– पहली बार आमने-सामने है समाज के दो कद्दावर, एक लोस व दूसरा विस चुनाव में खा चुका है मात
– मुश्किल में अस्तित्व! गठबंधन के बाद कांग्रेस ने भी कुर्मी बिरादरी पर खेला दांव
- अशोक पटेल व राकेश सचान हो चुके है सांसद, भाजपा ने 03, बीकेडी-सपा ने 02-02 व बसपा-कांग्रेस ने पहली बार जताया भरोसा
(प्रमोद श्रीवास्तव)
फतेहपुर । संसदीय क्षेत्र में लोकसभा चुनाव की सरगर्मियाँ परवान चढ़ने लगी है। बैकवर्ड आधारित हो चुकी यहाँ की राजनीति में कुर्मी समाज की भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। संख्या बल के आधार पर यहाँ निर्णायक भूमिका में होने के कारण लगभग सभी राजनैतिक दलो की नज़र क़ुर्मियो पर टिकती रही है ! इस बार इस सीट पर क़ुर्मी जौहर की वास्तविक मायने में परीक्षा होगी क्योंकि आमने-सामने बिरादरी के दो प्रत्याशी है ।
यहाँ से 3 बार कुर्मी सांसद भी हो चुके हैं । जातिगत गुणाभाग के इस समर में कुर्मी वोटरों का टेस्ट परिवर्तनकारी रहा है। कोई भी निवर्तमान सांसद पराजय के बाद फिर कभी सर्वोच्च सदन का मुंह नहीं देख सका। डा० अशोक पटेल दो बार और राकेश सचान एक बार यहाँ से सांसद जरूर रहे, किन्तु जब हारे तो तीसरे स्थान पर रहे! बिरादरी की सियासी लीक से जो भी हटा कुर्मी मतदाताओं ने फिर उसे सांसद नहीं बनाया।
इस बार यहाँ से सपा-बसपा गठबंधन व कांग्रेस ने कुर्मी समाज से प्रत्याशी उतारा है। गठबंधन के सुखदेव प्रसाद वर्मा पूर्व में बिन्दकी विधान सभा चुनाव में करारी शिकस्त से आहत हुए तो कांग्रेस के राकेश सचान पिछले लोस चुनाव में बमुश्किल जमानत बचा पाये थे! राकेश सचान संसदीय इतिहास के पहले बतौर दलीय कुर्मी प्रत्याशी बने है जो दलबदल कर भाग्य आजमा रहे है!
उल्लेखनीय है कि फतेहपुर लोकसभा सीट से प्रमुख दलो ने 10 बार कुर्मी समाज से प्रत्याशी उतारा है, जिनमे सर्वाधिक चार बार भारतीय जनता पार्टी ने व दो-दो बार भारतीय क्रान्ति दल व समाजवादी पार्टी ने तथा पहली बार कांग्रेस व बसपा ने इस सीट पर कुर्मी समाज पर विश्वास जताया है। यह भी पहला अवसर है जब यहाँ से दो प्रमुख दलो ने कुर्मी प्रत्याशी उतार कर जोखिम उठाया हैं! संसदीय इतिहास में फतेहपुर सीट पर सर्वप्रथम १९६७ में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय क्रान्ति दल ने ब्रजलाल वर्मा को प्रत्याशी बनाया था, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। बीकेडी ने १९७१ में भी ब्रजलाल वर्मा पर दाँव खेला, किंतु सफलता कोसो दूर रही! उसके बाद लगभग दो दशक तक यहाँ से कुर्मी प्रत्याशी नहीं हुआ। १९९१ में भारतीय जनता पार्टी ने इस बिरादरी पर विश्वास जताते हुए डा० विजय नारायण सचान को प्रत्याशी बनाया, किन्तु सीट नहीं निकल पाई।
सूबे की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को समर्थन दे रही दलित मजदूर किसान पार्टी ने १९९८ के चुनाव में इस सीट पर अपना दावा ठोकते हुए यहाँ से डा० अशोक पटेल को प्रत्याशी बनाया, ये वो चुनाव था जब भाजपा ने पार्टी का बगैर सदस्य बने अशोक पटेल को अपना सिम्बल दिया था और अशोक पटेल की जीत ने दशकों के संघर्ष के बाद बतौर कुर्मी सांसद यहाँ भाजपा का खाता भी खोला था। लगभग तेरह माह बाद १९९९ में हुए पुनः संसदीय चुनाव में अशोक पटेल भाजपा के सिम्बल पर चुनाव लड़े और इकलौते कुर्मी सांसद बने जो दूसरी बार भी भाजपा के लिये सीट जीतकर दी, किन्तु २००४ के चुनाव में पराजय के बाद अशोक पटेल का राजनैतिक कैरियर लगभग समाप्त हो गया!
लोकसभा चुनाव २००९ में समाजवादी पार्टी ने पहली बार कानपुर के राकेश सचान को बतौर कुर्मी यहाँ से प्रत्याशी बनाया और राकेश पहली बार में ही सपा के लिये यह सीट जीतने में सफल रहे, किंतु २०१४ के चुनाव में बड़े अन्तर से पराजय के साथ तीसरे स्थान पर रहे। बमुश्किल उनकी जमानत बच पाई थी! मौजूदा समय में चल रही लोस चुनाव प्रक्रिया में सपा के साथ बसपा का तालमेल होने से यह सीट बसपा के खाते में गई और बसपा ने भी कुर्मी प्रत्याशी ही चुना। बसपा से बिंदकी के पूर्व विधायक सुखदेव प्रसाद वर्मा को मैदान में उतारा गया है। वही सपा से टिकट कटने के बाद राकेश सचान बगैर देर किये कांग्रेस की गोद में बैठ गये और कांग्रेस से प्रत्याशी भी बना दिये गये। फतेहपुर के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है जब दो प्रमुख दलो ने एक साथ कुर्मी प्रत्याशी उतारकर बड़ा जोखिम उठाया है। बड़ी बात यह भी है कि दोनो पूर्व में पराजित हो चुके है। एक लोकसभा चुनाव में और दूसरा विधान सभा चुनाव में मात खा चुका है और दोनो ही इस चुनाव में अपने और अपने समाज के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है।
कुल मिलाकर फतेहपुर लोकसभा सीट पर सांसद बनने के बाद किसी भी कुर्मी प्रत्याशी की राह आसान नहीं रही! इतना ही नहीं जो एक बार हारा उसको अपने ही समाज ने फिर तरजीह नहीं दी। देखना यह होगा कि इस बार कुर्मी राजनीति का ऊँट किस करवट बैठता है! क्या आमने-सामने खड़े होने के बावजूद समाज का उच्च संवर्गीय तबका किसी एक पर विश्वास जताते हुए उसे सर्वोच्च सदन की राह में अग्रसर करता है या फिर सियासत की चौपड़ में एक बार फिर कुर्मी समाज फंसकर रह जाता है!






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