प्रियंका गान्धी की राजनीति में इंट्री को भले ही राहुल गांधी का ट्रम्प कार्ड माना जा रहा हो लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसके लिए किसी नाटकीय प्रायोजना यानी इस घोषणा के लिए किसी बड़े ईवेंट का तामझाम रचाने से जान बूझकर परहेज रखा जबकि करिश्मे के तौर पर वांछनीय उनकी प्रस्तुति के लिए यह आवश्यक था जो कांग्रेस को ज्यादा फायदेमंद भी साबित होता । दरअसल सोनिया गांधी का इरादा शुरू से ही बेटे राहुल गांधी को ही राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपने का रहा जबकि बेटी प्रियंका उम्र में छोटी होते हुए भी राहुल से काफी पहले राजनीति में झलक दिखा कर बड़ी संभावना के रूप में छा चुकी थीं । इसलिये उनकी चमक के आगे राहुल के सही ढंग से उदित न हो पाने की दिक्कत को ले कर सोनिया गांधी शुरू से ही काफी चौकन्नी रहीं । उन्होने इसी के तहत प्रियंका के कभी पूरी तरह राजनीति में आने की संभावना को हमेशा नकारा लेकिन अंततोगत्वा हालातों की मजबूरी के चलते जब उन्होने यह इरादा पलटा तो एक बार फिर राहुल का कद उनके आकर्षण के आगे ओझल न होने देने की चिंता की जाना लाजिमी था । यह बात दूसरी है कि कांग्रेस पार्टी की ओर से भले ही प्रियंका के पूर्णकालिक तौर पर राजनीति में उतरने का मामला लो प्रोफ़ायल में रखा गया हो पर इस कदम से सारे दलों में मची खलबली को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है ।

हिन्दी पट्टी के 3 राज्यों में भाजपा के कांग्रेस के हाथों सत्ता गँवाने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और  भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी बौखलाई हुई है । इन राज्यों में पार्टी के पिछड़ने की एक वजह कांग्रेस नेताओं के प्रति उनके अशालीन भाषण भी मानी गई थी जिसके आधार पर खास तौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सलाह दी गई थी कि वे अपने पद की गरिमा के अनुरूप भाषणों को संतुलित और संयमित करें लेकिन अंततोगत्वा यह चेतावनी उनका आपा नहीं लौटा सकी है । इधर प्रियंका गांधी को कांग्रेस पार्टी में महासचिव नियुक्त किए जाने की घोषणा हुई उधर नरेंद्र मोदी के प्रतिक्रियावादी सुर सामने आ गए । उन्होने महाराष्ट्र में वीडियो कान्फ्रेसिंग के जरिये पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि कुछ लोगों के लिए परिवार ही पार्टी है । उनका बार –बार किया जाने वाला यह कटाक्ष बेतुका ही  ठहरता है जब उनकी पार्टी में भी वंश परंपरा की बाढ़ देखने को मिलती है । अकेले कांग्रेस की बात क्या करना जब सभी पार्टियों में यही हो रहा है । क्या उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की बात हो क्या दक्षिण में द्रमुक की । अब तो बसपा को ले कर भी चर्चा है कि मायावती अपने भतीजे आकाश को अपने बाद पार्टी की जिम्मेदारी सम्हालने के लिए तैयार कर रहीं हैं ।

असल में भारतीय समाज के गठन में अभी भी सामन्ती मूल्य प्रभावी हैं जिसकी वजह से राजनीतिक क्षेत्र में यहाँ वंश परंपरा ही स्वीकार्य हो पाती है । कई और देशों में भी पूरी तरह आधुनिकीकरण के वाबजूद कुछ पुरानी व्यवस्थाओं के अवशेषों के प्रति उन्होने अपने मोह को बनाये रखा है तभी तो ब्रिटेन और जापान जैसे देश खर्चीली राजशाही को आज तक ढो रहे हैं । वंशवाद से आगे पहुंचा जा सके तो और बेहतर हो सकता है लेकिन जैसा कि राहुल गांधी ने विदेश में इसे ले कर किए गए सवाल में साफ़गोई से कहा था कि भारतीय राजनीति का मिजाज वंशवाद को ही मंजूरी देता है तो इस नियति में कोई बहुत बड़ा हर्जा भी नहीं है बशर्ते इसे ले कर लोगों की भावनाएँ कुचलने की नौबत न हो । सोनिया गांधी ने जब मौका था तब राहुल को सत्ता में थोप दिया होता तब आपत्ति हो सकती थी लेकिन राहुल जनता के विश्वास को जीतने का इम्तिहान पास करके सत्ता पाने की कोशिश कर रहे हैं तो वंशवाद उनके ख़िलाफ़ मुद्दा नहीं हो सकता । लोकतंत्र में वंशवाद का सिक्का चलाना इतना आसान नहीं है वरना तमिलनाडु में एम जी रामचंद्रन की पत्नी के मुकाबले जयललिता कामयाब नहीं हो पातीं । ऐसे कई दृष्टान्त हैं । अगर इसे कुरीति मान भी लिया जाये तो चुनाव जिताने वाली हर कुरीति का सहारा लेने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता ,भाजपा भी  नहीं । अगर भाजपा भी शार्टकट में विश्वास न करती होती तो गत चुनावों में दूसरी पार्टियों से आए बदनाम लोगों को उनकी जिताऊ क्षमता के कारण उम्मीदवार बनाने की मजबूरी उसने न दिखायी होती । वंशवाद की ही वजह से कांग्रेस सफल है इसीलिये राहुल के बाद उसे प्रियंका कार्ड खेलने की सूझी क्योंकि लोग प्रियंका में इंदिरा गांधी का अक्स देखते हैं और उनके कारण पार्टी को ग्लैमर के तड़के का भी फायदा मिलेगा ।

