे तर्कों और विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई फिल्म है जिनका कोई औचित्य नहीं है। लोकतंत्र में चरित्र हनन की राजनीति का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। पर लगता है कि भाजपा नीतियों और कार्यक्रमों की बजाय कपट के सहारे चुनाव लड़ने और जीतने में ज्यादा भरोसा करती है।

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