(इस ब्लाग के लेखक राजनीतिक शास्त्र के विद्वान और बाबा साहब अम्बेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ के सामाजिक न्याय पीठ के संकाय अध्यक्ष डा0 रिपुसूदन सिंह हैं )

बसंत ऋतु इस धरा का श्रृंगार है। भारत मे तो इस मास को फागुन कहते है। मान्यता है कि इस मौसम में स्वयं कामदेव इस रमणीक धरा पर उतर आते हैं। यह उमंग, उत्सव, रंगों के माह में तब्दील हो जाता है। इस ऋतु में सब कुछ और इंसान से लेकर पेड़ पौधे, पशु, पक्षी सभी मदमस्त हो खिल उठते है। इस साल तो बसंत अपनी पूर्ण यौवनावस्था में था। पेड़ पौधे भी फूलो से बौरा गए थे। पर अचानक हर तरफ उदासी पसर गयी। एक अनजान सा सन्नाटा छा गया है। एक परेशान सा वायरस सपअपदह वतहंदपेउ जीवित जीव नही बल्कि एक प्रोटीन अणु डीएनए के रूप में इंसानों की बस्ती में घुस गया। वह भूख, प्यास से बेहाल था। उसके घर इंसानों ने छीन लिए थे। नदियों, पहाड़ो और समुद्रों को दूषित कर दिया। ध्वनि, जल और हवा रहने लायक न छोड़ी। नदियों के नीचे पड़ी उसके नेचुरल बेड तक को भी मशीन लगाकर तहस नहस कर दिया। पृथ्वी के पेट से जल गायब होने लगा। पशुओं को मार कर इंसान पैसे कमाने लगे। प्रकृति बेबस दो सौ सालों से मूक बनी देखती रही। आज मानो इस धरा पर सब कुछ रुक सा गया है।
इंसान से प्रकृति के संरक्षण की भीख मांगने आया है यह दूत
कोयल की कूकने की कही दूर से आवाजें आ रही है पर उसमे दर्द और वेदना है। प्रकृति पर उस वायरस का भी इंसानों की तरह ही समान हक था। वह क्या करता वह इंसान से प्रकृति के संरक्षण की भीख मांगने आया है। न दोस्ती न यारी न प्रेम न मोहब्बत न भाई न बहन न त्याग न दया न करुणा न दर्द। दुख सर्वत्र बिखर गया है। समूचा विश्व दुख से भर गया है। चारों ओर दुख ही दुख। इतना दुख इंसान ने कभी देखा नही। दुख तो पहले से था। सभी दुखी। दिल टूटने का दुख, विश्वास के खंडित होने का दुख, मन और शरीर का दुख, संबंधों का दुख, भूख, बेरोजगारी का दुख, अलगाव और विस्थापन का दुख। अनेक दुखो के रहते ये कैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा। कैसा वायरस जो खुद बहुत दुख से भरा है, संतृप्त और अधीर है।
लोग खुद हैं अपनी विपत्ति का कारण
बुद्ध ने कहा जीवन मे दुख है। पर यह साम्प्रदायिक नही यह किसी पूर्व जन्मों के कर्मो का पाप नही। यह दुख तो सांद्रिष्टिक है। मनुष्यो के खुद के कर्मो से उत्पन्न हुआ है। इसमें किसी का भी दोष नही। यह उसके काम, क्रोध, स्वार्थ, लालच, दम्भ, मद, अहंकार, अज्ञानता, अंधविश्वास से उत्पन्न हुआ है। यदि इस दुख के पीछे मनुष्य ही मात्र कारण है तो समाधान भी वही प्रस्तुत करेगा। कही आसमान से आस्था और विश्वास से प्रार्थना और इबादत से नही आएगा इसका समाधान कही और से नही आने वाला। अपने कर्मो में सुधार और अपनी पाशविक.शैतानिक प्रवृतियों और नैसर्गिक अज्ञानता और अंधविश्वास में परिवर्तन से ही इसका समाधान होगा।
बाजार को माई बाप बनाने का बुरा नतीजा
मनुष्य को तुरंत, अतिशीघ्र धम्म की शरण मे जाना होगा। इस धम्म का किसी ईश्वर, गॉड, खुदा, आत्मा, रूह, सोल से कुछ नही लेना देना। यह सभी इंसान के लिए है। किसी को भी अपना पंथ या धर्म बदलने की जरूरत नही। यह धम्म तो प्रकृति के साथ साथ ही फैला है और हम स्वम उसी की उत्पत्ति है। यह हमारे नैसर्गिक स्वभाव (नेचुरल बवदकनबजद्ध से जुड़ा है। विलासितापूर्ण उपभोगितावादी सभ्यता ने अपने लाभ के लिए मनुष्य को प्रकृति से कोसो दूर कर दिया। हम अपनी प्रकृति को ही छलने लगे। प्रकृति के नैसर्गिक भाव को बेईमानी, धूर्तता, चालाकी, विश्वासघात, छल षडयंत्र से भर दिया है। बड़ी बड़ी कंपनियों ने अपने फायदे के लिए झूठे सच और डराने वाली सूचनाएं गढ़ी और लोगों को प्रकृति से दूर कर अपनी दवाईयों, अपने खानों और ऐशो आराम वाली जीवन शैली पर निर्भर कर दिया। आज सब कुछ, सारे बाजार, शेयर, होटल, हवाई यात्रा, चमचमाते मॉल सब के सब रुक सा गया है। पेट्रोल पानी से सस्ता बिक रहा है। हमने अपनी इम्युनिटी बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कंपनियों के लालच के हवाले कर दिया। हम अपनी बासी रोटी में कच्चे कडु तेल सरसो के स्वाद को मैगी के कृत्रिम स्वाद के हवाले कर दिया। उसने हमें अपने स्वाद, पसंद, नापसंद से अलग कर दिया। हम नेचर से कट गए। बाजार हमारा ईश्वर बन गया।
