लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी को उम्मीदवार न बनाने के साथ-साथ भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची से भी नदारत कर दिया गया है। इसके चलते एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधिनायकवादी रवैये पर बहस छिड़ गई है। भाजपा में भी एक बड़ा वर्ग पार्टी के इस फैसले को पचा नही पा रहा है।
हालांकि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी उम्र के उस पड़ाव को पार कर चुके हैं जहां उनकों खुद ही सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर देनी चाहिए थी। यह एक अच्छी परंपरा होती यह दूसरी बात है कि करुणानिधि जैसे कई नेता ऐसे भी रहे जिन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से भी ज्यादा उम्र दराज होने के बाद भी मृत्यु पर्यंत विश्राम लेने की जहमत नही उठाई।
तथापि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के संदर्भ में यह केवल उम्र का मामला नही है। उनसे जिस तरह से छुटकारा प्राप्त करने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से जारी था जिसमें उन्हें कई मौकों पर अपमानित तक किया गया उसे कृतघ्नता की पराकाष्ठा माना जा रहा है। दो सीटों से पार्टी को एकदम 86 सीटों के आंकड़े पर पहुंचाने का सारा श्रेय आडवाणी को जाता है। इसलिए वे सही अर्थ में भाजपा के पितृ पुरुष हैं और उनकों जिस तरह नीचा दिखाया गया वह किसी के लिए भी स्वीकार्य नही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्टार बुंलदियों पर हैं इसलिए अभी इसे लेकर कोई मुंह खोलने का साहस भले ही न कर पाये लेकिन भविष्य में इतिहास उन्हें बड़े खलनायक के तौर पर इसके चलते चित्रित कर सकता है।
राष्ट्रपति शोभा का पद है जो पूर्ण बहुमत की सरकार के लिए कोई व्यवधान उत्पन्न नही कर सकता। लोग उम्मीद कर रहे थे कि मोदी आडवाणी को राष्ट्रपति के रूप में पदासीन कराकर उन शिकायतों का अंत कर देगें जो उनके प्रधानमंत्री पद के लिए लालकृष्ण आडवाणी के आगे आने से उपजी थीं। लेकिन दलित कार्ड की आड़ में मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी के इस पद के सबसे स्वाभाविक दावे का हनन कर डाला। इसके बाद लगातार साबित होता रहा है कि वे लालकृष्ण आडवाणी को लेकर प्रतिशोध की भावना से ग्रसित हैं।
लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी की ही बात नही है, नरेंद्र मोदी तो अटल जी तक का इतिहास खत्म करने में कसर नही छोड़ रहे। जब अटल जी का देहावसान हुआ था तो उनकी शव यात्रा और अंतिम संस्कार से लेकर अस्थि विसर्जन तक ऐसा रूपक तैयार किया गया जैसे मोदी उसे महामानव के चरणों में बिछे जा रहे हों। अनुमान लगाया गया था कि ब्राहमण वोटों के लिए अटल जी की स्तुति की कवायद जारी रहेगी। जबकि हालत यह है कि मोदी जो यह धारणा बना रहे है कि उनसे पहले किसी नेता ने देश में कोई यादगार काम नही किया उसमें अटल जी को भी बहुत चतुराई से समेट देने में कसर नही छोड़ी जा रही है। मोदी नही चाहते कि लोग उनके अलावा किसी और का नाम जाने। यहां तक कि संघ के गुरुओं और दीनदयाल उपाध्याय तक की विचारधारा की चर्चा उन्हें अपने भाषण में गंवारा नही है। विरोधी तो कहते ही थे कि संघ के कर्ता-धर्ताओं और दीनदयाल उपाध्याय के पास कोई व्यवहारिक दर्शन और कार्यक्रम ऐसा नही रहा जिसे उदृत करके आगे बढ़ा जा सके। मोदी ने अपने कार्यकाल में इसे साबित करने में कोई कसर नही छोड़ी है।
भाजपा की इमेज संघ से संचालित सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी की रही है। पर मोदी ने संघ को भी असहाय कर दिया है। अगर भाजपा में सामूहिक नेतृत्व होता और संघ सक्षम बना रहता तो किसी भी मानक से अमित शाह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नही बन सकते थे। भाजपा को इस ढर्रे के चलते दूरगामी तौर पर बहुत नुकसान होता दिख रहा है। मोदी अपने बराबर उभरने वाले हर नेता को जिस तरह बोनसाई बनाने की साजिश करते हैं उससे उनके बाद पार्टी को नेतृत्व शून्यता के बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता है।






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