उरई। जनभावनाओं पर पार्टी का अति आत्मविश्वास भारी पड़ा। सारी अटकलों को दरकिनार कर भाजपा हाईकमान ने सांसद भानु प्रताप वर्मा की उम्मीदवारी को बहाल रखा है। उन्हें टिकट की घोषणा की खबर आते ही भाजपा कार्यालय की बजाय सपा-बसपा गठबंधन में जश्न का माहौल नजर आने लगा। अगर चुनाव नतीजों के लिए यह कोई संकेत है तो कहा जायेगा कि भाजपा के हित में तो यह संकेत नही है।
मंगलवार को भाजपा ने उम्मीदवारों की एक और सूची जारी कर दी। बुंदेलखंड की चार सीटों में से दो सीटों के प्रत्याशी इसमें घोषित किये गये हैं। दोनों ही जगह निवर्तमान सांसदों को बहाल रखा गया है। जालौन-गरौठा-भोगिनीपुर क्षेत्र से भानुप्रताप सिंह वर्मा और हमीरपुर-महोबा क्षेत्र से पुष्पेंद्र सिंह चंदेल को पार्टी ने फिर से उम्मीदवार बनाने की घोषणा की है।
भानुप्रताप वर्मा के चुनाव जीतने के बाद अंर्तध्यान रहने की वजह से संसदीय क्षेत्र के कार्यकर्ताओं ने उनकी पुनः उम्मीदवारी पर जमकर आपत्ति लगाई थी। लेकिन पुलवामा कांड के बाद पार्टी के पक्ष में बने जबर्दस्त माहौल और बुंदेलखंड को अपना सुरक्षित चारागाह समझने की वजह से अहंकार में पार्टी नेतृत्व ने जन भावनाओं को ताक पर रख दिया।
बताया जाता है कि भानु प्रताप वर्मा का टिकट न बदले जाने के पीछे एक वजह यह भी रही कि विधायक सामूहिक रूप से जिन नामों के लिए दबाव बना रहे थे पार्टी नेतृत्व उन्हें गंवारा नही कर सकता था। दरअसल विधायकों की छवि के बारे में पार्टी नेतृत्व के पास बेहद असहज कर देने वाला फीडबैक था। इसलिए उनकी संस्तुति मानकर पार्टी अपना बेडा गर्क कराने को तैयार नही थी।
भानुप्रताप वर्मा पहली बार 1996 में सांसद बने थे। लेकिन उस समय की लोकसभा 2 वर्ष ही चल पाई। साथ ही अटल बिहारी बाजपेयी के 13 दिन बाद ही प्रधानमंत्री पद से हट जाने को लेकर लोगों में भारी मलाल था। इसलिए भानु वर्मा को 1998 में एक बार फिर से मौका मिल गया। लेकिन उनकी कार्य प्रणाली लोग झेल नही पाये और 1 साल बाद ही जब 1999 में लोकसभा का एक बार फिर मध्यावधि चुनाव हुआ तो भानु वर्मा को जनता ने सड़क का रास्ता दिखा दिया। भानु वर्मा ने अपनी तो भद पिटवाई ही, साथ ही पार्टी की भी फजीहत करा दी।
यह दूसरी बात है कि पार्टी ने इसके बावजूद 2004 में उन्हें एक बार फिर चुनाव मैदान में उतारा। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के चलते भानु की लाटरी पुनः खुल गई। इसके बाद के चुनाव में जो होना था उसे लोग पहले से जानते थे। भानु वर्मा जो एक साल में ही लोगों को उबा देने में पारंगत हों उन्हें 5 साल झेलकर तो मतदाताओं के सब्र का बांध किस कदर टूट जाना था। इस वजह से लोगों ने न केवल 2009 में भानु वर्मा को हरा दिया बल्कि उन्हें तीसरे नंबर पर धकेल दिया। उन्हें इतने कम मत मिले कि आज तक वे खुद उस समय का बहीखाता देखकर अपने पर शर्मिंदा हुए बिना नही रहते। 2009 में विजेता उम्मीदवार घनश्याम अनुरागी को 2 लाख 82 हजार 816 और तिलकचंद अहिरवार को 2 लाख 71 हजार 610 मत मिले थे वही भानु वर्मा की दयनीय मत प्राप्ति मात्र 1 लाख 31 हजार 259 वोटों की थी।
अब वोटर इस बात की कल्पना मात्र से सिहरन महसूस कर रहे है कि जब उन्हें 5 साल अनाथ जैसी हालत गुजारते हुए कितनी बदहाली का सामना करना पड़ा तो भानु को एक और मौका देकर 10 साल के लगातार के उनके कार्यकाल में वे किस गत पर पहुंच जायेगें। हालांकि जानकारों का यह भी कहना है कि भाजपा का जादू इस समय इतना सर चढ़कर बोल रहा है कि लोग भानु की तमाम कमियों के बावजूद कमल का ही समर्थन करने को मजबूर हैं। दूसरी ओर सपा-बसपा गठबंधन के लोग भानु वर्मा की उम्मीदवारी बहाल रहने से यह सोचकर खुशी से झूम रहे हैं कि अब न केवल उनकी कामयाबी सुनिश्चित हो गई है बल्कि जीत का अंतर भी ऐतिहासिक हो जाने की उम्मीद बन गई है। अब देखना है कि किस पक्ष का आत्म विश्वास खरा साबित होता है।






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