एकता की सेतुबंध राम पूजा

अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर देश भर में कौतूहल छाया हुआ है। दूसरी ओर व्यवस्था के कर्ता-धर्ता इस अंदेशे का सामना कर रहे हैं कि कहीं फैसले के बाद तनाव और अशांति का घटाटोप न छा जाये। उत्तेजना भरे इस वातावरण में राम पूजा की आज के समय प्रासंगिकता पर विचार काफी हद तक सुकून और तसल्ली दे सकता है।
इस विवाद को दो कौमों के बीच मूंछ की लड़ाई के बतौर देखा जा रहा है। लेकिन याद रखना होगा कि त्रेता में पानी में बिछाये गये पत्थर राम नाम के कारण डूबने की अपनी नियति से परे होकर समुद्र के बीच सुगम रास्ते में ढल गये थे। राम के नाम में सेतु बंध की यह तासीर आज भी कायम है बशर्ते लोग रामोपासना के इतिहास से परिचित हों।
राम पूजा के सूत्रपात में शामिल रहे हैं मुसलमान
विष्णु के अवतार के रूप में राम की चर्चा तो कालीदास के समय से हो रही थी। लेकिन उनकी पूजा का प्रचलन 1299 में प्रयाग में जन्में रामानंद स्वामी ने कराया। राम को आराध्य मानने वाले बैरागियों के स्वतंत्र समुदाय का सूत्रपात उन्होंने किया जिसमें दो खास बातें थीं। एक तो एक तो उन्होंने हिंदुओं के बीच शूद्रों तक के लिए इसके द्वार खोल दिये थे। दूसरे मुसलमानों को भी इसमें अंगीकार किया था। इस विशेषता के रहते हुए राम पूजा को केंद्र में लाने से देश में साम्प्रदायिक भाईचारे के नये युग के अवतरण होने की कल्पना करने वाले गलत नही हो सकते। इसलिए अयोध्या में संभावित धार्मिक क्रांति तनाव पैदा करने वाली नही, आशा बंधाने वाली है।
मानस की प्रशंसा में रहीम ने लिखे थे दोहे
यही नही रामचरित मानस के रचियता गोस्वामी तुलसी दास से जुड़ी किवदंतियों पर गौर करें तो राम की आराधना को साम्प्रदायिक एकता के आलंबन के रूप में देखे जाने की धारणा और पुष्ट होती है। वे कटटर हिंदू थे लेकिन मुसलमानों में भी सम्मानित थे। रामचरित मानस व अन्य रचनाओं में कई स्थानों पर उन्होंने अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग किया जो दर्शाता है कि उन्हें मुसलमानों से दुराव नही था। कहा तो यह जाता है कि उन्होंने अपने समकालीन अकबर बादशाह से भेंट की थी। लेकिन इसका कोई पुख्ता प्रमाण नही है। पर यह तथ्य स्वयं सिद्ध है कि अकबर के खास सिपहसलार अब्दुल रहीम ने रामचरित मानस की प्रशंसा में कई दोहे रचे थे और गोस्वामी जी व रहीम के बीच घनिष्ट मित्रता थी। जनश्रुति यह भी है कि गोस्वामी तुलसीदास ने एक बार मस्जिद में आश्रय भी लिया था। हालांकि इसका कोई भरोसेमंद हवाला नही मिलता। फिर भी यह तय है कि गोस्वामी तुलसीदास जी का व्यक्तित्व हिंदू-मुस्लिम मेल-जोल बढ़ाने में उत्प्रेरक था। इसलिए रामचरित मानस की महिमा को बढ़ावे से फितूर की बजाय राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलने की शुभाशा अन्यथा नही है।
मानस और कुरान के अवतरण की कथाओं में साम्य
रामचरित मानस को लेकर एक चौंकाने वाला तथ्य है। कुरान और रामचरित मानस के अवतरण की किवदंतियों में काफी साम्य है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार पैगंबर साहब पर जिब्राइल नाम के फरिश्ते की सवारी आती थी जो उनसे अल्लाह का पैगाम आयतों की शक्ल में दर्ज कराता था। इसी तरह रामचरित मानस के बारे में कहा गया है कि मानस को गोस्वामी जी ने स्वयं नही लिखा, इसे हनुमान जी ने उनसे रचवाया है।