धर्म की वास्तविक परिभाषा को समझने की है जरूरत
आज धर्म को समझना होगा। इसे अफीम मानकर या मात्र आस्था और फेथ का मामला मानकर नही छोड़ सकते। धर्म को मात्र किसी भी पुस्तक यथा शास्त्र, वेद, पुराण, धम्मपद, बाइबिल, कुरान, दास कैपिटल, रेड या ग्रीन बुक के जरिये देखगें तो धर्म से कट जायेगे, प्रकृति से कट जायेगें, सत्य से कट जायेगें। कोई भी सत्य निरपेक्षया अंतिम नही होता। यह सदा बदलता रहता। यह नित परिवर्तित होकर नया बन जाता। धर्म न तो पुराना होता और न ही नया। यह सिर्फ परिवर्तित होता। यह काल और स्थान के साथ कदम मिला कर चलता है। पंथ, रिलिजन, मजहब, विचारधारा ने धर्म पर कब्जा कर लिए और उसकी मूल और मौलिक चेतना को कुचल दिया। उसको पैगम्बरों, अवतारों, गॉड पुत्र, मुल्ला, मौलवी, पुरोहित, पादरी, नेताओ और विचारकों ने अपने अपने चश्मे से धर्म को पेश किया। धर्म नष्ट हुआ, प्रकृति नष्ट हुई, वायरस स्वयं परेशान होकर इंसान की शरण मे आ गया है। इसे सिर्फ धम्म की ही सहायता से वापस नेचर की ओर कर सकते हैं और वो भी मनुष्य की सक्रिय और सकारात्मक भागीदारी से।
धर्म यानि प्रकृति के अनुकूल आचरण
प्रकृति के अनुकूल आचरण करना ही धर्म है। धर्म ओढ़ने और विश्वास की वस्तु नही, बल्कि ग्रहण करने और व्यवहार में लाने का संकल्प है। धम्म को धारण करने के लिए किसी पंथ, सम्प्रदाय, मजहब और रिलिजन की जरूरत नही। आज मानो सारे विश्वास और आस्था के केंद्र पर ताले लटका दिए गए है। सारी दृश्य और अदृश्य शक्तियां इसी पृथ्वी पर उपस्थित है। उन्हें ही खुश करने की आज जरूरत है। इसे मात्र मंत्रोच्चारण, पूजा और इबादत से नही रोका जा सकता। इसे कर्मो से ही हासिल किया जा सकता। इंसानों की ही टीम जी जान से रात दिन इस विकराल वायरस से निपटने में लगी है। वे जान गए है कि यह वायरस मनुष्यो के द्वारा प्रकृति से लगातार की गई छेड़छाड़ से अपनी दिशा परिवर्तित कर मनुष्य की ओर आ गए है। उसे आज का उपभोगी इंसान ही सबसे सुरक्षित निवास लगा। चला आया उनमे रहने। इसको 21 या कुछ और दिनों में शांत करके वापस उसकी जगह यही एक शांत प्रकृति में वापस भेजने होगा। जिनको इसने पकड़ लिया है उससे उसे मात्र छुटकारा दिलाया जा रहा है। मनुष्य अपनी गतिविधियों को कुछ दिनों के लिए न्यूनतम कर दे। इससे प्रकृति को भी अपने को संतुलित करने का मौका मिल जाएगा। उसका गुस्सा भी शांत हो जाएगा।
इंसान से नेचर के क्रुद्ध होने का पहला मामला, सबक लिया जाये
यह संभवतः इस पृथ्वी के इतिहास में पहली घटना है नेचर का इंसान से नाराज होने। धम्म अर्थात प्रकृति को धारण करके ही हम उस प्रकृति के गुस्से में करुणा और दया भर सकते है। आएं प्रकृति का आह्वाहन करे, धम्म को धारण करें, बुद्धि और विवेक को जागृत करें। धम्म से मतलब नेचर के करीब, बुद्धि और ज्ञान के समीप जाना होगा। तत्काल ही सभी अपनी अपनी शारीरिक गतिविधियों को पूर्ण रूप से बढ़ा दें। योग, प्राणायाम, कसरत, मैडिटेशन करना शुरू कर दें। नीम के पत्तो को घरों में हर जगह रख लें। दिन में एक दो बार अपने गेट पर उसे जला कर धुआं कर ले। सब कुछ सामान्य हो जाएगा। प्रकृति पुनः इस धरा पर बसंत वापस कर देगी। ऋतु बहाल हो जाएगी।

One response to “कही-अनकही–मदमस्त ऋतु में टूटा यह क्यों दुखों का पहाड़”

  1. Dr. Iftikhar Hasan Avatar
    Dr. Iftikhar Hasan

    Above article is very important, beautiful and based on facts . My heartily congratulations. I agree with your statement that Human beings are ignoring and interfering Natural balance .Corona disease or other crisis are due to maximum disturbance by so called Super Intellectual Human race. Dear sir I heartily appreciate you for this noble article. In waiting of other such beautiful articles

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