थानों के चार्ज देने में बहुस्तरीय निगरानी की व्यवस्था से कितना सुधरेगा पुलिस प्रशासन

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान थमे रहे अपराधों के सिलसिले में अचानक कुछ हफ्तों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। सनसनीखेज घटनाओं में पुलिस की भूमिका भी संदेह के घेरे में रही। राज्य सरकार को इसके कारण चारों ओर ताने सुनने पड़े। किरकिरी से आजिज आकर मुख्यमंत्री ने अपर मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी को गृह विभाग की कमान सौंप दी है। गो कि मुख्यमंत्री अपने चहेते डीजीपी ओपी सिंह को अस्थिर नहीं होने देना चाहते। अविनाश अवस्थी ने गृह विभाग संभालते ही पुलिस को सुधारने की कमान सीधे अपने हाथ में ले ली है। इसके बाद से जो व्यवस्थायें लागू होना शुरू हुई है उनसे उम्मीद है कि काफी फरक पड़ेगा। खासतौर से थाना प्रभारियों के चयन के मामले में पुलिस कप्तानों की मनमानी पर उन्होंने जो अंकुश लगाया है उससे खाकी की लूट खसोट काफी हद तक कम होगी।
बुलंदशहर के एसएसपी एन कोलांची को आंतरिक जांच में थाना प्रभारियों की नियुक्ति और तबादलों में गड़बड़ी का दोषी पाये जाने पर जब निलंबित किया गया तो शासन का ध्यान कप्तानों की कार्यशैली की ओर आकर्षित हुआ। हालांकि उत्तर प्रदेश में थानों की नीलामी कोई नई बात नहीं है। योगी सरकार बनने पर जो लोग इस मामले में स्वच्छ व्यवस्था की उम्मीद संजोये बैठे थे उन्हें निराशा का सामना करना पड़ा। इसकी एक वजह यह भी रही कि संकीर्ण वर्ण व्यवस्थावादी पैमानों को दिमाग में रखकर काम करने की शैली की वजह से योगी सरकार के लिए पुलिस कप्तानों से लेकर थाना प्रभारियों की तैनाती तक विकल्प सीमित रह गये हैं।

बोली लगवाकर थाना देने के मामले में पुलिस कप्तान ही अकेले खिलाड़ी नहीं है। चर्चा तो यह है कि ऊपर और बहुत ऊपर के अधिकारियों तक को चालाक लोग लिफाफा थमाकर थाने ले आते हैं। यह प्रथा एक तरह से निवेश का रूप ले चुकी है। लाखों रूपये अधिकारी को देकर जो इंस्पेक्टर थाना हथियाता है उसके लिए लाजिमी है कि वह मय ब्याज के अपनी लागत की वसूली करे। पुलिस की रिश्वतखोरी दूसरे विभागों की तुलना में इसलिए बहुत तकलीफदेह है कि इसका खामियाजा लोगों को भारी उत्पीड़न के रूप में उठाना पड़ता है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके शासन की जरा भी आलोचना पर उल्टी चड्ढ़ी गांठकर लोगों का मुंह बन्द कराने में माहिर हैं लेकिन इसके जो परिणाम सामने आये उससे सीएम की मुश्किलें घटनाओं का तांता लग जाने की वजह से बढ़ी तब उन्हें लगाम कसने के लिए तत्पर होने की जरूरत महसूस करनी पड़ी।
इसी का नतीजा है कि डीजीपी ओपी सिंह ने अब थाना प्रभारियों की तैनाती को लेकर ऐसे दिशा निर्देश जारी कर दिये हैं जिससे पुलिस कप्तानों को पारदर्शी तरीके से काम करना पड़ेगा। निश्चित रूप से प्रमुख सचिव गृह अवनीश अवस्थी के हस्तक्षेप के कारण थाना प्रभारियों की यह नई गाइड लाइन जारी हुई है।
इसके मुताबिक थाना प्रभारी की नियुक्ति के लिए उम्र की बंदिश लगा दी गई है। 58 वर्ष की उम्र के बाद कोई इंस्पेक्टर थाना प्रभारी नहीं रह पायेगा। साथ ही तीन साल की सेवा पूरी होने के बाद थाना प्रभारी की अर्हता तय करके उन्होंने उपनिरीक्षकों के लिए थाना प्रभारी बनने का रास्ता खोल दिया है। शायद छोटे थानों में अब उपनिरीक्षक ही नियुक्त होंगे जिससे इंस्पेक्टर बनते-बनते उन्हें थाना चलाने का अनुभव हो जायेगा। साफ सुथरे थाना प्रभारियों की तैनाती का आधार तय करने के लिए नई व्यवस्था में कहा गया है कि पांच साल के अंदर जिसकी सत्यनिष्ठा रोकी गई है उसे इस अवसर से वंचित रखा जायेगा। वैसे इस मामले में पुलिस में उल्टा हो चुका है।
ज्यादातर लुटेरे सब इंस्पेक्टरों और इंस्पेक्टरों की सीआर बेदाग रहती है क्योंकि वे अधिकारियों को ज्यादा माल देने में सक्षम होते हैं जिसकी वजह से कितनी भी बड़ी गलती होने पर संबंधितों का कोई अहित नहीं हो पाता। नतीजतन आशंका यह है कि सत्यनिष्ठा का आधार कहीं उल्टा साबित न हो जाये। कई बार सच्चे दरोगा और इंस्पेक्टर अधिकारियों की ढ़ंग से सेवा न कर पाने की वजह से उनके कोप भाजन बन जाते हैं और इसलिए उन्हें सत्यनिष्ठा में रोक की सजा भोगनी पड़ती है। इस मामले में जिन पुलिस कर्मियों के ठाठबाट बहुत बढ़े हुए हैं उनकी जांच कराकर उन्हें विभाग से बाहर करने की घोषणा की गई थी लेकिन यह ड्रामा साबित हुआ। इस नाम पर केवल वे लोग बर्खास्तगी में गिना दिये गये जिनकी फाइलें हमेशा शराब के नशे में अव्यवस्था फैलाने या अन्य कारणों से तैयार थी। इसलिए यह घोषणा विभाग में कोई रंग न ला सकी।
इसके साथ ही यह भी तय किया गया है कि पिछले तीन वर्षो में जिन्हें कोई गंभीर प्रकृति का दंड मिला है या प्रतिकूल प्रविष्टि दी गई है उन्हें भी थाना प्रभारी की दौड़ से बाहर कर दिया जायेगा। प्रशासनिक आधार पर स्थानातरित सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर को एक साल तक थाने की बागडोर सौपने पर रोक लगा दी गई है। साथ ही कप्तान बिना किसी ठोस कारण के थाना प्रभारी को नहीं हटा सकेंगे। उन्हें इस बारे में पहले आईजी या डीआईजी को जानकारी देकर उनसे अनुमति लेनी पड़ेगी।
इन मानको पर तैयार उपयुक्तता सूची को कप्तान रेंज के प्रभारी के पास भेजेंगे। जिसका अनुमोदन होने पर ही वे उसमें से किसी को थाना प्रभारी नियुक्त कर सकेंगे। एडीजी को हर महीने डीजीपी कार्यालय में यह प्रमाण पत्र सौपना होगा कि उनके अधिकार क्षेत्र के किसी जिले में उपयुक्तता सूची तय मानकों से इतर नहीं है। बहुस्तरीय निगरानी की यह व्यवस्था वैसे तो काफी आशाप्रद है लेकिन इसमें जाति आधारित योग्यता की कसौटी अगर कच्ची पड़ती है तो सरकार क्या करेगी।

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