भाजपा को दलितों में अब नये भगवान की तलाश है। अंबेडकर राग के खतरे भांपने के बाद संघ ने इस मामले में उन्हें बैकफुट पर धकेल दिया। वरना हर जनसभा में वे दुहाई देते थे कि उनके जैसा शूद्र (पिछड़ा) कुल में जन्मा व्यक्ति अगर आज देश के सर्वोच्च कार्यकारी की कुर्सी तक पहुंच पाया है तो इसके श्रेय बाबा साहब के लंबे वैचारिक संघर्ष को है। हालांकि संघ ने स्वयं ही काफी पहले से अंबेडकर की व्यक्ति पूजा को भक्ति भाव पर आधारित समरसता का आलंबन बनाना शुरू कर दिया था। लेकिन उनका इस कदर महिमा मंडन उसे बर्दाश्त नही हुआ कि वे सबसे ऊपर हो जायें और वर्ण व्यवस्था को कारगर तरीके से दरकाने लगें। हर जाति में एक अवतार पैदा करके वर्ण व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का गुर बहुत सिद्ध है इसलिए हिन्दुत्व की पोषक शक्तियां हर बार इस गुर को अजमाने की अभ्यस्त हैं। विष का भी औषधि इस्तेमाल होता है लेकिन विष पान की आत्मघाती सलाह तो किसी को नही दी जा सकती। मोदी का अंबेडकर प्रेम आत्मघाती हो चला था। इसलिए उनके उत्साह पर विराम लगाना लाजिमी हो गया था। बाबा साहब ने इस्लाम के खिलाफ जो लिखा उसे पढ़ाते-पढ़ाते उनका रिडल्स इन हिन्दुज्म भी पढ़ लिया गया तो अनर्थ हो जायेगा।
बहरहाल बीती 19 फरवरी को संत रविदास की जयंती थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस दिन अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के सीर गोवर्धन कस्बे में पहुंचे जिसे संत रविदास की जन्म स्थली माना जाता है। भले ही संत रविदास आडंबर के विरोधी रहे हों जिसमें मंदिर खड़े करना भी शामिल है। पर मोदी ने उन्हें सीर गोवर्धन में श्रद्धांजलि देने के लिए उनके मंदिर की दहरी पर मत्था टेका, परिक्रमा की और वहां का प्रसाद सिर पर लिया। संत रविदास को भक्ति काल के संत के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। हालांकि अपने आप में यह बिडंबना है जिसके पीछे के निहितार्थ को समझा जाना चाहिए। उनके जैसे विद्रोही संत का भक्त के रूप में प्रस्तुतिकरण किसी कुटिल मंशा को दर्शाता है। भक्तिकाल का वास्तविक और लाक्षणिक अर्थ संत रविदास के उपदेशों की तस्वीर बदल कर उल्टी कर देने वाला है।
संत रविदास और गोस्वामी तुलसीदास लगभग समकालीन थे। लेकिन दोनों की धारणाएं विपरीत ध्रुव नजर आती हैं। इस विरोधाभास को जानने के बाद ही यह स्पष्ट किया जा सकता है कि संत रविदास को भक्त के रूप में दर्शाया जाया क्यों उचित नही है। गोस्वामी तुलसीदास ने जो धारणा व्यक्त की थी उसके मुताबिक शूद्र सम्मानीय नही हो सकता भले ही उसमें कितने गुण क्यों न हों और ब्राहमण हमेशा वंदनीय है भले ही वह कितने भी खराब कर्म क्यों न करें। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के अरण्य कांड में यह विधान स्वयं राम के मुंह से निरूपित कराया है जो उनकी इस चौपाई में व्यक्त है- ‘‘पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवाना।।’’ रविदास ने उसका उग्र प्रतिवाद किया है इस बात की परवाह किया बिना कि यह स्वयं राम की खंडना और अवज्ञा माना जायेगा। वे कहते हैं कि अगर गुण अच्छे हों संस्कार अच्छे हैं और कर्म उज्ज्वल हैं तभी कोई व्यक्ति स्तुत्य हो सकता है और अगर यह विशेषताएं हैं तो उसने चांडाल परिवार में ही जन्म क्यों न लिया हो उसका अभिनंदन और वंदन किया जाना चाहिए और अगर गुण और कर्म अच्छे नही है तो उसके आगे नही झुका जाना चाहिए भले ही वह ब्राहमण क्यों न हो। इसलिए उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि राम को वे भी अपना आराध्य मानते हैं लेकिन तुलसी के राम को नही। उनके राम किसी राजा के पुत्र नही हैं वे अजन्में, अकाल और शाश्वत राम हैं जो स्रष्टि के कण-कण में ईश्वरीय भाव के रूप में रमते हैं। वैसे तो रविदास, कबीरदास और गोस्वामी तुलसीदास जी तीनों ही रामानंद जी के शिष्य हैं। लेकिन एक ओर रविदास और कबीर हैं और दूसरी ओर तुलसीदास जिनके राम की छवियां अलग-अलग ही नही बल्कि एकदम विपरीत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इसलिए संत रविदास पर एक दृष्टिपात यहां आवश्यक है। 