बहरहाल प्रियंका गांधी का राजनीति में अवतरण मीडिया में सुर्खियों का मसाला साबित होगा यह तो पहले से तय था लेकिन जमीनी तौर पर वे कांग्रेस को कितनी संजीवनी दे पाएंगी यह अभी कोई बहुत स्पष्ट नहीं है इसलिये नरेंद्र मोदी खेमे में उन्हें ले कर घबराहट अजीब लगती है । प्रियंका गांधी का कांग्रेस के एक वर्ग पर रोमानी किस्म का असर है लेकिन बुनियादी मुद्दों पर उनका राजनीतिक दृष्टिकोण क्या है यह किसी को नहीं पता जो ठोस समर्थन जुटाने के लिए जरूरी होता है । प्रियंका गांधी की यह चमक भी कहीं न कहीं वक्त के साथ फीकी हो गई है जो अमेठी की विधानसभा सीटों के नतीजों से उजागर हो चुका है । इसी कारण बहुत से लोगों को इसमें संदेह है कि अब सचमुच कोई बड़ा उलटफेर हो पाएगा । फिलहाल तो सिर्फ उनका फायदा यह दिख रहा है कि इससे उत्तर प्रदेश में कांग्रेसियों का मनोबल लौट आया है और पार्टी का बिखराव थम जाने के आसार बन गए हैं ।

राहुल गांधी की एक मंशा इस दौरान उजागर हुई है कि वे हर राज्य में जूनियर पार्टी बनते जाने की नियति से अपनी पार्टी को छुटकारा दिलाने के लिए कसमसा रहे हैं । स्थिति ऐसी नहीं है कि रातोंरात यह काम हो जाये इसलिये अन्य लोगों को फिलहाल साधे रहना उनकी मजबूरी है । इसी रणनीति के तहत मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ में उन्होने सपा , बसपा को सिर्फ गफलत में रखा जबकि इनके साथ कोई चुनावी तालमेल न रखने का रुख वे शुरू से ही अख्तियार किए हुए थे । उत्तर प्रदेश में भी वे अकेले दम पर ज़ोर आजमायाश के प्रयोग की ठाने हुए थे जबकि सपा , बसपा इस भुलावे में थी कि उन्होने कांग्रेस को एक कोने में डाल कर सबक सिखा दिया है । अब प्रियंका को राजनीति में उतारने की घोषणा से उन पर गाज गिर गई है । दोनों पार्टियों के नेतृत्व को जैसे सांप सूंघ गया है और वे कांग्रेस के इस पैंतरे का कोई जवाब नहीं दे पा रहे हैं । इसका जो मनौवैज्ञानिक असर है उससे भाजपा से ज्यादा नुकसान सपा – बसपा गठबंधन को होने के आसार बन गए हैं । गठबंधन के कारण आधी सीटों पर सपा और आधी सीटों पर बसपा के स्थानीय ऊर्जावान क्षत्रपों के लिए चुनाव से बाहर हो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है जो अपने अरमान पूरे करने के लिए कांग्रेस में नई जान देख कर उसका दामन थामने लगेंगे । कांग्रेस इस अवसर को भुनाने में कसर नहीं छोड़ेगी । दूसरे मुस्लिम वोटों की पहली पसंद कांग्रेस समझी जा रही है । कांग्रेस में मजबूती देख अगर इस वोट बैंक की शिफ्टिंग होने लगी तो सपा – बसपा को मुश्किल हो जायेगी । कुल मिला कर प्रियंका की आमद से उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य बहुत रोचक दिखने लगा है ।

 

 

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