राम पूजा ने शूद्रों को किया सम्मानित
रामोपासना की परंपरा का एक और रचनात्मक पहलू है जो इसे आज के समय बहुत प्रासंगिक बना देता है। जिस भक्ति आंदोलन के दौर में रामपूजा स्थापित हुई उसकी लहर दक्षिण से उठी थी। जिसका श्रेय आलावार संतों को था जो शूद्र थे। 11वीं शताब्दी में यह लहर उत्तर भारत में पहुंची और सदियों तक फली-फूली। गोस्वामी तुलसीदास भक्ति आंदोलन के बीच में निहित सामाजिक समरसता के तत्व से अछूते नही थे जबकि वे वर्ण व्यवस्था के जबर्दस्त पोषक थे। उन्होंने राम के वनवासियों से प्रेम और शबरी के बेर खाने के प्रसंग को इतने हृदय स्पर्शी ढंग से मानस में प्रदर्शित किया है कि इसे हिंदू धर्म का एक नया मोड़ कहा जा सकता है। इसीलिए रामजन्म भूमि आंदोलन दलितों और पिछड़ों को व्यापक तौर पर संगठित कर सका है।
राम कथा में भौगोलिक एकता के तत्व
यह भी दृष्टव्य है कि रामजन्म भूमि आंदोलन में दक्षिण भारतीय प्रांतों के भक्तों ने अधिक समर्पण और उत्साह दिखाया। जबकि अयोध्या उत्तर भारत में है। दरअसल रामायण हिंदी से पहले तमिल में लिखी गई थी। उत्तर भारत में राम आराधना के प्रवर्तक रामानंद स्वामी को इसकी प्रेरणा दक्षिण प्रवास के समय ही मिली थी। इसलिए राष्ट्र की भौगोलिक एकता की दृष्टि से भी रामोपासना महत्वपूर्ण है।
इस्लाम के लिए राम पूजा में बड़ा स्पेस
रामानंद स्वामी के शिष्यों में एक ओर गोस्वामी तुलसीदास से तो दूसरी ओर कबीर और रविदास आदि जो राम को दशरथ का पुत्र नही अकाल अजन्मा घोषित करते थे। कबीर दास ने कहा था कि मेरे आराध्य राम वही हैं जिसे इस्लाम में रहीम कहा गया है। निराकार ईश पूजक इस्लाम के लिए राम पूजा में इस दृष्टि से पर्याप्त स्पेस दिखाई देता है और यह संयोग नही है कि ऐसे कबीर का जब निर्वाण हुआ तो उनके पार्थिव शरीर पर अधिकार को लेकर हिंदू-मुसलमान आपस में झगड़ पड़े। यह तथ्य रामोपासना में साम्प्रदायिक एकता की अवधारणा को और बल प्रदान करता है।
दशानन इंद्रियों के संहारक हैं राम
विष्णु के अवतारों की पूजा की शुरूआत हुई तो पहले कृष्ण पूजा प्रभावी रही। लेकिन वैराग्य को घनीभूत करने की दृष्टि से कृष्ण भक्ति के माधुर्य के विकल्प को लाने की जरूरत रामानंद स्वामी ने महसूस की। जिसके परिणाम में उन्होंने रामोपासना का सूत्रपात किया। रामोपासना ने एक ओर तो लोगों में वीरता को उभारा दूसरी ओर त्याग के मूल्यों को प्रतिष्ठापित किया। राम ने जिस दशानन का वध किया था वह लाक्षणिक है। युवराज घोषित होने के बाद उन्हें राज्य चलाने के लिए नैतिक अधिकार हासिल करने की आवश्यकता लगी और वे वनवास के लिए निकल गये जहां उन्होंने दसों इंदियों की भोगेच्छा का त्याग कर सजह जीवन जीने की साधना की। मखमल की सेज छोड़कर खरारी जमीन पर नींद लेना, जिव्हा के स्वाद को भुलाकर सुस्वादु भोजन के स्थान पर कंदमूल खाते हुए भी अपने को तृप्त कर लेना इत्यादि जब संभव हो गया तो संपूर्ण पवित्रता को प्राप्त कर 14 वर्ष बाद वे विधिवत सिंहासन पर बैठे और स्वयं को उदाहरण बनाकर प्रजा समाज में नैतिक जीवन जीने की होड़ पैदा करके ऐसा राज किया जो अप्रतिम बन गया और रामराज मुहावरा हो गया। राम कथा की इसी उत्प्रेरकता की आवश्यकता देश को है तभी सच्चा सुशासन देखने को मिल पायेगा।

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