1299 में जन्में संत रविदास के पहले विष्णु के एक अवतार के रूप में राम का उल्लेख होता था लेकिन उनके अलग स्वरूप या कथा का आख्यान नही था। रामानंद जी ने राम पूजा को एक स्वतंत्र पंथ के रूप में प्रचारित और प्रतिष्ठित किया। वजह यह थी कि उत्तर भारत से बहुत पहले दक्षिण भारत में दशरथ पुत्र राम की कथा अस्तित्व में आ गई थी। वैष्णव पंथी रामानंद जी ने जब दक्षिण का भ्रमण किया तो उन्हें भगवान के शौर्य के इस उत्प्रेरक रूप की छवि बहुत रास आई और इसलिए उन्होंने विष्णु के अवतार तक सीमित न रख कर राम की उपासना को अलग और विराट रूप दे डाला। गोस्वामी तुलसीदास ने इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए सगुण भक्ति धारा के सबसे शक्तिशाली प्रतीक के रूप में राम को स्थापित किया जो वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को बचाने के लिए उनकी रामचरित मानस मे अवतरित किये गये। गोस्वामी जी ने मानस का उत्तरकांड में पटाक्षेप कर दिया है जिसमें लंका जीतने के बाद अयोध्या में उनका भव्य राज्याभिषेक हो जाता है और यहीं वे कथा का अंत कर देते हैं। राम इसके बाद कैसे राज्य का संचालन करते हैं और अपनी लीला को किस तरह समेटकर उसका अंत करते हैं। इससे गोस्वामी जी ने कोई सरोकार नही रखा। फिर भी तुलसीदास ने चेतन और अचेतन तौर पर उनके साम्राज्य का एक बिंब लोगों की दृष्टि में स्थापित कर रखा है जो उनका स्मरण करते ही आंखों के सामने रूपायित हो जाता है। दूसरी ओर संत रविदास को न तो भगवान राम का मानवीयकरण स्वीकार है और न ही वर्णाश्रम पर आधारित उनका रामराज्य। इसलिए उन्हें आवश्यकता पड़ी बेगमपुरा के यूटोपिया को सामने रखने की जिसमें कोई गम न हो। उनका बेगमपुरा ऐसी बस्ती है जिसमें आर्थिक, सामाजिक या किसी आधार पर ऊंच-नीच, भेद-भाव, अन्याय या उत्पीड़न के लिए कोई गुंजाइश नही है। संत रविदास के विद्रोह की प्रखरता की इस झांकी को देखने के बाद उनके तेज का अनुमान हो जाता है। यही कारण है कि जब काशी नरेश के सामने एक शूद्र होकर उनके प्रवचन करने पर आपत्ति की गई तो धर्म के ठेकेदारों के सामने नतमस्तक या संकुचित होने की बजाय धर्म के प्रचार के अपने अधिकार को सिद्ध करने के लिए उन्होंनें तथाकथित विद्धानों से शास्त्रार्थ की लड़ाई लड़ी और उन्हें पस्त कर दिया।
भक्तिकाल की द्वंदात्मकता का एक और पहलू है जिसका उल्लेख अत्यंत प्रासंगिक है। यह पहलू गोरखपंथियों और नाथपंथियों के लिए गोस्वामी तुलसीदास की वितृष्णा से जुड़ा है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने अपने लब्धप्रतिष्ठ ग्रंथ संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है कि गोस्वामी तुलसीदास नाथपंथियों और गोरखपंथियों के विरुद्ध थे क्योंकि उनका विचार था कि योगाचार की ओर जनता को प्रेरित करने के लिए मशक्कत करने का कोई लाभ नही है। इन पंथों के फेर में पड़कर जनता ने मंदिर और मूर्ति को तो छोड़ दिया लेकिन लोग इनके निराकारवादी सूक्ष्म ज्ञान को पकड़ नही पाते जिससे वे मार्ग से भटक जाते हैं। गोरखपंथ पर कटु आक्षेप करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा कि गोरखनाथ ने ऐसा योग जगाया कि लोगों की भक्ति ही भाग गई। मजे की बात यह है कि आज उसी गोरखपंथ के मौजूदा उत्तराधिकारी योगी आथित्य नाथ ही मंदिर निर्माण के कर्णधार चुन लिए गये हैं जिनको उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री मुख्य रूप से इस उददेश्य को पूरा करने के लिए ही बनाया गया है।
यह बात भी अचरज में डालती है कि मुसलमानों के शासन के बारे में धारणा यह बनी हुई है कि उन्होंने हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता को समाप्त करने में कोई कसर नही छोड़ी थी। लेकिन जब गोस्वामी तुलसीदास वर्ण के आधार पर सम्मान और प्रताड़ना को तय करने की व्यवस्था का निरूपण कर रहे थे उस समय देश में अकबर की बादशाहत चल रही थी और प्राकृतिक न्याय व व्यवहारिक शासन के विरुद्ध उक्त मान्यता को प्रचलित करने से रोकने के लिए अकबर की हुकूमत कहीं उनके आगे नही आई थी।
लेकिन आज जबकि पूरी दुनियां एक गांव में बदल चुकी है तो यह मान्यताएं बहाल करने का प्रयास विश्व बिरादरी से देश के कट जाने का कारण बन सकता है। इन मान्यताओं को अपनाने से आईपीसी और सार्वभौम सिद्धांतों पर आधारित देश के अन्य विधान भी अमान्य किये जाने की नौबत आ सकती है। लेकिन फंतासी की मनोकैद विवेक पर भारी पड़ रही है। जिसकी वजह से अंबेडकर या रविदास को चरितार्थ करने का प्रयास बहुत बड़े जोखिम का काम है। मोदी को इस द्वंद से परिचित होना चाहिए। भारत की तथाकथित धार्मिकता को गोस्वामी तुलसीदास का रामराज चाहिए न कि बेगमपुरा के रूप में व्याख्यायित संत रविदास का रामराज।

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