उरई। 1991 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को यहां की संसदीय सीट पर पहली सफलता प्राप्त हुई थी। हालांकि पार्टी ने जो उम्मीदवार उतारा था उन्हें स्काईलैब कहा जा रहा था। पार्टी कार्यकर्ताओं से उनका पहले से परिचय तक नही था। लेकिन उम्मीदवार का अजनबीपन भी मतदाताओं की स्वीकार्यता में बाधक नही बन पाया।
जनसंघ के दौर में भी था पार्टी का जलजला
भारतीय जनता पार्टी नही थी, उस समय जनसंघ चलता था। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी को हराने के लिए जनसंघ सहित कम्युनिस्टों को छोड़कर सभी गैर कांग्रेसी दलों ने अपनी पहचान मिटाते हुए जनता पार्टी के नाम से संयुक्त दल बनाकर चुनाव लड़ा और सफलता हासिल की। यह दूसरी बात है कि जनता पार्टी का प्रयोग बहुत दिनों तक कामयाब नही रह सका। जनता पार्टी में टूट-फूट के बाद जनसंघ मूल के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी बनाई।
बहरहाल जनसंघ के समय भी इस संसदीय क्षेत्र में पार्टी की जड़े मजबूत थी। 1967 और 1971 के चुनावों में जनसंघ के उम्मीदवारों ने ही दूसरा स्थान हासिल किया था। 1969 में जनसंघ के उम्मीदवार थे फुंदीलाल जिन्हें कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार चौ. रामसेवक के मुकाबले 99927 मत मिले थे। इस तरह वे 1 लाख मतों तक पहुंचने में कुछ ही अंतर से पीछे रह गये थे।
जबकि 1971 में जबर्दस्त इंदिरा लहर के बावजूद जनसंघ के उम्मीदवार फुंदीलाल 1 लाख 21 हजार 843 वोट बटोर ले गये थे। 1991 आते-आते अयोध्या में पुलिस की गोली से कारसेवकों के शहीद होने के बाद ऐसी राम लहर चली कि भाजपा प्रदेश के साथ-साथ जिले में भी फिर राजनैतिक बुलंदियों पर पहुंच गई।
संसदीय क्षेत्र में अजनबी थे गया प्रसाद
कोंच के रहने वाले गया प्रसाद कोरी घर की दयनीय हालत की वजह से दिल्ली जाकर एक फैक्ट्री में काम करने लगे थे। इस दौरान वे आरएसएस के आनुषांगिक संगठन भारतीय मजदूर संघ से जुड़ गये। उनकी इस पृष्ठभूमि की वजह से संघ ने 1991 में लोकसभा चुनाव में उन्हें उम्मीदवार बनाने की सिफारिश कर दी। यह फैसला भाजपा की जिले की लीडरशिप को उस समय रास नही आया था लेकिन संघ के निर्देश के कारण उन्हें मन मारकर गया प्रसाद के लिए काम करना पड़ा। बावजूद इसके गया प्रसाद कोरी ने चुनाव जीत लिया। हालांकि वे अपना कार्यकाल पूरा नही कर सके। क्योंकि दुर्भाग्यवश उनका बीच में ही असामयिक निधन हो गया।
नेतृत्व के जबाब से लाजबाब रह गये थे भानु समर्थक
2014 के चुनाव में जब रामनाथ कोविंद (वर्तमान में महामहिम राष्ट्रपति) का विरोध करते हुए भानुप्रताप वर्मा के समर्थक उनके अलावा किसी और के न जीत पाने की दलील दे रहे थे उस समय 1991 के चुनाव नतीजे का हवाला देते हुए कहा गया था कि उम्मीदवार को मतदाताओं ने कब देखा है और क्यों देखेगें। एक बार फिर पार्टी की लहर है तो जिसे टिकट दिया जायेगा वह जीत जायेगा।
पुत्र को पांचवां स्थान मिला तो हुई बड़ी फजीहत
यह जबाब गलत नही था क्योंकि भानु प्रताप वर्मा के सांसद रहते उनका बेटा जिला पंचायत चुनाव में पांचवें स्थान पर रह गया था। जो भानु की निजी लोकप्रियता का मिथक चलाने वालों को मतदाताओं का आइना दिखाने वाला जबाब माना गया था।






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