कोरोना का बहाना, सांसद निधि बनी निशाना

कोरोना से जंग के नाम पर सांसदों के संबंध में सरकार ने दो महत्वपूर्ण फैसले घोषित किये हैं एक तो सांसदों के वेतन में 30 प्रतिशत कटौती का और दूसरा दो साल तक उनकी निधि को प्रधानमंत्री के एकीकृत कोष में स्थानांतरित करने का।
अगर किसी सांसद ने व्यक्तिगत तौर पर इस तरह की घोषणा की होती तो लोग उसके सिजदे में बिछ जाते। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सामूहिक रूप से अगर स्वेच्छा से सभी सांसदों ने यह फैसला लिया होता तो संस्थान के बतौर उनके प्रति लोगों में असीम श्रद्धा उमड़ सकती थी। यह देश बहुत धार्मिक कहा जाता है लेकिन यहां की धार्मिकता खोखली है। दरअसल आस्तिकता समाज के असाधारण लोगों पर टिकी होती है। बिडंबना यह है कि यह तथाकथित असाधारण व्यक्तित्व क्षुद्रता में सिमट गये हैं जिनका गरिमा से कोई सरोकार नही है।
आस्तिकता अमूर्त नही होती। उसका प्रत्यक्ष बोध लोगों को कराने के लिए सजीव प्रतीक चाहिए और इसके सबसे बड़े उदाहरण महानुभाव लोग ही बन सकते हैं। माननीय जनप्रतिनिधि इस कोटि में आते जरूर हैं लेकिन उन्हें निम्न आचरण का संवरण करने की जरूरत नही महसूस होती। उन्होंने तो निर्लज्जता की सारी सीमाएं तोड़ कर रख दी हैं।
देश की कार्यकारी व्यवस्था में संसद सर्वोच्च है। जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि संविधान में संप्रभुता जनता में निहित की गई है जिसकी अभिव्यक्ति संसद के माध्यम से होती है। अब सांसदों की क्षुद्रता का खेल देखिए। जब उनके वेतन भत्तों की बात आती है तो वे नौकरशाहों के मुकाबले अपने प्रोटोकॉल का झगड़ा ले बैठते हैं जबकि वेतन के मामले में उन्हें नौकरशाहों से कोई तुलना करनी ही नही चाहिए। अधिकारी वेतनभोगी जन सेवक हैं इसलिए गरिमापूर्ण शिष्टाचार के वैसे अधिकारी नही हैं जैसे जन प्रतिनिधि होते हैं और न ही उनके लिए विशेषाधिकार की व्यवस्था है। सांसद किसी के वेतनभोगी नौकर नही हैं उन्हें वेतन नही मानदेय मिलता है। वेतन भत्तों के बाद माननीयों को मुफत में लजीज खाना भी चाहिए। अभी मोदी सरकार ने संसद की कैंटीन के दामों की सुसंगत व्यवस्था की है वरना पहले तो एकदम मुफ्तखोरी जैसा आलम था। इतने के बाद भी सांसदों को सब्र गंवारा नही है। तमाम मुफ्त सुविधाओं के बाद क्षेत्र के लोगों के जलपान के लिए जो खर्चा उन्हें मिलता है उसमें से एक कप चाय किसी को पिलाने में उनकी नानी मरती है। निजी सहायक के लिए उन्हें वेतन मिलता है। पहले वे इसमें अपने किसी रिश्तेदार का नाम चढ़वाकर यह रुपया भी हजम कर जाते थे। अब मोदी ने भाजपा सांसदों के लिए ऐसा करना दुरूह बना दिया है। चुनाव हार जाने के बाद जिन सांसदों के दिल्ली में आलीशान बंगले हैं वे भी सरकारी फ्लैट आसानी से खाली नही करते। इस मामले में भी मोदी सरकार की तारीफ करनी होगी कि उसने पीछे लगे रहकर पूर्व सांसदों के फ्लैट और पूर्व मंत्रियों के बंगले काफी हद तक समय पर खाली करा लिए। इतना ही नही मोदी ने भाजपा सांसदों के लिए ऐसी व्यवस्था कर दी है कि अगर वे ऊंची तनख्वाह लेते हैं तो संसद में समय देना भी सीखें। अगर सत्र चल रहा होता है तो त्योहार, घर की शादियों और यहां तक कि रिश्तेदारों की अंत्येष्टि में भी सांसद को दिल्ली छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
माननीयों का चारित्रिक स्तर ऊंचा उठाना आवश्यक भी है और एक बड़ी चुनौती भी। यहां एक प्रसंग का उल्लेख सामायिक होगा इंदौर में आजादी के बाद के तात्कालिक दशकों में टोपी वाला सरनेम के एक सांसद हुआ करते थे। उनके खिलाफ दिल्ली प्रेस की मशहूर पत्रिका सरिता में एक लेख छप गया। नाराज होकर सांसद जी ने मान-हानि का मुकदमा दायर कर दिया। सरिता के संपादक और प्रकाशक इसे लेकर जबलपुर हाईकोर्ट चले गये। हाईकोर्ट के सामने सांसद जी ने दुहाई दी कि उन्होंने इतने लाख वोट चुनाव में हासिल किये हैं ऐसे इज्जतदार मुझ टोपी वाला की टोपी उछालने के लिए सरिता के संपादक को सजा दी जानी चाहिए। जबलपुर हाईकोर्ट ने इस मुकदमें में रोचक व्यवस्था (रूलिंग) दी कि चुनाव में मिले वोट किसी के इज्जतदार होने की डिग्री नही है। कई बार बहुत बुरे उम्मीदवार को लाखों की संख्या में वोट मिल जाते हैं यहां तक कि वह चुनाव भी जीत जाता है। इसका मतलब यह नही है कि वह अत्यंत प्रतिष्ठित मान लिया जाये यह वस्तुःस्थिति है। पर तकनीकी आधार पर माननीय कहे जाने वाले जनप्रतिनिधि और लोग उसे कितना सम्माननीय मानें इस अंतर का पाटा जाना लोकतंत्र की विश्वसनीयता के लिए अपरिहार्य आवश्यकता है। यह तब होगा जब हर पार्टी ऐसी आचार संहिता बनाये जिससे सांसद, विधायक सार्वजनिक जीवन में त्याग और संयम की बानगी प्रस्तुत करना अपना सर्वोपरि कर्तव्य मानें।
एमपी लैड की धनराशि कोरोना से जंग में झोंकने से तमाम सांसद अंदर ही अंदर अपने को निश्चित ही असजह महसूस कर रहे होगें क्योंकि इसमें ऐसे कमीशनखोर सांसदों को कमाई नही हो पायेगी। जनता भी इस बात को जानती है इसलिए एमपी लैड की जबरिया कुर्बानी के कारण उन्हें कोई प्रतिष्ठा हासिल नही हो रही है। वैसे भी संविधान में शक्तियों के विकेंद्रीय करण के सिंद्धात की चर्चा है। इसे देखते हुए विधायिका के पास एक्जीक्यूटिव की पावर सदृश्य क्षेत्र विकास निधि का अधिकार नही होना चाहिए। नरसिंहा राव ने अपनी अल्पमत सरकार को पूरे पांच साल चलाने के लिए तमाम अनुचित खैरातें सांसदों को बांटी थीं। एमपी लैड की व्यवस्था उसमें सबसे ऊपर थी। इसी कारण कई बार इस निधि के प्रावधान को खत्म करने की आवाजें उठीं लेकिन जब भी ऐसा होता है चाहे वह केंद्र में हो या राज्यों में माननीय पार्टी लाइन भूलकर इस मामले में एकजुट होकर सरकार को ब्लैकमेल करते हैं।
कहते हैं कि गंगोत्री पवित्र हो तो नीचे तक पहुंचने वाला जल भी अपने आप पवित्र होगा। लोकतंत्र में माननीय सार्वजनिक जीवन में शुचिता के सतत प्रवाह के लिए गंगोत्री की तरह एक केंद्र बिंदु हैं। इन्हें शुद्ध रखना बहुत जरूरी है। प्रत्याशियों के चयन के स्तर से ही इसके लिए दृढ़ संकल्प दिखाया जाना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी आज इस स्थिति में है कि उच्च परंपराएं स्थापित कर सकें। हालांकि भाजपा में शुरू से ही पार्टी विद ए डिफरेंस की तड़प रही है। लेकिन जब उसका अस्तित्व बढ़ा उस समय गठबंधन सरकारों का दौर था और व्यवहारिक परिस्थितियों के चलते पार्टी के नेता अपनी प्रतिबद्धता को सफल करने के लिए बहुत नही कर सकते थे।
आज भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को मुक्तहस्त अवसर प्राप्त है। उसे पार्टी विद ए डिफरेंस की दिशा में प्रयोग करने चाहिए। प्रत्याशी बनाने में वह पार्टी की सदस्यता से अपने को बांध कर न रखें। अच्छी छवि और जनसेवा के लिए सक्रिय रहने वाले ऐसे लोग जो किसी पार्टी से न जुड़े हों उनकी उम्मीदवारी का कोटा भी उसे तय करके रखना चाहिए। कुछ जगह इसको लेकर विरोध का सामना कर पड़ सकता है। महत्वाकांक्षी कार्यकर्ता कहेगें कि हम लोग जिंदगी भर पार्टी की सेवा करते रहे लेकिन टिकट उन प्रोफेसर साहब, वकील साहब या किसी ऐसी और शख्सियत को दे दिया गया जिसने पार्टी की कभी कोई सेवा नही की थी। ऐसे लोगो के लिए पाटी नेतृत्व को हाजिर जबाव रहना चाहिए। पार्टी नेतृत्व कहे कि लोग विचारधारा के कारण पार्टी से जुड़ते हैं लेकिन उम्मीदवारी में यह देखना पड़ता है कि सार्वजनिक जीवन में उनकी कितनी उपयोगिता है। इसलिए हमेशा केवल पार्टी कार्यकर्ता को ही टिकट नही दिया जा सकता। इस तरह के अपवादों से पार्टी ताजगी से भरी रहेगी। कोल्हू के बैल की तरह किसी व्यवस्था को नियमों से बांध कर रखने पर उसमें जड़ता और संड़ाध आ जाती है। 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद पार्टी सांसदों की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बातें कहीं थी उससे यह लगता है कि माननीयों को सचमुच आदरणीय स्वरूप् में ढालने के लिए उनके दिमाग में अब पहले ही दिन से एक नक्शा है जिस पर आहिस्ते-आहिस्ते वे कदम आगे बढ़ा रहे हैं। इसका स्वागत होना चाहिए।

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